चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस (23 जुलाई) के अवसर पर
महान युवा क्रान्तिकारी और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के कमाण्डर चन्द्रशेखर आज़ाद का जीवन अन्याय, ज़ुल्म और शोषण पर टिकी व्यवस्था में जी रहे हर उस नौजवान के लिए प्रेरणा का स्रोत है जो इस व्यवस्था में घुटन महसूस करता है और जिसके दिल में बग़ावत की चिंगारी सुलगती है। खासकर मेहनतकशों के युवा बेटे-बेटियों के लिए, जिनके लिए सिर्फ़ इंक़लाब ही एकमात्र उम्मीद है, आज़ाद का व्यक्तित्व रास्ता दिखाने वाली मशाल की तरह है।
आज़ाद का जन्म एक ग़रीब परिवार में हुआ था और उन्हें प्राथमिक शिक्षा पूरी करने का मौक़ा भी नहीं मिल सका था। इस मामले में वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी (एच.आर.ए.) और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.) के अन्य क्रान्तिकारियों से भिन्न थे जो अधिकांशतः मध्यवर्ग से आये शिक्षित नौजवान थे। इसी वजह से उनके बारे में बहुतेरे लोगों के मन में यह भ्रान्ति है कि उन्हें क्रान्तिकारी आन्दोलन के सैद्धान्तिक पहलुओं की कम समझ थी या इसमें उनकी कोई भूमिका नहीं थी। ’उनके सांगठनिक कौशल और प्रचण्ड साहस की तो चर्चा होती है पर उनकी वैचारिक प्रखरता को भुला दिया जाता है। भगतसिंह और आज़ाद के क्रान्तिकारी साथियों के संस्मरणों से पता चलता है कि वे महज़ सेनापति ही नहीं, बल्कि एच.एस.आर.ए. के नेतृत्वकारी मण्डल के एक प्रमुख भागीदार थे। भगतसिंह, भगवतीचरण बोहरा, सुखदेव आदि अधिक बौद्धिक क्रान्तिकारियों के विचारों को वे आँख मूँदकर नहीं स्वीकारते थे बल्कि उन पर पूरी बहस करते थे। सभी दस्तावेज़ों, बयानों, पर्चों आदि पर वे चर्चा करते थे और उनकी सहमति से ही वे जारी किये जाते थे। गम्भीर वैचारिक पुस्तकें वे साथियों से पढ़कर सुनते थे और उन पर चर्चा करते थे।
आज़ाद एच.आर.ए. और एच.एस.आर.ए. के बीच की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी थे और काकोरी काण्ड के बाद क्रान्तिकारी संगठन के बिखरे सूत्रों को जोड़कर उसका पुनर्गठन उन्हीं के नेतृत्व में हुआ था। भगतसिंह आदि से वे उम्र में एक-दो वर्ष ही बड़े थे पर उन्होंने अत्यन्त कुशलता, त्याग और साहस के साथ युवा क्रान्तिकारियों की उस टीम को संगठित, प्रेरित और सक्रिय किया जिसने अपने शौर्य, वैचारिक प्रखरता और असीम बलिदान से पूरे देश में बिजली की लहर पैदा कर दी और करोड़ों-करोड़ हिन्दुस्तानियों को विदेशी हुकूमत के खि़लाफ़ सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित किया था। ’आज की युवा पीढ़ी को आज़ाद जैसे क्रान्तिकारियों के जीवन और बलिदान से प्रेरणा लेकर उनके अधूरे सपनों को पूरा करने की राह पर आगे चलना है।’ यहाँ हम उनके साथी क्रान्तिकारी शिव वर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्मृतियाँ’ का एक अंश प्रकाशित कर रहे हैं।
आज़ाद का जन्म 23 जुलाई, सन 1906 तदनुसार सावन सुदी दूज दिन सोमवार को मध्य प्रदेश में अलीराजपुर रियासत के भावरा ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. सीताराम तिवारी और माता का नाम श्रीमती जगरानी देवी था। भावरा ग्राम पहले अलीराजपुर रियासत में था। देश की आज़ादी और रियासतों के विलयन के बाद वह मध्य भारत का अंश बना। पिफर मध्य भारत और मध्य प्रदेश के विलयन के बाद वह मध्य प्रदेश में आ गया। इस समय वह झाबुआ जिले में है।
आज़ाद के पितामह उत्तर प्रदेश में जिला कानपुर में रहने वाले थे। पिता पं. सीताराम तिवारी का बचपन तथा युवावस्था के कुछ वर्ष उन्नाव जिले के बदरका गाँव में बीते। पं. सीताराम के पाँच पुत्रा थे। प्रथम पुत्र सुखदेव का जन्म बदरका में हुआ था। बाक़ी चार का जन्म भावरा में हुआ। आज़ाद सबमें छोटे थे।
बचपन से ही पढ़ने-लिखने के बजाय तीर-कमान या बन्दूक़ चलाने में आज़ाद की रुचि अधिक थी। वे प्रायः स्कूल का बहाना लेकर घर से निकल जाते और रास्ते में अपने दोस्तों के साथ थानेदार-डाकू का खेल खेलते रहते या पिफर तीन-कमान चलाने का अभ्यास करते और जानवरों का शिकार करते। आज़ाद की इन सब बातों से परेशान होकर उनके माता-पिता ने उन्हें काम से नौकरी में लगा देने की सोची। तहसील में नौकरी मिल भी गयी। लेकिन आज़ाद भला उस सबमें कब बँधने वाले थे। अवसर मिलते ही एक मोती बेचने वाले के साथ वे बम्बई चले गये। वहाँ उन्हें कुछ मज़दूरों की सहायता से जहाज़ों को रंगने वाले रंगसाजों की मदद से काम मिल गया और उन्हीं की सहायता से उनके साथ के लोगों की कोठरी में लेटने-भर की जगह भी मिल गयी। अपने बम्बई जीवन की चर्चा करते हुए उन्होंने वैशम्पायन से बतलाया कि शाम को वे मज़दूर उन्हें अपने साथ अपनी कोठरी पर ले गये। खाने को पूछा तो कह दिया खा चुका हूँ। दूसरा दिन मूँगफली-भेल आदि खाकर और पानी पीकर पार कर दिया। एक सप्ताह तक यही क्रम चलाने के बाद उन्होंने होटल की शरण ली।
बम्बई में आज़ाद के लिए सबसे कठिन समस्या थी रात बिताने की। मज़दूरों की उस छोटी कोठरी में जितने लोग एक साथ सोते थे उनकी श्वासों से वहाँ की हवा दूषित हो जाती थी, उस पर कोई-कोई लोग खँखार कर किसी कोने में थूक भी देते थे। सारी कोठरी में बीड़ी का धुआँ भरा रहता था। उसमें कोई खिड़की भी नहीं थी इसलिए बाहर की स्वच्छ हवा आदि का भी कोई रास्ता नहीं था। आज़ाद ऐसे घुटन भरे वातावरण में सोने के आदी नहीं थे। इसलिए काम से छूटने पर खा-पीकर वे सिनेमा में जा बैठते और कोठरी तभी जाते जब नींद रोकना असम्भव हो जाता।
आज़ाद के बम्बई के जीवन के बारे में वैशम्पायन ने लिखा है, “बम्बई में आज़ाद सप्ताह में एक बार स्नान करते थे। क्योंकि सवेरे पाँच बजे उठकर नहाने की सुविधा नहीं थी, पास में कपड़े भी इतने नहीं थे कि नित्य उन्हें धोकर सुखाते और बदलते, इसलिए वे रविवार को ही नहाते थे। उस दिन छुट्टी होती थी इसलिए देर तक सोते रहते। बाद में प्रातविधि से निवृत्त हो नाश्ता करते और उसके बाद घूमते हुए चोर बाज़ार जाते। वहाँ से एक हाफ़पैण्ट और कमीज़ ख़रीदकर साबुन-तेल लेते। पिफर किसी जनपथ के नल पर बैठकर नहाते, पुराने कपड़े उतार फेंकते और उस दिन ख़रीदे कपड़े पहिन लेते। ये ख़रीदे कपड़े भी पुराने ही होते थे परन्तु धोबी के धुले होने के कारण सप्ताह भर चल जाते। फिर सिर में तेल डाल, पुराने कपड़े आदि आस-पास फेंक देते और किसी होटल में भोजन करने चल देते। इसके बाद सड़कों के चक्कर, चिड़ियाघर की सैर या किसी पार्क में पेड़ की छाँह में विश्राम। उसके बाद चौपाटी पर बैठकर समय बिताना और शाम होते ही फिर सिनेमा हॉल में घुस जाना।
धीरे-धीरे उन्हें बम्बई के उस यन्त्रवत जीवन से घृणा हो गयी। वे यह अनुभव करने लगे कि यदि उन्हें पेट भरने के लिए नौकरी या मज़दूरी ही करनी थी तो वह अलीराजपुर में मिल ही गयी थी। उसके लिए घर छोड़कर इतने कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता थी। तब एक रविवार को जब वे नहा-धोकर होटल में भोजन करने गये तो भोजन करते-करते उन्होंने बम्बई छोड़ने का निश्चय कर लिया। परन्तु घर वापस जाना नहीं था इसीलिए संस्कृत पढ़ने बनारस जाने का विचार किया।३
”होटल से भोजन करने के पश्चात उन्होंने सीधे रेलवे स्टेशन की राह पकड़ी। सामान तो घर से कुछ लेना नहीं था, जो कुछ था वह पास ही था। एक सप्ताह की कमाई भी जेब में थी। स्टेशन पर जानकारी प्राप्त कर बनारस की गाड़ी में बिना टिकट जा बैठे। बम्बई से जाते समय वे एक चीज़ अवश्य ले गये। और वह था मज़दूरों के जीवन का उनका अपना ख़ुद का अनुभव। उनकी स्थिति से भी वे अच्छी तरह परिचित हो गये थे। क्रान्तिकारी जीवन में जब मज़दूरों की परिस्थिति के विषय में चर्चा चलती तो वे उस पर अधिकारपूर्वक बोलते थे। उसी प्रकार भावरा में वे आदिवासियों तथा किसानों के जीवन को भी निकट से देख चुके थे। इसीलिए किसान तथा मज़दूरों के राज की जब वे चर्चा करते तो उसमें उनकी सहानुभूति की झलक स्पष्ट दिखायी देती थी।
बनारस में उन्नाव निवासी श्री शिवविनायक मिश्र से उनकी मुलाक़ात हुई और मिश्रजी की सहायता से उन्हें एक संस्कृत पाठशाला में प्रवेश भी मिल गया। इसके कुछ दिन बाद ही 1921 का असहयोग आन्दोलन आरम्भ हो गया और उसी में संस्कृत कॉलेज बनारस पर धरना देते हुए वे गिरफ्ऱतार कर लिये गये। अदालत में जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने बतलायादृ”आज़ाद”। तभी से वे आज़ाद के नाम से पुकारे जाने लगे।
इस केस में आज़ाद को 15 बेंतों की सज़ा हुई थी। बेंत लगाने के बाद उन्हें जेल से बाहर कर दिया गया। ख़ून से लथपथ वे किसी तरह पैदल घिसटकर अपने स्थान पर पहुँचे। वहाँ सराय गोवर्धन में गौरीशंकर शास्त्री ने घाव ठीक होने तक उनकी ख़ूब सेवा की। स्वस्थ हो जाने के बाद आज़ाद काशी विद्यापीठ में भर्ती हो गये। यह 1922 की बात है। यहीं पर उनका श्री मन्मथनाथ गुप्त तथा श्री प्रणवेश चटर्जी से परिचय हुआ। यह दोनों साथी पहले ही क्रान्तिकारी दल की सदस्यता प्राप्त कर चुके थे। प्रणवेश की निगाह आज़ाद पर पड़ी और उन्होंने धीरे-धीरे आज़ाद को भी दल का सदस्य बना लिया। और तब से जीवन के अन्त तक अडिग भाव से साबितक़दमी के साथ वे सशस्त्र क्रान्ति के मार्ग पर लगातार आगे बढ़ते रहे।
लिखने-पढ़ने के मामले में आज़ाद की सीमाएँ थीं। उनके पास कॉलेज या स्कूल का अंग्रेज़ी सर्टिफिकेट नहीं था और उनकी शिक्षा हिन्दी तथा मामूली संस्कृत तक ही सीमित थी। लेकिन ज्ञान और बुद्धि का ठेका अंग्रेज़ी जानने वालों को ही मिला हो ऐसी बात तो नहीं है। यह सही है कि उस समय तक समाजवाद आदि पर भारत में बहुत थोड़ी पुस्तकें थीं और वे भी केवल अंग्रेज़ी में ही। आज़ाद स्वयं पढ़कर उन पुस्तकों का लाभ नहीं उठा सकते थे लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आज़ाद उस ज्ञान की जानकारी के प्रति उदासीन थे। सच तो यह है कि केन्द्र पर हम लोगों से पढ़ने-लिखने के लिए जितना आग्रह आज़ाद करते थे उतना और कोई नहीं करता था। वे प्रायः ही किसी न किसी को पकड़कर उससे सिद्धान्त सम्बन्धी अंग्रेज़ी की पुस्तकें पढ़वाते और हिन्दी में उसका अर्थ करवाकर समझने की कोशिश करते। कार्ल मार्क्स का ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ दूसरी बारी आदि से अन्त तक मैंने आज़ाद को सुनाते समय ही पढ़ा था।
भगतसिंह और सुखदेव के आ जाने पर सैद्धान्तिक प्रश्नों पर ख़ासतौर पर बहस छिड़ जाती थी। हमारा अन्तिम उद्देश्य क्या है, देश की आज़ादी से हमारा क्या मतलब है, भावी समाज कैसा होगा, श्रेणी रहित समाज का क्या अर्थ है, आधुनिक समाज के वर्ग संघर्ष में क्रान्तिकारियों की क्या भूमिका होनी चाहिए, राजसत्ता क्या है, कांग्रेस किस वर्ग की संस्था है, ईश्वर, धर्म आदि का जन्म कहाँ से हुआ आदि प्रश्नों पर बहस होती और आज़ाद उसमें खुलकर भाग लेते थे।
ईश्वर है या नहीं इस पर आज़ाद किसी निश्चित मत पर पहुँच पाये थे, यह कहना कठिन है। ईश्वर की सत्ता से इनकार करने वाले घोर नास्तिक भगतसिंह की दलीलों का विरोध उन्होंने कभी नहीं किया। अपनी ओर से न उन्होंने कभी ईश्वर की वकालत की और न उसके पीछे ही पड़े।
शोषण का अन्त, मानव मात्र की समानता की बात और श्रेणी-रहित समाज की कल्पना आदि समाजवाद की बातों ने उन्हें मुग्ध-सा कर लिया था। और समाजवाद की जिन बातों को जिस हद तक वे समझ पाये थे उतने को ही आज़ादी के ध्येय के साथ जीवन के सम्बल के रूप में उन्होंने पर्याप्त मान लिया था। वैज्ञानिक समाजवाद की बारीकियों को समझे बग़ैर भी वे अपने-आप को समाजवादी कहने में गौरव अनुभव करने लगे थे। यह बात आज़ाद ही नहीं, उस समय हम सब पर लागू थी। उस समय तक भगतसिंह और सुखदेव को छोड़कर और किसी ने न तो समाजवाद पर अधिक पढ़ा ही था और न मनन ही किया था। भगतसिंह और सुखदेव का ज्ञान भी हमारी तुलना में ही अधिक था। वैसे समाजवादी सिद्धान्त के हर पहलू को पूरे तौर पर वे भी नहीं समझ पाये थे। यह काम तो हमारे पकड़े जाने के बाद लाहौर जेल में सन 1929-30 में सम्पन्न हुआ। भगतसिंह की महानता इसमें थी कि वे अपने समय के दूसरे लोगों के मुक़ाबले राजनीतिक और सैद्धान्तिक सूझबूझ में काफ़ी आगे थे।
आज़ाद का समाजवाद की ओर आकर्षित होने का एक और भी कारण था। आज़ाद का जन्म एक बहुत ही निर्धन परिवार में हुआ था और अभाव की चुभन को व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने अनुभव भी किया था। बचपन में भावरा तथा उसके इर्द-गिर्द के आदिवासियों और किसानों के जीवन को भी वे का़फी नज़दीक से देख चुके थे। बनारस जाने से पहले कुछ दिन बम्बई में उन्हें मज़दूरों के बीच रहने का अवसर मिला था। इसीलिए, जैसा कि वैशम्पायन ने लिखा है, किसानों तथा मज़दूरों के राज्य की जब वे चर्चा करते तो उसमें उनकी अनुभूति की झलक स्पष्ट दिखायी देती थी।
(यह आलेख मजदूर बिगुल के अद्यतन अंक से प्राप्त किया गया है। आलेख में व्यकत विचार पत्रिका का विचार है। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)