केदारनाथ में फिर कुपित हो गये भोलेनाथ !

केदारनाथ में फिर कुपित हो गये भोलेनाथ !

सदी की भयंकर मानसूनी आपदाओं में से एक सन् 2013 की केदारनाथ आपदा के 11 साल बाद 31 जुलाई की रात एक बार फिर केदार घाटी में जलप्रलय का जैसा माहौल पैदा हो गया। केदार धाम से लेकर नीचे घाटी में फंसे 15 हजार से अधिक तीर्थ यात्रियों को सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ,डीडीआरएफ, और वायएमएफ सहित थल और वायुसेना के साझा बचाव अभियान के तहत सुरक्षित निकाला जा सका। तीन यात्रियों के शव भी मलबे में बरामद हुये हैं।

केदारनाथ क्षेत्र की विशिष्ठ भौगोलिक और भूगर्वीय स्थिति ऐसी है कि वहां भूस्खलन, भूकम्प और बादल फटने जैसी प्राकृतिक घटनाओं के साथ चलने की कला सीखनी ही होगी। अगर हमने प्रकृति के प्रतिकूल जिद नहीं छोड़ी तो भगवान केदारनाथ के कोप का बार-बार भाजन बनना ही होगा मगर हमारे नीति नियंता, शासक और योजनाकार इस सच्चाई को स्वीकारने के लिये कतई तैयार नहीं हैं।

भारतीय अन्तरिक्ष संगठन (इसरो) ने 2023 में देश के भूस्खलन संवेदनशील 147 जिलों का जोखिम मानचित्र तैयार किया था जिसमें सबसे ऊपर रुद्रप्रयाग जिले को रखा था जहां 31 जुलाई को आयी आपदा के कारण इन दिनों हजारों तीर्थयात्रियों की जानें संकट में फंसी रही या अब भी फंसी हैं। दूसरे नम्बर पर उत्तराखण्ड का ही टिहरी जिला अत्यंत जोखिम की श्रेणी में रखा गया था जहां गत 26 एवं 27 जुलाई की रात को भूस्खलन से तिनगढ़ गांव तबाह हो गया और मां-बेटी जिन्दा दफन हो गये। इसरो के जोखिम मानचित्र पर पश्चिमी घाट पर्वत श्रेणी से लगे केरल के वायनाड सहित सारे 14 जिले शामिल किये गये थे।

2013 की आपदा के बाद, शासन स्तर पर केदारनाथ में डॉप्लर रेडार लगाने की बात कही गई थी जिससे मौसम का सटीक पूर्वानुमान मिल सके और इस तरह की मुश्किलों से निपटने के लिए पहले से इंतजाम किए जा सकें। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने डॉप्लर रेडार लगाने के लिए ग्लोबल स्तर पर निविदा प्रक्रिया की बात भी कही थी लेकिन एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी केदारनाथ क्षेत्र में अर्ली वार्निंग सिस्टम स्थापित नहीं हो सका। विशेषज्ञों का कहना है कि केदारनाथ में डॉप्लर रेडार स्थापित होता तो बीते 31 जुलाई को पैदल मार्ग पर बादल फटने के बाद उपजे हालात से निपटने के लिए शासन, प्रशासन को इतनी कड़ी मशक्कत नहीं करनी पड़ती।

लेकिन भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग, उत्तराखण्ड अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र तथा गढ़वाल विश्व विद्यालय के भूवैज्ञानिकों ने केदार घाटी जो कि सबसे संवेदनशील मुख्य केन्द्रीय भं्रश (एमसीटी) के दायरे में आती है, तथा केदारनाथ धाम जो स्वयं एक मलबे पर स्थित है, वहां भारी निर्माण की सख्त मनाही कर रखी है लेकिन वहां फिर भी सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर बहुत भारी निर्माण कर दिया गया जो कि अब भी जारी है। यही नहीं सन् 2013 में चोराबाड़ी ग्लेशियर पर बादल फटने और ग्लेशियल झील के टूटने के कारणों भयंकर अनदेखी की गयी। द

दरअसल, हमारे योजनाकार ही नहीं बल्कि आपदा प्रबंधक भी जलतंत्र की अनदेखी करने की भयंकर भूल कर रहे हैं। हिमालय पर ऊपर चढ़ते समय वर्षा कम होती जाती है और स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र में बादल बारिस की जगह वर्फ बरसाते हैं। लेकिन 2013 में ऐसा नहीं हुआ जो कि जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट संकेत था। केदार घाटी बहुत तंग है और उसके अंत में 3,583 मीटर ऊंचा केदार पर्वत या केदार डोम है जिसे अलकनन्दा घाटी की ओर से चले बादल पार नहीं कर पाते हैं और वहीं बरस जाते हैं। तंग घाटी होने के कारण बादलों का वेग भी बहुत अधिक होता है जो कि अचानक पहाड़ से टकरा कर बादल फटने की जैसी स्थितियां पैदा हो जाती है। इसीलिये इस घाटी में निरन्तर बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं।

एक स्वेच्छिक संगठन की याचिका पर सुप्रीमकोर्ट ने 2018 में केदारनाथ की बेहद सीमित धारण क्षमता को अनुभव करते हुये वहां प्रतिदिन 5000 से कम यात्रियों को जाने की सीमा तय की थी लेकिन यात्रियों के भारी दबाव को देखते हुये राज्य सरकार ने 2022 में बदरीनाथ के लिये 16 हजार, केदारनाथ के लिये 13 हजार, गंगोत्री के लिये 8 हजार और यमुनोत्री के लिये 5 हजार तय की। सरकार पर यात्रियों से ज्यादा हितधारकों और राजनीतिक दबावों के चलते इस साल सीमा को बढ़ा कर बदरीनाथ के लिये प्रतिदिन 20 हजार, केदारनाथ 18 हजार, गंगोत्री 11 हजार और यमुनोत्री के लिये 9 हजार यात्री कर दिया गया। इससे भी दबाव कम नहीं हुआ तो सरकार ने जून में सारी सीमाएं हटा दीं। उसका नतीजा यह हुआ कि 4 अगस्त 2024 तक केदारनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या 10,91,316 तक और बदरीनाथ जाने वालों की संख्या 8,88,494 तक पहुंच गयी।

गौर करने वाली बात यह है कि पहले सदैव बदरीनाथ जाने वाले यात्रियों की संख्या केदारनाथ से बहुत अधिक रहती थी। बदरीनाथ के लिये सीधे वाहनों से जाया जाता है जबकि केदारनाथ के लिये लगभग 21 किमी की कठिन पैदल यात्रा भी है लेकिन अब केदारनाथ में बदरीनाथ से अधिक भीड़ जा रही है। उत्तराखण्ड राज्य गठन से पूर्व पूरे सीजन में केदारनाथ के यात्रियों की संख्या औसतन 1 लाख तक और बदरीनाथ जाने वालों की संख्या 9 लाख तक होती थी। पिछले साल केदारनाथ में 19,61,277 तक तीर्थ यात्री पहुंच चुके थे।

दरअसल 2013 की आपदा को अवसर में बदलने की रणनीति का ही नतीजा यात्रियों का यह सैलाब है जो कि केदारनाथ की धारण क्षमता से अत्यधिक अधिक होने से आपदा का एक कारण बन रहा है। बहुत संवेदनशील पारितंत्र वाले इन धामों में वाहनों की बाढ़ झौंकी जा रही है। केदारनाथ की जड़ में इस साल 4 अगस्त तक 1,69,575 और सीधे बदरीनाथ तक 1,01,002 वाहन पहुंच चुके थे। यही नहीं, अति संवेदनशील गोमुख तक भी इस साल अब तक 6,309 यात्री पहुंच गये जिनमें ज्यादातर कांवड़िये ही थे। प्रकृति के साथ अगर ऐसी ज्यातियां होती रहेंगी तो मानवीय संकट का टाला नहीं जा सकेगा।

आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिये विकास की अत्यन्त आवश्यकता है और हर सरकार अपने नागरिकों के लिये यही प्रयास करती भी है लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि हम प्रकृति के साथ इतनी छेड़छाड़ कर दें कि अपने ही नागरिकों को जान के लाले पड़ जांय जैसे कि अभी केदार घाटी में हो रहा है और फरबरी 2021 में उच्च हिमालयी क्षेत्र नीती घाटी में धौलीगंगा और ऋषि गंगा की बाढ़ में हो गया। इन आपदाओं के लिये हर बार वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के सुझावों और चेतावनियों की अनदेखी को जिम्मेदार माना जा सकता है। आज धंसते हये जोशीमठ की भविष्यवाणी 1975 में मिश्रा कमेटी ने कर दी थी। लगता है कि हमारे नीति नियंताओं और शासकों ने वैज्ञानिक चेतावनियों की अनदेखी करने की कसम खा रखी है।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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