गौतम चौधरी
भारत के बारे में यह कहा जाता रहा है कि यह दुनिया का एक ऐसा मुल्क है, जहां दुनिया भर से लोग आए, अपने चिंतन को साथ लाए, साथ ही वे अपने देवता को भी लेकर आए। जहां से वे आए थे, आज वहां उनका चिंतन और देवता दोनों खत्म हो चुके हैं, कोई नाम लेने वाला नहीं है लेकिन भारत में वह जिंदा है। भारत में जब इस्लाम आया तो भारत की जनता ने उसका भरपूर स्वागत किया। इस्लामी देश में कोई महिला शासन कर सकती है, ऐसा उदाहरण नहीं के बराबर मिलता है लेकिन भारत में रजिया सुल्तान ने न केवल दिल्ली पर शासन किया अपितु उसका शासन पूरे सल्तनत काल का सबसे बढ़िया शासन माना जाता है।
सन् 712 में सिंध पर अरबी आक्रमण से पहले भारत के दक्षिण तटीय क्षेत्र का परिचय इस्लाम से हो चुका था और प्रथम चरण में दक्षिण भारत के लोगों ने इस्लाम का जबरदस्त स्वागत किया। इसलिए भारतीय मुसलमानों को यदि आप दुनिया के मुसलमानों से तुलना करेंगे तो यह उचित नहीं होगा। भारतीय इस्लाम पर उपमहाद्वीप की मिट्टी व सनातन संस्कृति का जबरदस्त प्रभाव है। यही कारण है कि आधुनिक दुनिया में भयानक उथल-पुथल के बाद भी भारत का मुसलमान देश के संविधान के साथ आज भी जुड़ा है और उसकी इज्जत हिफाजत के लिए प्रयत्नशील है।
सन् 1990 के दशक में अल-कायदा दुनिया भर के हजारों युवा मुसलमानों को आकर्षित करने में सफल रहा, लेकिन वह भारतीय मुसलमानों को आकर्षित नहीं कर पाया। 1980 के दशक में, हजारों मुसलमान गैर-विश्वासियों के खिलाफ ‘जिहाद’ के नाम पर अफगान युद्ध में शामिल हो गए परंतु भारतीय मुसलमानों ने इसमें भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। जब आईएसआईएस द्वारा खलीफा के लिए एक वैश्विक कॉल किया गया था, तो कई करोड़ की आवादी वाले भारतीय मुसलमानों में से केवल 200 ने ही इसके कॉल को स्वीकार किया। हालांकि, यह बताया गया कि उनमें से 25 से कम वास्तव में लड़ने के लिए सीरिया गए, जबकि 25 के एक अन्य समूह ने इस्लामिक स्टेट में रहने के इरादे से खुरासान में प्रवास किया और बाकी केवल ऑनलाइन गतिविधि में ही शामिल हो पाए। बाद में यह खुलकर बात यह सामने आयी कि जो भी आईएसआईएस के लिए लड़ने गए थे उन्हें चरमपंथी विचारधारा से बहुत ज्यादा मतलब नहीं था और आईएसआईएस की असलीयत जाने तो फैरन अपने देश वापस आने के जुगत में लग गए। एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि अल-कायदा या आईएसआईएस के लिए भारतीय मुसलमानों में व्यापक पैमाने पर आकर्षण क्यों नहीं बन पाया?
इसका जवाब भारत की सर्वधर्मी संस्कृति में सन्निहित है। भारतीय मुसलमानों ने राष्ट्र के राजनीतिक और आर्थिक जीवन की हाशिए पर होने के बावजूद भी ‘जिहाद’ के नाम पर हिंसा को हमेशा खारिज किया है। भारत के उस अनूठे इतिहास का प्रत्यक्ष परिणाम है जिसने एक असाधारण बहुलतावादी संस्कृति को भारतीय संविधान और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र द्वारा समावेशित किया है। भारत की बहुलतावादी संस्कृति के निर्माण में जितना तुलसी, कबीर, सूर, नानक और संत ज्ञानेश्वर की भूमिका है उतनी ही भूमिका ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, निजामुद्दीन औलिया, खुसरो, रसखान आदि सूफी संतों की भी है। इस देश का कोई भी नागरिक, हिन्दू हो या मुसलमान दरगाह और मंदिर में फर्क नहीं करता है। वास्तव में, सूफीवाद ने कुछ सूफियों के साथ हिंदू रहस्यवाद के ज्ञान को भी इस्लामी और हिंदू मान्यताओं के बीच समानताएं दिखाई है।
भारतीय मुसलमान हमेशा पाकिस्तान जैसे धर्मशासित राज्य के बजाय भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य में विश्वास करते रहे हैं। अधिकांश भारतीय मुसलमानों की राय यह है कि वे भारतीय धर्मनिरपेक्ष समाज के भीतर काम करने की स्वतंत्रता से अधिक कुछ नहीं चाहते हैं। हालांकि भारतीय मुसलमानों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बनाए रखने में कुछ बाहरी तो भीतरी चुनौतियों का भी सामना किया है लेकिन उन्होंने धैर्य नहीं तोड़ा। समाज में हिल-मिल कर देश के विकास में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं। कभी पाकिस्तान तो कभी बांग्लादेश, कभी अरब तो कभी सीरिया, कभी-कभी भारत के बहुसंख्यकों की ओर से भी इन्हें चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। शालीन, शांत और विकासधर्मी भारतीय मुसलमानों ने सीमित प्रतिक्रिया से सारी चुनौतियों का समाधान ढुंढ लिया है। देश के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और मुसलमानों के हाशिए पर जाने के प्रयासों को इस विचार से खारिज कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में वे एक अखंड समुदाय के रूप में कार्य करते हैं।
अधिकांश मुसलमानों ने संवैधानिक संस्थाओं में विश्वास व्यक्त किया है और अत्याचार (यदि कोई हो) के मामले में बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ सामूहिक टकराव से इनकार करता रहा है। भारत के मुसलमान हर समय संविधान को ही हर समस्या का समाधान माना है। भारतीय मुसलमानों का मानना है कि जब तक भारत का संविधान प्रभावशाली भूमिका में है भारतीय मुसलमान सुरक्षित हैं। यह चिंतन मुस्लिम समुदाय की राजनीतिक परिपक्वता और उनकी गहरी राष्ट्रवादी भावनाओं की पुष्टि करता है। राष्ट्रीयता और मातृभूमि की आराधना के मामले में रांची के विद्वान मौलाना मुफ्ती अब्दुल्ला अजहर कासमी साहब बताते हैं कि मातृभूमि की सुरक्षा करना हमारा नैतिक और धार्मिक कर्तव्य है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि हम केवल अल्लाह के सामने ही सिर झुकाते हैं लेकिन यदि मादरे वतन पर किसी की बुरी नजर लगे तो हम उसका अपनी जान देकर प्रतिकार करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
हाल के रुझानों के साथ-साथ इतिहास ने भी यह दिखाया है कि चरमपंथी समूह भारतीय मुसलमानों को भड़काने में बुरी तरह विफल रहे हैं। अब यह बहुसंख्यकों की जिम्मेदारी है की वे उनकी भावनाओं की सराहना करे और अतिवाद व कट्टरता को रोकने के लिए सामूहिक रूप से एकजुट मोर्चा बनाएं।