गौतम चौधरी
वैसे तो कई बार बड़कागांव गया हूं लेकिन अभी हाल ही में जब कुछ प्रबुद्ध मित्रों के साथ उधर के प्रवास पर था तो एक नए रहस्य की जानकारी मिली। हमलोग पतरातू होकर बड़कागांव जा रहे थे। रास्ता बेहद मनोरम है और बरवस आपको अपनी ओर खींचता है। शर्पाकार सड़कें, एकदम काली नागिन की तरह तरह कभी आपको डराएगी तो कभी रोमांचित करेगी। सड़क के दोनों ओर साल, पलास और न जाने कौन-कौन से विशाल वृक्ष निशब्द आपको मनुहार करते प्रतीत होते हैं। नदी ऐसी मानों किसी महान साम्राज्य के अतीत का विशाल व समृद्ध किला हो, जो खंडहरों में बदल गया है। खैर, अब कोयला के व्यापार और समृद्धि की महत्वाकांक्षा ने पूरे क्षेत्र को ध्वंसावशेष में परिवर्तित करना प्रारंभ कर दिया है। ऐसी ही रास्तों को नापता और मांपता हमारी गाड़ी आगे की ओर बढ़ रही थी। कभी पहाड़ चढ़ रही तो कभी घाटी में उतर रही थी। मोड़ पर मोड़ लांघते गाड़ी के संचालक हमारे छोटे भाई आलोक सिंह ने अंततोगत्वा हमें बड़कागांव पहुंचा ही दिया। इसके बाद मित्रों ने तय किया कि अब हजारीबाग होकर ही रांची जाना है। हालांकि अमरेन्द्र इसके खिलाफ थे और बार-बार यह कह रहे थे कि हमलोग जिस रास्ते से आए हैं, उसी रास्ते से चले लेकिन मैंने कहा कि अब दूसरे वाले रास्ते का भी आनंद लिया जाए। सबकी सहमति के बाद आलोक ने हजारीबाग की ओर गाड़ी मोड़ दी। बड़कागांव से थोड़ी दूर ही चले होंगे कि मैंने महसूस किया, सड़क के दाहनी ओर एक विशाल-सा शांत मैदान मानों अपनी दोनों वाहें फैलाकर हमलोगों का आलिंगन करने को तत्पर है। हठाक मैंने पूछ लिया, ‘‘यह क्या है?’’ जवाब अमरेन्द्र जी ने दिया, ‘‘यह एक ऐसी साइट है, जहां किसी खास समय में हजारों की संख्या में लोग आते हैं और सूर्य की एक खास प्रकार की स्थिति को देखकर रोमांचित होते हैं।’’ मुझे कुछ भी पता नहीं था लेकिन मैंने वहां लगे बोर्ड को पढ़ लिया। उस पर लिखा था ‘‘मेगालिथ साइट’’। अब मेरे दिमाग में रुचि पैदा हो गयी। मैंने इसी वेबसाइट पर स्टोनहेंज के बारे में विस्तार से बताया है। उस आलेख में मैंने यह भी दावा किया है कि इंग्लैंड के लोग पहले सूर्य के उपासक थे। वे सूर्य देव को आकाश देवी का पुत्र मानते थे। स्टोनहेंज उन्हीं मान्यताओं का केन्द्र था। आज भी यूरोप के कुछ लोग वहां जाते हैं और दिसंबर-जनवरी महीने में वहां जाकर उत्सव मनाते हैं। अब मेरा मन ब्रितानी स्टोनहेंज और बड़कागांव के इस विशाल प्रस्तर अनगढ़ स्तंभ की तुलना में व्यस्त हो गया। इंटरनेट पर समग्रियों को खंगालने लगा। उन्हीं खोज का प्रतिफल यह आलेख है।
पहले हम ब्रितानी स्टोनहेंज के बारे में जानते हैं। दरअसल, इंग्लैंड के दक्षिण में स्थित एक पत्थर का घेरा है जो कई मिथकों और रहस्यों को अपने में समेटे हुए है। इसको लेकर कई प्रकार की किंवदंतियां भी विकसित है। यह पूरी दुनिया में सबसे प्रसिद्ध स्मारकों में से एक। इस प्रस्तर आकृति को इंग्लैंड में सबसे रहस्यमय स्थानों में से एक माना जाता है। स्टोनहेंज को 1986 में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान कर दिया गया। यह अंग्रेजी विरासत प्राधिकरण द्वारा भी संरक्षित है। यह स्मारक इंग्लैंड के नवपाषाण और कांस्य युग के स्मारकों के केंद्र, विल्टशायर काउंटी में स्थित है। हर साल यहां 800 हजार से ज्यादा पर्यटक इसे देखने आते हैं। आगंतुकों से नुकसान के कारण, पत्थर के घेरे को घेर दिया गया था और बाड़ से आगे जाने की सख्त मनाही है। 18वीं शताब्दी में, विलियम स्टुकले द्वारा पत्थरों का स्थान बहाल किया गया था।
इस स्थान के बारे में कई प्रकार कथा प्रचलित है। स्टोनहेंज के निर्माण के बारे में बताया जाता है कि यह एक स्मारक स्थल रहा होगा। यहां उस समय के प्रभावशाली लोगों को दफन किया जाता होगा। इसकी आयु के बारे में बताया जाता है कि इसका निर्माण ईसा से 2000 पहले कराई गई होगी। कुछ परावेत्ता यह बताते हैं कि यहां एक प्रभावशाली सभ्यता का विकास हुआ होगा। उस सभ्यता के लोग इस स्मारक का उपयोग या तो धार्मिक अनुष्ठान के लिए करते होंगे या फिर यहां लोगों को दफनाया जाता होगा। कुछ पुरावेत्ताओं का मानना है कि वह सभ्यता बेहद विकसित होगी और इस स्थान का उपयोग वे खगोलीय गणना के लिए करते होंगे। खगोलीय गणना के सिद्धांत को तब और बल मिला जब जानकारों ने यह बताया कि पत्थर के घेरे के प्रवेश द्वार को सूर्योदय के विपरीत रखा गया है। खैर, इस स्थान को लेकर चिंतन और खोज जारी है। अभी तक कोई ठोस चिंतन सामने नहीं आया है, जो सर्वमान्य हो।
इस साइट को मेगालिथ के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक मेगालिथ का वजन 3 से 7 टन तक तक बताया जा रहा है। स्टोनहेंज के केंद्र में एक वेदी पत्थर है। मेगालिथ को स्वयं निकटतम पहाड़ों से निर्माण स्थल पर लाया गया था, जिसकी दूरी स्थल से 400 किलोमीटर है।
वैज्ञानिकों का सुझाव है कि पत्थर के घेरे का इस्तेमाल खगोलीय उद्देश्यों के लिए किया जाता रहा होगा। क्योंकि सर्कल में प्रत्येक भाग एक निश्चित दिशा का सामना करता है, ठीक उसी जगह जहां सूर्य अपने प्रत्येक काल में होता है। लेकिन हर कोई यह नहीं मानता कि इसका मकसद यही था। यह अधिक संभावना है कि स्टोनहेंज ड्र्यूड्स का धार्मिक स्थल या अभयारण्य था। यहां खुदाई में कुछ मानव अवशेष भी पाए गए हैं। इससे यह भी अंदाजा लगाया जा रहा है कि यह किसी प्रभावशाली व्यक्ति, परिवार या समूह का कब्रगाह होगा।
कुछ मिथकों के अनुसार, यह ज्ञात है कि पत्थर का घेरा यहां की मूर्ति पूजक रानी बोडिसिया का मकबरा था। एक किंवदंती है कि जादूगर मर्लिन ने सभी ब्लॉकों को निर्माण स्थल पर पहुंचा दिया। यह और अन्य किंवदंतियां आज भी इस स्थान के इर्द-गिर्द मंडराती हैं। निश्चित रूप से कोई नहीं जानता कि यह संरचना कैसे और किन उद्देश्यों के लिए बनाई गई थी। पुरातत्वविद, इतिहासकार केवल उन सिद्धांतों को सामने रखते हैं जो वास्तविकता से पूरी तरह अलग हो सकते हैं।
इतिहासकार इसे 8000 ईसा पूर्व का बताते हैं। बताया जा रहा है कि इसका निर्माण तीन चरणों में हुआ है, जिसका अंतिम चरण 2000 ईसा पूर्व में पूरा किया गया।
यह तो बात हुई ब्रितान की। अब हजारीबाग के साथ ही पूरे झारखंड की बात कर लेते हैं। तो हजारीबाग सहित झारखंड के चतरा, कोडरमा, रांची, चाईबासा, गोड्डा, पाकुड़ आदि कई जिलों में मेगालिथ साइट हैं। इसमें से सबसे प्रमुख साइट हजारीबाग स्थित बड़कागांव का प्रसिद्ध मेगालिथ स्थल है। यहां इक्नीवोक्स प्वाइंट से सूर्योदय का अद्भुत नजारा देखने के लिए दुनिया भर के खगोल प्रेमी आते हैं। प्रत्येक वर्ष 23 सितंबर को सूर्य शून्य डिग्री अक्षांस यानी विश्वतीय रेखा पर चमकता है। उस अवधि में दिन व रात समान होता है। इस स्थान पर पूरा नजारा वहां खड़े ‘वी’ आकार के दो महापाषाणों (मेगालिथ) के बीच से एक निश्चित जगह बने पत्थर के पास से ही दिखता है। यह खगोलीय घटना देखने की परंपरा अतिप्राचीन मानवों खासतौर पर आदिवासियों के सटीक गणितीय गणना और उनके अध्यात्म से जुड़ी है। पकरी बरवाडीह जैसे गिने-चुने इक्वीनोक्स स्थल ही विश्व में हैं। भारत में यह इकलौता, ऐतिहासिक और अनोखा इक्वीनोक्स स्थल है। ऐसे स्थल इंग्लैंड के न्यूग्रेंज और हेरेंज में देखने को मिलते हैं, जहां इक्वीनोक्स के अनोखे सूर्योदय का नजारा देखने के लिए दुनियाभर के लाखों लोग जुटते हैं।
इसकी खोज वर्ष 2000 में मेगालिथ शोधकर्ता सह खोजकर्ता हजारीबाग नवाबगंज निवासी शुभाशीष दास ने की थी। बड़कागांव का पकरी बरवाडीह स्थित इक्वीनोक्स स्थल देश और दुनिया भर में मशहूर है। यहां ब्रिटेन के मेगालिथिक एक्सपर्ट एंटोनी रॉबर्ट क्रेरार, जर्मनी ड्रेसडेन म्यूजियम की डायरेक्टर मिस लीडिया और यूरोपीय यूनियन के दंपती फिलिप और ग्राटिएर आ चुके हैं। यह इक्वीनोक्स जलविषुभ के नाम से भी जाना जाता है।
इस स्थान के बारे में मेगालिथ इतिहास से संबंधित विश्व प्रसिद्ध कई पुस्तकों की रचना कर चुके शुभाशीष दास बताते हैं कि आदिवासी दिन की जानकारी रखने के लिए इन पत्थरों का इस्तेमाल करते थे। दरअसल, ‘वी’ आकार के खड़े महापाषाण और आसपास रखे गए पत्थरों से आदिवासी सटीक गणितीय और खगोलीय गणना करते थे और सूर्य की दिशा से दिन की जानकारी रखते थे। यह बात ईसा पूर्व करीब 1000 साल पुरानी है, तब कैलेंडर नहीं हुआ करता था। इन्हीं पत्थरों और सूर्य की दिशा से प्राचीन मानवों को दिन का ज्ञान होता था।
यह महापाषाण अतिप्राचीन आदिवासियों के अध्यात्म से भी जुड़ा है। इस प्रकार के स्थानों पर मरने के बाद आदिवासियों की कब्र यानी ससांद्री पर बड़े-बड़े पत्थरों (डॉलमेन) को खड़ा कर दिया जाता था। इसे बिरिदरी या मेनहिर के नाम से जाना जाता है। यहां एक निश्चित प्वाइंट से खड़ा होकर देखने पर ‘वी’ आकार के दो महापाषाणों के बीच से सटीक पूर्व की ओर बीचोबीच 20-21 मार्च और 22-23 सितंबर को इक्वीनोक्स का सूर्योदय देखा जा सकता है। 20-21 मार्च का इक्वीनोक्स महाविषुभ के नाम से विख्यात है। बता दें कि हजारीबाग स्थित बड़कागांव के पकरी बरवाडीह के इक्वीनोक्स का जिक्र झारखंड सरकार के पाठ्यक्रम से लेकर पुणे के एक रेस्तरां तक में मिलता है। झारखंड सरकार ने छठी कक्षा के पाठ्यक्रम में बड़कागांव के इक्वीनोक्स समेत शुभाशीष दास की पूरी मेगालिथ खोज के बारे में जानकारी दी गई है।
दरअसल, इस प्रकार के साइट दुनिया में कई स्थानों पर देखने को मिले हैं। पुराविद इसे एक खास प्रकार की संस्कृति और सभ्यता से जोड़ कर देख रहे हैं। इस पर शोध भी जारी है। फिलहाल इस साइट को मेगालिथिक संस्कृति के नाम से जाना जा रहा है। इस प्रकार के साइट पर पत्थर ब्लॉकों द्वारा बनाए गए विशाल आकृतियां देखने को मिलती है। इस प्रकार की आकृतियों के बारे में बताया जाता है कि नवपाषाण काल में पूरी दुनिया में एक नए प्रकार की सभ्यता का विकास हुआ। उस सभ्यता ने न केवल लोहे का प्रयोग सीखा अपितु खगोलीय गणना की जानकारी भी प्राप्त कर ली थी। उनके धार्मिक अनुष्ठान मूर्तिपूजक हिन्दुओं से मिलते-जुलते थे। उस सभ्यता के लोग धार्मिक अनुष्ठान या फिर अपने प्रभावशाली नायकों को दफनाने के लिए इस प्रकार के पाषाणी विशाल स्वरूपों का निर्माण किया करते थे। भारत में इस सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता के साथ जोड़ा जा रहा है लेकिन इस चिंतन को ठोस नहीं माना जा रहा है। यदि ऐसा होता तो इसी प्रकार के विशाल पाषाणी अवशेष दुनिया के कई भागों में मिले हैं।
मेगालिथियों का अपना एक धार्मिक चिंतन भी हो सकता है। इसके बारे में कई पुराविदों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनका मानना है कि इस स्थान का उपयोग भले खगोलीय जानकारी या फिर धार्मिक अनुष्ठानों के लिए किया जाता होगा लेकिन यहां उस सभ्यता के लोग अपने प्रभावशाली नायकों को दफन भी करते होंगे। इनका चिंतन यह था कि चूकि मरने के बाद व्यक्ति दूसरी दुनिया में प्रवेश करता है इसलिए उसे उसी अवस्था में दफनाना चाहिए जिस अवस्था में वह अपनी मां के पेट में होता है। इसलिए लाशों को एक विशेष मुद्रा में बिठा कर उसे दफनाया जाता था और उसके साथ आवश्यकता की सारी सामग्री रखी जाती थी। भारत में भी इस प्रकार के चिंतन प्रचलित रहे हैं। खास कर आजीवक चिंतन से पहले पूरे भारत में इस प्रकार के चिंतन की मान्यता थी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मेगालिथ का चिंतन भारतीय चिंतन से ज्यादा मेल खाता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि भारत के चिंतन में आज भी वे पुराने तमाम चिंतनों का अवशेष है, जिसे दुनिया किसी न किसी समय में प्रभावशाली तरीके से मानती थी।
(आलेख का स्रोत विभिन्न प्रकार के इंटरनेट साइट हैं। इसके मैंने बस संपादित किया है।)