धर्म का धंधा/ भगवान के मंदिरों में वीआईपी दर्शन का चलन सामंतवादी सोच का प्रतीक

धर्म का धंधा/ भगवान के मंदिरों में वीआईपी दर्शन का चलन सामंतवादी सोच का प्रतीक

डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी 

हिन्दू धर्म बहुत ही पुराना और सनातन है लेकिन वैदिक काल से हमें ऐतिहासिक साक्ष्य के मिलने की गुंजाइश नजर आती है जो आज से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पहले से समझा जा सकता है।वैदिक काल में मंदिरों का उल्लेख नहीं मिलता है और उस समय प्रकृति की पूजा या आराधना की जाती थी और बहुत सारी ऋचाएं उसी संबंध में लिखी गई थीं। मंदिरों का प्रादुर्भाव मौर्य साम्राज्य के शासन काल में हुआ जरूर था लेकिन उसके अवशेष प्रामाणिक तौर पर अभी तक ज्ञात नहीं है.

गुप्त काल से मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ था लेकिन सातवीं शताब्दी के बाद मंदिरों का निर्माण एक व्यवस्थित तरीके से शुरू हुआ जो चोल साम्राज्य के शासन काल में हुआ और बाद में भारत के विभिन्न हिस्से में अलग – अलग राज्यों में वहाँ के शासकों ने अपने तरीके से निर्माण किया। मंदिरों का निर्माण जब राज्य द्वारा किया गया तो उसका उद्देश्य ये था कि वहाँ दर्शनार्थी से आने वाले चढ़ावे से राजकोष समृद्ध हो।मंदिरों की व्यवस्था के लिए पूरे देश में एक विशेष वर्ग के हाथ में रही।कालांतर में तो सभी मंदिरों पर उस वर्ग का पूरा एकाधिकार हो गया और मंदिर उनकी पुश्तैनी संपत्ति हो गई।पीढ़ी दर पीढ़ी वहीं लोग मंदिरों के आय और व्यय का आनंद लेते रहे।

देश की आजादी के बाद सरकार ने कुछ मंदिरों में ट्रस्ट के माध्यम से कुछ मंदिरों की व्यवस्था अपने हाथों में ली।शुरुआत में तो सभी मंदिर आम आदमी के लिये सुगम थे लेकिन धीरे धीरे अब इसमें प्रशासन के लोग अपनी घुसपैठ जमाने लगे।भीड़ भाड़ की स्थिति में अपने लोगों के लिए अलग से व्यवस्था का इंतजाम करने लगे।धीरे – धीरे ये वीआईपी दर्शन का आधार बनने लगा। इसका स्वरूप फिर से बदला और एक नई संस्कृति का उदय हुआ और वह था वीआईपी दर्शन जो उनलोगों के लिए था जो एक विशेष शुल्क देकर उसका लाभ उठा सकते हैं, यानि भगवान के दरबार में भी दो तरह की व्यवस्था हो गई, एक आम जनता के लिए और एक उन लोगों के लिए जो आर्थिक रूप से सक्षम हों। एक आम आदमी जो घंटों लाइन में लगने के बाद मंदिर के अंदर प्रवेश करता है तो उसे बाहर से ही दर्शन करने के लिए बाध्य किया जाता है जैसे वह कोई अछूत हो और वहीं दूसरी ओर आपके सामने ही कुछ वीआईपी लोग बड़े आराम से मंदिर के गर्भगृह में दर्शन लाभ करते हुए नजर आते हैं। एक आम आदमी इसी में खुश हो जाता है कि भले वह अछूत की तरह मंदिर से बाहर निकाल दिया जाता है लेकिन वह दूर से दर्शन तो कर लिया।

दरअसल, भारत के लोग सदियों से गुलाम रहे और उसके कारण उनके डीएनए में ही गुलामी करने की मानसिकता समाहित हो गई है।किसी भी भारतीय में स्वाभिमान नाम की कोई चीज बची ही नहीं है। इनको भेंड़चाल में चलने की आदत बन गई है।ये कैसा मंदिर और ये कैसा दर्शन जहाँ सरेआम आम दर्शनार्थी का अपमान हो रहा है। और भगवान के मंदिर में वीआईपी व्यवस्था का क्या औचित्य। मंदिर और भगवान सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए। भगवान के दरबार में में सभी एक समान है। अगर आज प्रधानमंत्रीजी भी मंदिर आये तो उन्हें आम नागरिक की तरह ही दर्शन की सुविधा होनी चाहिए।मंदिरों में सभी के लिए एक सी व्यवस्था होनी चाहिए। भगवान अगर वास्तव मे भगवान है तो वह सब देख रहे हैं । क्या मंदिर में भगवान वीआईपी दर्शन करने वालों को विशेष कृपा बरसायेंगे। यह सोचने वाली बात है । भगवान के दरबार में सब बराबर होने चाहिए।मंदिरों में विशिष्ट कुछ भी नहीं होता है ।दरअसल आपकी श्रद्धा उनको विशिष्ट बनाती है।इससे बड़ी प्रवंचना और कुछ नहीं हो सकती कि जिस ईश्वर ने आपको बनाया उस ईश्वर का निर्माण आप कर दो। लेकिन इतना जरूर है कि आपके अंदर की श्रद्धा आपके अंदर एक विश्वास जरूर पैदा करती है जिसके फलस्वरूप आपके अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और इसके कारण आपको अपने कार्य में सफलता प्राप्त होती है लेकिन कुछ ऐसे भी लोग देश है जो गणेश जी की मूर्ति को दूध पिलाने लगते हैं । संतोषी माता की फिल्म देखकर उसका व्रत करने लगते हैं । ऐसे लोगों को आप ज्ञान की घुटी कभी नहीं पिला सकते हैं।

कुछ दिनों पहले तक किसी ने खाटू श्याम जी के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। आज वहाँ जाने वालों की भीड़ लग गई है। यहीं स्थिति भारत के बाकी मंदिरों के साथ है।मंदिर जाने और पूजा पाठ करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन वहाँ आपके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो इसे कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिए।स्वाभिमान से बड़ा कुछ भी नहीं है । अगर आपका स्वाभिमान ही मर गया तो आप समझो कि आप मृतप्राय हो चुके हो। इसलिए जिस भी मंदिर में वीआईपी दर्शन की सुविधा दी जा रही है उसके खिलाफ हमलोगों को शिकायत प्रगट करना चाहिए। अब हमलोग आजाद मुल्क में रह रहे है। मंदिर में केवल एक सुचारू व्यवस्था बनाये रखने के लिए प्रशासन की आवश्यकता होनी चाहिए ना कि आपको अपमानित करने के लिए। गर्भगृह या तो सबके लिए उपलब्ध हो नहीं तो किसी के लिए नहीं।विशेष सुविधा भारत के किसी नेताओं या अफसरों के लिए भी नहीं होना चाहिए।आप बड़े नेता या बड़े अफसर हैं तो अपनी जगह , लेकिन मंदिर में आपको भी एक सामान्य याचक के रूप में ही आना होगा। आज देश के लगभग सभी मंदिरों में वीआईपी कल्चर शुरू हो गया है और इसपर लगाम लगाना जरूरी है।

दूसरी ओर मंदिर में चढ़ाए जाने वाला चढ़ावा भी प्रतीकात्मक हो।कोई जरूरी नहीं कि आप हजार, दस हजार या दस किलो लड्डू चढ़ाएं।इससे कुछ भी विशेष लाभ नही होगा।आप सिर्फ श्रद्धा से एक फूल चढ़ाएं ,वही काफी है।बाकी पैसे जो आप मंदिर में चढ़ाते हैं उससे किसी जरूरतमंद लोगों की सकारात्मक मदद करें।भीख देने की कोशिश कभी नहीं करें । इससे नाकारा लोगों की एक फौज खड़ी होती है।

आज केंद्र सरकार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देकर मुफ्तखोरों की एक विशेष फौज तैयार कर रही है जो आने वाले समय में इस देश के लिये सर दर्द बनने वालें हैं। वैसे आज इस देश में राजनीतिक दलों द्वारा रेवड़ी बांटने का एक नया कल्चर शुरू हो गया है और ये तबतक चलेगा जब तक देश की अर्थव्यवस्था तहस नहस ना हो जाये।श्रीलंका जैसे हालात पैदा होने में ज्यादा वक्त नही लगता है।अगर आपको अपने देश से जरा भी प्यार है तो इन मुफ्त की योजनाओं के खिलाफ आवाज उठाएं वरना आपको भी पाकिस्तान की तरह कटोरा लेकर भीख मांगना पड़ सकता है। वैसे मांगना इंसानी फितरत है वरना मंदिरों में इतनी भीड़ कैसे लगती।शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो सिर्फ श्रद्धा से मंदिर जाता हो और वहाँ जाकर कुछ मांगता नही हो।दरअसल मनुष्य की फितरत ही यही होती है कि कब्र में पाँव लटका हुआ है ,लेकिन कुछ पाने की लालसा उस समय भी रहती है। मनुष्य कभी भी लालच के दलदल से बाहर ही नहीं आ पाता है।और यही लालच उसके शोषण का सबसे बड़ा कारण होता है।आप मंदिर में अपने लालच के कारण ही शोषित होते हो।आपको इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि आपके सामने दूसरे को उसके धनबल के आधार पर विशेष दर्जा दिया जा रहा है और आपको हीन दीन में गिनती की जा रही है।भगवान अगर है तो आपकी श्रद्धा देखकर आपके घर तक खुद पहुँच जायेंगें जैसे केवट के पास श्री राम या शबरी के बेर खाने प्रभु राम।

पर्यटक के तौर पर आप कहीं जाना चाहे जा सकते हो लेकिन भगवान आपको आपके श्रद्धा के बल पर आपके घर में भी दर्शन दे सकते हैं।ईश्वर किसी भी रूप में आपके द्वारा आ सकते हैं।एक भूखा श्वान भी कभी ईश्वर के रूप में आपके द्वार पर खड़ा मिल सकता है । इसके लिए आपको दक्षिण भारत के मंदिरों में जाने की आवश्यकता नहीं होगी। ईश्वर के स्वरूप को पहचाने वह हमेशा आपके इर्द गिर्द ही रहता है जो आपकी श्रद्धा के बदौलत आपके करीब आता है।स्वाभिमान से वंचित लोगों के पास ईश्वर भी नही जाते हैं।इसलिए मंदिरों में भी अपने स्वाभिमान की रक्षा खुद करें और भेदभाव वाली नीति से उबरने की कोशिश करें।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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