संयुक्त राज्य अमेरिका को चुनौती : US डॉलर के मुकाबले ब्रिक्स करेंसी पर बनी सहमति

संयुक्त राज्य अमेरिका को चुनौती : US डॉलर के मुकाबले ब्रिक्स करेंसी पर बनी सहमति

ब्राजील के रियो डी जेरेरियो में आयोजित ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन को कई मामलों को लेकर बेहतर बताया जा रहा है। हालांकि कुछ चुनौतियां भी है लेकिन इस सम्मेलन की सबसे खास बात वैश्विक व्यापार में उपयोग होने वाली वैश्विक करेंसी को लेकर ब्रिक्स देशों के बीच हुई सहमति है। बता दें कि ब्रिक्स देशों की बैठक में डॉलर को किसी वैकल्पिक करेंसी से बदलने पर सहमति बन गई है ताकि दुनिया की वित्तीय प्रणाली पर से अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के दबदबे को घटाया जा सके।

हाल में जब ब्रिक्स देशों के नेता ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में मिले, तो आमतौर पर होने वाले बहुपक्षीय सम्मेलनों की रस्में – जैसे हाथ मिलाना, घोषणाएं करना, वैश्विक शासन में सुधार की बातें, इस बार ज्यादा गंभीर और जरूरी लग रही थीं। इस प्रकार की रस्म अदायगी पर वैश्विक नेताओं ने बहुत ज्यादा समय नहीं दिया साथ ही कुछ गंभी मामलों को लेकर चर्चा करते दिखे। इन औपचारिकताओं के पीछे असली मुद्दा था कि दुनिया की वित्तीय व्यवस्था की कमान किसके हाथ में होगी, और दुनिया आखिर कब तक अमेरिकी डॉलर पर निर्भर रह सकती है? यह सवाल इसलिए भी अहम है कि ब्रिक्स वैश्विक जीडीपी का करीब 29 फीसद हिस्सा रखता है।

पिछले दो दशकों से ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका से बना ब्रिक्स खुद को वैश्विक संस्थाओं में पश्चिमी दबदबे के मुकाबले के रूप में पेश करता रहा है लेकिन अब तक इसका बहुध्रुवीयता (मल्टी पोलारिटी) का दावा ज्यादातर सिर्फ बातों तक ही सीमित रहा है। हालांकि अब इसमें बदलाव आने की संभावना साफ तौर पर देखने को मिल रहा है। इस बार रियो सम्मेलन ने डॉलर पर निर्भरता घटाने की ब्रिक्स की मुहिम को नई रफ्तार दी है। इसमें ब्लॉकचेन आधारित डिजिटल पेमेंट सिस्टम ब्रिक्सपे का खाका पेश किया गया। नेताओं ने ब्रिक्स के लिए एक अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली (क्लियरिंग प्लेटफॉर्म) बनाने के प्रस्ताव का समर्थन किया और स्थानीय मुद्राओं में व्यापार के रास्ते खोलने की योजना रखी, जिसमें मिस्र, इंडोनेशिया, इथियोपिया, बांग्लादेश और यूएई जैसे नए ब्रिक्स सदस्य भी शामिल होंगे।

रूस और ब्राजील के नेता ने यह भी जोर दिया कि बातचीत में डी-डॉलराइजेशन (डॉलर से मुक्ति), मौद्रिक स्वतंत्रता और उस अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर भी खुलकर बात होनी चाहिए जिसमें एक ही देश की मुद्रा (डॉलर) ग्लोबल रिजर्व करेंसी बनी हुई है। भारत यहां हमेशा की तरह सावधानी बरत रहा है। अभी केंद्रीय वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन के साथ अहम व्यापार समझौते पर गहरी बातचीत कर रहे हैं। ब्रिक्स के साझेदार रूस और चीन के मुकाबले, भारत के अमेरिका से राजनीतिक और आर्थिक संबंध कहीं बेहतर हैं। ऐसे में भारत के लिए डीडॉलराइजेशन पर भारत को सावधान रहने की जरूरत है। भारत ने सैद्धांतिक रूप में ब्रिक्स समूह का साथ दिया, लेकिन हर बात पर नहीं। विदेश मंत्री एस. जयशंकर और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फिर से यह दोहराया कि भारत ऐसी वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्थाओं का समर्थन करता है जो ज्यादा समावशी, राजनीतिक दबाव से मुक्त और विविधता समर्थन करता हो। हालांकि इस मामले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचार परिवार से जुड़ा, स्वदेशी जागरण मंच इस मुद्दे पर और भी साफ और सख्त रुख अपना रहा था। इस मामले में स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े अर्थशास्त्री और मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन ने साफ कहा, ‘‘भारत ब्रिक्स की साझा मुद्रा का समर्थन नहीं कर सकता है। वह डॉलर की जगह युआन (चीन की मुद्रा) को हावी नहीं देखना चाहता और न ही अपनी मौद्रिक स्वतंत्रता किसी ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्था को सौंपना चाहता है, जिसकी पारदर्शिता और नियंत्रण पर अभी भी सवाल उठते हैं।’’ हालांकि महाजन के इस बयान को कुछ साम्यवादी चिंतक अमेरिकी परस्त बताते हैं।

भारत जो फर्क बता रहा है, वह सूझबूझ भरा और रणनीतिक है। अश्विनी महाजन का मानना है कि भारत को डॉलर के खिलाफ भी नहीं होना चाहिए। दरअसल, जब डॉलर का उपयोग हथियार के रूप में होने लगता है तो वह किसी दूसरे राष्ट्र की संप्रभुता को क्षति पहुंचाता है। ऐसे में डॉलर का समर्थन दुविधा में डालता है। वैसे भारत अपनी अर्थव्यवस्था को अमेरिका से आने वाले संभावित झटकों से बचाने के लिए कई तरह की योजनाओं पर काम कर रहा है – कुछ शांत तरीके से, तो कुछ बड़े स्तर पर. लेकिन साथ ही, वह डॉलर की जो सुविधाएं अभी मिल रही हैं, उन्हें भी पूरी तरह छोड़ना नहीं चाहता।

पिछले कुछ सालों में इस मुद्दे की गंभीरता और जरूरी होने का एहसास तेजी से बढ़ा है। यूक्रेन पर हमले के बाद रूस के सेंट्रल बैंक के रिजर्व को पश्चिमी देशों ने फ्रीज कर दिया। पश्चिमी देशों की एकतरफा कार्रवाई है। इसे जायज भी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके अलावा ईरान और वेनेजुएला पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए। साथ ही, चीन को इस बात का डर है कि उसे वैश्विक वित्तीय व्यवस्था से अलग किया जा सकता है। इन सब बातों ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जब वित्तीय व्यवस्था को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है तब क्या कोई देश वाकई अपनी संप्रभुता की रक्षा करने में सफल हो सकता है। यदि वह देश अमेरिका या पश्चिमी देशों की नीतियों से थोड़ा भी अलग चलेगा तो उसके उपर डॉलर को हथियार बनाकर आक्रमण किया जा सकता है। हाल के दिनों में यूएस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का भारत के प्रति व्यवहार रहा है वह भारत को भी इस दिशा में सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। भारत के लिए भी अब यह सवाल सिर्फ कल्पना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि रणनीति का हिस्सा बन गया है। अगर भविष्य में भारत को किसी सीमा विवाद या कूटनीतिक संकट का सामना करना पड़े और उस समय डॉलर बाजार, पेमेंट सिस्टम या क्रेडिट रेटिंग के जरिए उस पर दबाव डाला जाए, तो क्या हाल होगा?

ऐसी ही चेतावनी भरी बातें आरएसएस से जुड़े कई संगठन अलग-अलग मंचों से उठा रहे हैं। भारत के नजरिए से इसका हल डॉलर सिस्टम को तोड़ना नहीं, बल्कि साथ में मजबूत और भरोसेमंद विकल्प तैयार करना है। 2022 से, भारतीय रिजर्व बैंक ने 30 से ज्यादा देशों के साथ ‘स्पेशल रुपया वोस्ट्रो अकाउंट्स’ की शुरुआत की। इन खातों के जरिए विदेशी बैंक रुपये रख सकते हैं, जिससे वे भारत के साथ सीधा व्यापार कर सकें। रूस, श्रीलंका और मॉरीशस जैसे देश इसमें शामिल हो चुके हैं। हालांकि यह व्यवस्था पूरी तरह आसान नहीं है क्योंकि कई देशों को अब भी तीसरे देशों के साथ व्यापार के लिए डॉलर की जरूरत पड़ती है, या रुपये को दूसरी मुद्राओं में बदलने में दिक्कत होती है। फिर भी इसने भारत को एक नया मॉडल बनाने में मदद दी है।

भारत और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के बीच का समझौता और भी ज्यादा उम्मीद वाला है। 2023 में, रुपये और यूएई दिरहम में भुगतान की एक आधिकारिक व्यवस्था शुरू की गई थी। इसके साथ ही, भारत के यूपीआई और यूएई के इंस्टेंट पेमेंट सिस्टम (आईपीपी) को आपस में जोड़ने पर भी समझौता हुआ, जिससे दोनों देशों के बीच रियल-टाइम लेनदेन संभव हो गया है। इससे दोनों देशों को फायदा हो रहा है। यह सिर्फ सांकेतिक कदम नहीं है, बल्कि इससे बड़ा बदलाव शुरू हो सकता है। यूएई न सिर्फ भारत का एक प्रमुख तेल आपूर्तिकर्ता है, बल्कि एक बड़ा व्यापारिक साझेदार और वित्तीय केंद्र भी है। अगर तेल का व्यापार बिना डॉलर के या कम से कम आंशिक रूप से होने लगे, तो यह एक अहम बदलाव तो है ही।

ध्यान देने की बात है कि आज डॉलर को जो ताकत मिलती है, उसका एक बड़ा कारण है उसका ‘पेट्रोडॉलर’ के रूप में इस्तेमाल। इसका मतलब है तेल के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इस्तेमाल होने वाला अमेरिकी डॉलर. 1973 में, अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में अमेरिका और सऊदी अरब के बीच एक समझौते के तहत पेट्रोडॉलर प्रणाली शुरू की गई थी, जिसे बाद में ओपेक (पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन) देशों तक बढ़ा दिया गया। आज करीब 80 फीसद तेल का व्यापार अमेरिकी डॉलर में होता है। इस वजह से दुनिया के ज्यादातर देशों को अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर रखना पड़ता है, ताकि वे तेल खरीदने की जरूरत पूरी कर सकें। इसके अलावा मौजूदा समय में करीब 60 फीसद अमेरिकी डॉलर बिल का लेनदेन अमेरिका और उसके अधीनस्थ क्षेत्रों के बाहर होता है।

ब्रिक्स समूह दुनिया की करीब आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है और करीब 29 फीसद वैश्विक जीडीपी को नियंत्रित करता है। अगर इसमें थोड़ा भी बदलाव आता है, तो अमेरिका की आर्थिक स्थिति और उसका दबदबा प्रभावित हो सकता है। इसी वजह से डोनाल्ड ट्रंप ब्रिक्स देशों और उनके साझेदारों पर 10 फीसद अतिरिक्त टैक्स (टैरिफ) लगाने की धमकी दे रहे हैं। इस बीच, ब्रिक्स देश अमेरिका की ओर से एकतरफा लगाए गए टैरिफ की निंदा कर रहे हैं और ऐसे विकल्प तैयार करने के लिए जरूरी ढांचा बनाने के तरीकों की तलाश कर रहे हैं जो उनकी जरूरत के अनुकूल हो। भारत भी डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर को मौद्रिक सुरक्षा का एक साधन मानकर आगे बढ़ा रहा है। इसका यूपीआई (यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस), जिसे घरेलू डिजिटल भुगतान में क्रांति माना गया है, अब दूसरे देशों को एक मानक के रूप में निर्यात किया जा रहा है।

सिंगापुर, मॉरीशस, भूटान, फ्रांस और यूएई ने भारत के साथ यूपीआई को जोड़ने के समझौते किए हैं. फिलहाल इनका इस्तेमाल खरीदारी और पर्यटन जैसे छोटे लेन-देन में हो रहा है, लेकिन ये आगे बड़े स्तर की व्यवस्था की नींव तैयार कर रहे हैं। इसी के साथ, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) भी डिजिटल रुपया की टेस्टिंग कर रहा है और भविष्य में इसे अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में इस्तेमाल करने की योजना है – जैसे mBridge प्रोजेक्ट, जो चीन, थाईलैंड और यूएई जैसे देशों के साथ मिलकर केंद्रीय बैंकों की डिजिटल करेंसी (सीबीडीसी) पर काम कर रहा है।

वैसे भारत रियो सम्मेलन में भारत ने ब्रिक्सपे की घोषणा का समर्थन किया, लेकिन कुछ जरूरी शर्तें भी जोड़ दीं है। भारत ने कहा कि ऐसी कोई भी प्रणाली देश की मौजूदा भुगतान प्रणालियों से जुड़ने लायक होनी चाहिए, न कि उन पर थोप दी जाए। यह व्यवस्था स्वैच्छिक भागीदारी पर आधारित होनी चाहिए और इसमें डेटा सुरक्षा और राष्ट्रीय संप्रभुता के मानकों का पालन किया जाना चाहिए। साथ ही, भारत ने साझा ब्रिक्स मुद्रा के प्रस्ताव का भी विरोध किया है।

इस प्रकार इस मामले में अपनी सही हुई रणनीति का परिचय दिया है। इस रणनीति से जहां एक ओर पश्चिमी लॉबी भारत के प्रति अपनाए जा रहे नकारात्मक दृष्टिकोण से सतर्क हो जाएगा, तो दूसरी ओर ब्रिक्स देशों के इस वैकल्पिक आर्थिक योजना से भारत को दुनिया में दो बहुध्रुवीय व्यवस्था बनाने में थोड़ी सफलता मिलेगी। इसे भारतीय कूटनीति की बेहत चाल के रूप में देखा जाना चाहिए।

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