अशोक कुमार झा
यह बात 1990 से 2000 के बीच की है, जब झारखण्ड आंदोलन अपना चरम पर था और बिहार के तत्कालीन सभी राजनेताओं को इस बात की चिंता लगी थी क्योंकि पूरे देश में बिहार उस समय खनिज का बहुत बड़ा भंडार माना जाता था और उसके बदले बिहार को केंद्र से भारी भरकम रॉयल्टी दी जाती थी जो राज्य की अर्थ व्यवस्था का बहुत एक बड़ा हिस्सा था।
ऐसे में बड़ी चिंता यह थी कि अगर झारखण्ड वास्तव में बिहार से अलग हो गया तो बिहार की अर्थ व्यवस्था का क्या होगा? यह उस समय के हिसाब से एक बहुत बड़ा सवाल था जिसका जवाब शायद तब किसी के पास नहीं था।
उस समय बिहार के लिए झारखण्ड की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था जब केंद्र में पी वी नरसिंहा राव की सरकार थी और बिहार में लालू यादव की गैर कांग्रेसी यानी उस समय की जनता दल की सरकार थी, उस समय लालू यादव ने केंद्र को धमकी देते हुए कहा था कि पूरी दिल्ली में अंधेरा कर दूंगा, यानी बिहार से एक कण कोयला भी बाहर नहीं जाने दूंगा।
कहने का मतलब यह कि कोयला और इतने सारे खनिज का भंडार उस समय बिहार का एक अभिमान और अर्थ व्यवस्था की रीढ़ मानी जाती थी जिसके निकाल देने के बाद उस समय आने वाले बिहार की कल्पना बिना रीढ़ के एक गरीब और बीमारू राज्य के रूप में की जा रही थी।
शायद यही वजह थी और आप सभी को यह याद भी होगा कि उस समय के बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने यहां तक कह दिया था कि बिहार का विभाजन हमारी लाश पर होगा, जिसका मतलब यह था कि बिहार के विभाजन को अपनी सहमति देकर शेष बिहार के लोगों की नाराजगी लेने का जोखिम कोई नही उठाना चाहता था।
परंतु 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता अटल बिहारी बाजपेई ने झारखण्ड के लोगों की जन भावनाओं को देखकर यह वायदा कर दिया कि अगर केंद्र में उनकी सरकार बनी तो झारखण्ड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा देंगे, जिसका उन्हें चुनाव में फायदा भी हुआ और इतना फायदा हुआ कि 1999 में पहली बार अटलजी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बन गई। फिर अपने वायदे के मुताबिक उन्होंने झारखण्ड के साथ-साथ उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ को अलग राज्य का दर्जा देने का अपना वादा पूरा कर दिया।
अब शेष बचे बिहार में सम्पदा के नाम पर अब कुछ नही बचा था क्योंकि शेष बिहार यानि उत्तर बिहार में स्थापित चीनी उद्योग, पेपर उद्योग सहित जितने भी उद्योग धंधे थे, वह पहले ही बंद हो चुके थे। फिर तो राज्य की आमदनी का एक मात्र साधन बचा था कृषि जो हर साल कभी सुखार तो कभी बाढ की मार झेलते झेल रहा था।
उस समय वास्तव में बिहार के किसानों की हालत ऐसी थी कि अपने खेत में खाद और बीज डालने के लिए उसे जो बैंक से कर्ज लेना पड़ता था, उसको वापिस चुकाने का उसके पास पैसा नहीं जमा हो पाता था। उस समय पूरे उत्तर बिहार में एक गाना चल रहा था कि “तू ले ले झारखण्ड तोहर तोरबऊ घमंड”।
फिर बदहाल और तंग बिहार में सत्ता परिवर्तन की मांग शुरू हुई। नतीजा यह हुआ कि बिहार में 2005 में एनडीए के गठबंधन की सरकार बनी और उसके बाद लगातार बिहार में विकास का नया दौर शुरू हुआ। वह दौर वास्तव में कई चुनौतियों से भरा पड़ा था, पर सारी चुनौतियों को पार करते हुए बिहार में तेजी से विकास प्रारंभ हुआ। नतीजा यह हुआ कि आज का बिहार उस खनिज से भरे पड़े झारखण्ड से काफी आगे निकल चुका है।
दूसरी तरफ, झारखण्ड अपने संपन्न होने के घमंड पर इतराता रहा और खुद को शेष बिहार से अलग कर लेने की खुशी का सिर्फ जश्न मनाता रहा, जबकि उसके नेता अपनी इन संपदाओं का समुचित उपयोग करने की जगह इन संपदाओं को लूटने में लग गए। आम लोगों का इधर से ध्यान हटाने के लिए बाहरी भीतरी और खतियानी गैर खतियानी का नारा देकर लोगों को आपस में लड़ाने में लगे रहे।
आज हम इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि इस विभाजित बिहार में 2000 के पूर्व के संयुक्त बिहार की तुलना में सीमित संसाधन के बावजूद काफी विकास हुआ। इसका दूसरा हिस्सा झारखंड सिर्फ इसलिये बिहार से अलग होना चाहता था क्योंकि उसे ऐसा लगता था, जो काफी हद तक सही भी था कि सारे संसाधनों का भंडार उसका है, जो पूरे बिहार में उनके गरीब भाइयों के बीच में बांटा जा रहा है। उसके साथ नाइंसाफी हो रही है।
झारखंड ने अपने हक के लिये आंदोलन किया और उसको उसका हक मिल भी गया। साथ ही संयुक्त बिहार में उसके संसाधनों का कैसे उपयोग हो, यह तय करने वाला इसके अपने घर का नहीं होता था पर अब उसका नेता यानि उस संसाधनों का मालिक वह खुद हो चुका था। यह भी एक कड़वी सच्चाई रही कि अब तक जितने भी नेताओं ने राज्य की कमान संभाली, उन्होंने राज्य के विकास के लिये साफ नियत से कार्य नहीं किया।
शायद इसीलिए झारखंड के गाँव देहात में अभी भी एक कहाबत कही जाती है जिसमें बाबूलाल मरांडी से लेकर सभी नेताओं का जिक्र है। वह कहाबत है कि “मरंडी मरोड़ दिया, मुंडा मूड लिया, सोरेन सुड़क लिया और कोडा झारखंड के खनिजों को कोड़ दिया”। साथ ही इस बीच झारखंड पूरे देश में एक ऐसा अनोखा राज्य भी बन गया जहां बड़ी-बड़ी पार्टियों के होते हुए एक निर्दलीय विधायक राज्य का मुख्यमंत्री बन गया।
यह भी सच है कि झारखंड बिरसा मुंडा, सिद्धू कानहु जैसे कई बड़े-बड़े वीरों और बलिदानियों की धरती रही हैं। आज हम झारखंड के लोग अपने वीरों की कुर्बानियों को एक खास उत्सव पर सिर्फ इसलिये याद करते हैं क्योंकि हमें लगता है कि हम ऐसा करके अपने उन पूर्वजों को खूब सम्मान दे रहे हैं, परंतु इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि हम अपने उन पूर्वजों के बलिदानों के असली उद्देश्यों को पूरी तरह से भूल चुके हैं।
अगर हमें अपने पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो हमें उनके बलिदानों के असली उद्देश्यों को समझना होगा और उनके सपनों का झारखंड बनाने की दिशा में अग्रसर होना होगा, अन्यथा हम इसी तरह से खतियानी गैर-खतियानी, बाहरी भीतरी, आदिवासी गैर-आदिवासी करके आपस में लड़ते रहेंगे और यहाँ की गरीब और भोली- भाली जनता हमेशा की तरह शोषण का शिकार होती रहेगी।
वहीं बिहार 2005 के बाद से जातिवादी राजनीति से ऊपर उठाकर विकास की धारा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। इसका परिणाम भी देखने को मिल रहा है। हालांकि बिहार में एक बार फिर से जातिवादी राजनीति फन फैला रहा है। इसका समाधान भी बिहारियों को ढुंढना पड़ेगा। जाति और धर्म की राजनीति नकारात्मक है। इसे त्यागना ही यथेष्ट होगा। बिहार को झारखंड से भी सीख लेनी चाहिए। झारखंड में नकारात्मक राजनीति ने इसे पीछे ढकेला है जबकि बिहार की सकारात्मक राजनीति उसे आगे बढ़ा रहा है। बिहार को इसी रास्ते पर चलना चाहिए और झारखंड को अपनी राजनीति का स्वरूप बदलना चाहिए।
(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)