अशफाकुल्लाह खान जन्म दिवस 22 अक्टूबर/ ‘‘वतन के लिए किसी मुसलमान को भी फांसी चढ़ने दो’’

अशफाकुल्लाह खान जन्म दिवस 22 अक्टूबर/ ‘‘वतन के लिए किसी मुसलमान को भी फांसी चढ़ने दो’’

एस.एम. ईमाम

क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती की कहानी जग जाहिर है। वतन की आजादी के लिए बलिदान देने वाले इन दोनों ही राष्ट्रभक्तों का जन्म एक ही नगर में हुआ था। संयोग की बात है कि बाल्यावस्था में ही दोनों एक दूसरे के मित्रा बन गए। मित्रा भी साधारण नहीं, एक दूसरे को प्राणों से ज्यादा चाहने वाले। खाना-पीना, उठना-बैठना और घूमना-फिरना-सब कुछ साथ ही साथ होता था। एक हिंदू और दूसरा मुसलमान, पर लगता था जैसे दोनों सगे भाई हों, एक प्राण दो शरीर हों।

एक घटना अशफाक की बाल्यावस्था की है। एक दिन वह ज्वर से पीड़ित हो गए। ज्वर की गरमी में बड़बड़ाने लगे राम, मेरे प्यारे राम। अशफाक के माता-पिता व्याकुल हो उठे। उन्होंने सोचा, अशफाक हिंदुओं के राम का नाम ले रहा है। अवश्य यह किसी प्रेत के वशीभूत है। उन्होंने परामर्श के लिए अपने पड़ोसी को बुलाया। पड़ोसी ने सब कुछ सुन कर कहा ‘घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। अशफाक और राम प्रसाद में घनिष्ठ मित्राता है। अशफाक ज्वर में भी अपने रामप्रसाद को ही राम-राम कह कर याद कर रहा है। रामप्रसाद को बुलाइए, इसका बड़बड़ाना दूर हो जाएगा।’

राम प्रसाद को बुलाया गया। राम प्रसाद ने जब बीमार अशफाक की चारपाई पर बैठकर प्रेम दृभरी वाणी में आवाज दी तो अशफाक ने आंखें खोल दीं। उसका बड़बड़ाना दूर हो गया। वह रामप्रसाद के गले से लिपट कर फूट-फूटकर रोने लगा। रामप्रसाद ने ही अशफाक के जीवन को देशभक्ति के सांचे में ढाल दिया। अशफाक बड़े होने पर रामप्रसाद के साथ ही साथ देशभक्ति के मार्ग पर चलने लगे, डाके भी डालने लगे और अस्त्रा-शस्त्रों का संग्रह भी करने लगे। केवल इतना ही नहीं, अस्त्र -शस्त्रों के लिए घर से रूपये भी उड़ाने लगे क्योंकि उन्हें अपने घर की अपेक्षा देश की चिंता अधिक रहती थी।

अशफाक का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर नामक नगर में 22 अक्टूबर 1900 को एक रईस पठान मुसलमान के घर में हुआ था। उनका पालन-पोषण अमीरी की गोद में हुआ था। दुःख क्या होता है, इस बात को उन्होंने कभी जाना ही नहीं था।

अशफाक का मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता था यद्यपि वह उर्दू और फारसी के ज्ञाता थे। वे बड़े उदार और कोमल हृदय के थे। किसी के मुख से दुःख भरी वाणी सुनकर दुखी हो जाया करते थे।

अशफाक सच्चे देशभक्त और स्वतंत्रता के अनन्य प्रेमी थे। उन्होंने मुसलमानियत और इस्लाम को कभी महत्त्व नहीं दिया। सदा देश की स्वतंत्रता और सद्भाव को ही महत्त्व दिया। उनके वे शब्द आज भी याद किए जाते हैं जो उन्होंने जेल में एक पठान एस.पी.खान बहादुर से कहे थे। एस.पी. ने उन्हें समझाते हुए कहा था ‘अशफाक, तुम तो मुसलमान हो, फिर काफिर रामप्रसाद का साथ क्यों देते हो? वह तो हिंदू राज्य स्थापित करना चाहता है क्या तुम काफिरों के राज्य में रहना पसंद करोगे?

अशफाक ने गुस्से में उत्तर दिया था। मेरे सामने ऐसी नापाक जबान मत निकालो। मेरी कोठरी से चले जाओ नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा। रामप्रसाद मेरा भाई है। वह सच्चा हिंदुस्तानी है। मैं अंग्रेजों के राज्य में रहने की अपेक्षा हिंदुओं के राज्य में रहना अधिक पसंद करता हूं।

अशफाक देश की स्वतंत्राता के लिए कार्य करने के साथ-साथ हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए भी काम-किया करते थे। एक बार की घटना है। शाहजहांपुर में सांप्रदायिक दंगे की आग भड़क चुकी थी। दंगे के दिनों में ही एक दिन अशफाक रामप्रसाद के साथ आर्य समाज मंदिर में बैठे हुए थे। उधर से मुसलमानों का एक जुलूस आया जो बड़ा उत्तेजित था। मुसलमान मंदिर के सामने खड़े हो गए। अशफाक ने सिंह की तरह गरजते हुए कहा ‘खबरदार, यदि किसी ने मंदिर को तोड़ने का प्रयत्न किया तो मैं एक-एक को गोली से भून दूंगा।’

अशफाक की सिंह की तरह गर्जना ने मुसलमनों को दहला दिया। वे उल्टे पांव लौट गए। काश आज भारत के घर-घर में अशफाक और रामप्रसाद बिस्मिल होते।

रामप्रसाद जो भी योजना बनाते, अशफाक से अवश्य परामर्श करते थे। रामप्रसाद की काकोरी ट्रेन डकैती की योजना के संबंध में टिप्पणी करते हुए कहा था ‘हमें जल्दी में कोई काम नहीं करना चाहिए। हम जो कुछ भी करें, सोच समझ कर करें।’

अपनी दोस्ती और देशभक्ति की प्रगाढ़ता के लिए उन्होंने रामप्रसाद का सच्चे दिल से साथ दिया। वे जानते थे कि परिणाम क्या होगा किंतु फिर भी उन्होंने अपने प्राणों की चिंता न की। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद से संपर्क किया गया और योजना को अंजाम देने के लिए 9 अगस्त 1925 का दिन निर्धारित हुआ।

जो ट्रेन लूटी जाने वाली थी, उस कुछ गोरे सैनिक सवार थे, एक मेजर भी था परंतु युवकों का साहस चरम पर था। ट्रेन काकोरी और आलमनगर के बीच जंजीर खींच कर रोक दी गयी। सबसे पहले अशफाक ने ही उस डिब्बे में प्रवेश किया जिसमें खजाने की तिजोरी रखी हुई थी। उन्होंने उस तिजोरी को नीचे गिराया और अपने बलिष्ठ हाथों से हथौड़े से पीट-पीटकर उस तिजोरी को खोला। सारा खजाना लेकर सभी चंपत हो गए।

भेद खुलने पर पर अशफाक के साथ-साथ दस युवकों के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट निकला जिनमें रामप्रसाद, चन्द्रशेखर आजाद, राजेन्द्र लाहिड़ी, शचीन्द्र नाथ बख्शी और भगत सिंह भी शामिल थे।

वारंट निकलने पर और लोग तो तत्काल बंदी बना लिए गए पर अशफाक फरार हो गए। वह कुछ दिनों इधर-उधर घूमते रहे। उनके मित्रों और हितैषियों ने उन्हें सलाह दी कि वे रूस चले जाएं परंतु वे देश की स्वतंत्राता के लिए बलिदान हो जाना चाहते थे।

कुछ दिनों पश्चात् वह गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें फैजाबाद की जेल में रखा गया। उन पर मुकदमा चलाया गया। उनके मुकदमे की पैरवी भी सबके साथ ही की गई परंतु कोई परिणाम नहीं निकला क्योंकि अंग्रेजी सरकार उन्हें प्राणदंड देना चाहती थी।

फांसी की सजा मिलने के बाद उन्हें फैजाबाद जेल में रखा गया। वहां अशफाक के एक मित्र ने उनसे कहा कि आपके जेल से भागने का पूरा इंतजाम कर लिया गया है। यह सुन कर अशफाक ने बड़े गर्व से कहा था, ‘भई, वतन के लिए किसी मुसलमान को भी फांसी पर चढ़ने दो।’

फांसी के दिन भी अशफाक प्रसन्न थे और संतुष्ट नजर आ रहे थे। मौत से उन्हें कभी डर न लगता था। वह कहा करते थे :

‘‘बुजदिलों को ही सदा मौत से डरते देखा,
गरचे सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा।
मौत से वीर को हमने नहीं मरते देखा।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,
तख्तए मौत पे भी खेल ही करते देखा।’’

फांसी के दिन (19 दिस. 1927) कुरान शरीफ का पाठ किया। कलमा पढ़ते हुए फांसी के तख्ते तक गए। तख्ते को चूमा ओर वहां उपस्थित लोगों से कहा ‘मेरे पाक हाथ इंसान के खून से कभी नहीं रंगे। मुझ पर लगाए गए इल्जाम गलत हैं। अब खुदा के यहां इंसाफ कराने जा रहा हूं।’

‘‘तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से,
चल दिए सुए अदम, जिन्दाने फैजाबाद से।’’

फैजाबाद से उनका शव शाहजहांपुर ले जाया जा रहा था। उनके दर्शन करने को लखनऊ स्टेशन पर लाखों की भीड़ थी। सभी यूं रो रहे थे मानो उनका अपना पुत्र ही चला गया हो।

(युवराज)

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