गौतम चौधरी
हमें अपने देश के हालात और सामाजिक स्थितियों की तुलना पश्चिम के देश या फिर दुनिया के अन्य देशों से नहीं करनी चाहिए। लेकिन जबतक हम अपनी तुलना किसी अन्य नहीं करते तबतक वास्तविक हालात का आकलना नहीं हो पाता है। इस आलेख में आज हम पश्चिम के देशों में व्याप्त इस्लामोफोबिया पर तो चर्चा करेंगे ही, साथ ही भारत में मुसलमानों की स्थिति और भारतीय समाज में मुसलमानों की अहमियत की पड़ताल भी करेंगे। मसलन, इधर के दिनों पश्चिमी जगत में बड़ी तेजी से इस्लामोफोबिया बढ़ा है। इसके कई उदाहरण देखने को मिल रहे हैं।
हाल के वर्षों में, पश्चिमी देशों में इस्लामोफोबिया का बढ़ना चिंता पैदा करने लगा है। खासकर तब, जब कुछ गुप्त उद्देश्यों वाले संगठनों के इशारे पर, मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव और पूर्वाग्रह को बढ़ावा मिल रहा है। यह आरोप लगाया गया है कि मुस्लिम व्यक्तियों को केवल उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर नौकरी के अवसरों या पदोन्नति से वंचित किया गया। इस्लामोफोबिया के कारण कुछ लोगों को महत्वपूर्ण यात्रा से वंचित कर दिया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका में मुसलमान होने के कारण पूर्व में ट्रम्प प्रशासन द्वारा कुछ मुस्लिम बच्चों के साथ भेदभाव किया गया। ये सारे काम इस्लामोफोबिया के उदाहरण हैं।
इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल (आईएएमसी) जैसे पश्चिम आधारित संगठन अक्सर भारत पर इस्लामोफोबिक नीतियों को अपनाने का आरोप लगाते रहे हैं। ऐसे में पश्चिमी जगत के इस्लामोफोबिया और भारत में मुसलमानों की स्थिति के बीच तुलना करना जरूरी हो जाता है। ऐसा नहीं है कि भारत में सांप्रदायिक घटनाएं नहीं घट रही है। यहां भी दो समुदायों के बीच लड़ाई होती है। खासकर हिन्दू और मुसलमान कई स्थानों पर आपस में जूझते देखे जाते हैं। यह गतिरोध आम बात है लेकिन भारत में इस प्रकार की घटनाओं के बीच प्रशासन की भूमिका तटस्थ देखने को मिलती है। यही नहीं भारत का कानून और न्याय प्रणाली भी पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने से परहेज करता है, जबकि इन दिनों पश्चिम में इस्लामोफोबिक का असर उनके प्रशासन और कानूनी संस्थाओं में भी देखने को मिल रहा है। यह चिंता का विषय है।
कई स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय एजेंशियों का दावा है कि पश्चिमी इस्लामोफोबिया की तुलना में भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव बेहद कम है। इधर संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों यह लगातार बढ़ रहा है। यह आंशिक रूप से भारत में मुसलमानों की ऐतिहासिक उपस्थिति और धार्मिक सह-अस्तित्व की लंबे समय से चली आ रही परंपरा के कारण है। इसके अतिरिक्त, भारतीय समाज के सांप्रदायिक सद्भाव और विविधता के प्रति सम्मान पर जोर ने इस्लामोफोबिया को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हालाँकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भेदभाव और पूर्वाग्रह अभी भी मौजूद हैं, जो स्वीकृति और समझ को बढ़ावा देने के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं। भारत के धार्मिक सहअस्तित्व का एक उदाहरण लखनऊ शहर का है, जो अपनी समृद्ध इस्लामी विरासत और जीवंत हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक एकता के लिए जाना जाता है। यह शहर कई ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों का घर है, जैसे कि बड़ा इमाम बाड़ा और भूल भुलैया, जो सभी धर्मों के आगंतुकों को आकर्षित करते हैं। स्थानीय लोगों ने इस विविधता को अपनाया है और एक-दूसरे के त्योहारों में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, जैसे हिंदू मुसलमानों के त्योहार ईद में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं और मुस्लिम दिवाली उत्सव में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। यह समावेशी वातावरण ने मजबूत अंतर-धार्मिक संबंधों को बढ़ावा दिया है और यह सहिष्णुता और सद्भाव की शक्ति का प्रमाण भी है।
भारतीय एक-दूसरे की मान्यताओं को समझने और उनका सम्मान करने लगे हैं, जिससे एक ऐसा माहौल बन गया है, जहां व्यक्ति भेदभाव के डर के बिना अपनी धार्मिक प्रथाओं को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकते हैं। इस सह-अस्तित्व ने न केवल देश के सांस्कृतिक ताने-बाने को समृद्ध किया है, बल्कि शांतिपूर्ण धार्मिक एकीकरण के लिए प्रयास कर रहे दुनिया भर के अन्य समुदायों के लिए एक चमत्कारिक उदाहरण भी प्रस्तुत कर रहा है। इस्लामोफोबिया से निपटने में शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, स्कूल और संस्थान इस्लाम और उसके अनुयायियों के बारे में सटीक और निष्पक्ष जानकारी को बढ़ावा देते हैं। भारत में इसकी कमी नहीं है।
इसके अतिरिक्त, मीडिया आउटलेट्स को रूढ़िवादिता को चुनौती देते हुए और गलत धारणाओं को दूर करते हुए, मुसलमानों का निष्पक्ष और संतुलित चित्रण प्रस्तुत करने का प्रयास भारतीय समावेशी राष्ट्रवादी समाचार माध्यम ने मानों अपना कर्तव्य तर लिया हो। अंततः, इस्लामोफोबिया के खिलाफ लड़ाई में बेहतर परिणाम के लिए अधिक समावेशी और स्वीकार्य समाज बनाने की जरूरत है। दुनिया भर में व्यक्तियों, समुदायों और सरकारों के सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। जो संगठन भारत में इस्लामोफोबिया की मनगढ़ंत कहानी को प्रचारित करने के लिए पश्चिमी देशों की धरती का उपयोग कर रहे हैं, उन्हें दूसरों की ओर उंगली उठाने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।