रूबी खान
कुछ बातें हम भुला देते हैं। दरअसल, समाज की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। जो बातें चर्चा में नहीं होती उसे भुला दिया जाता है। इतिहास भी उस पर मौन हो जाता है। बहुत सारी ऐसी बातें, जो हमारे लिए महत्व की थी और हमें उससे प्रेरणा लेनी चाहिए, आज वह पब्लिक डोमेन में नहीं है। कोई उस पर बात करने को तैयार भी नहीं है। विगत दिनों जब मैं अपने काॅलेज से लौट कर घर आयी और देश-दुनिया की खबर जानने के लिए टेलीविजन खोली, तो सभी चैनलों पर महिला आरक्षण विधेयक की सुर्खियां स्क्राॅल कर रही थी। चूंकि मैं इतिहास की छात्रा हूं और आधुनिक भारत पर हमारा विशेष अध्ययन रहा है, इसलिए मैं थोड़ी संजीदगी से इस खबर पर गौर करने गली। खबर देखते-देखते कब भारत के आधुनिक इतिहास में खे गयी पता ही नहीं चला। उसी दौरान एक महिला का चेहरा हमारे सामने उभरा, वह कोई और नहीं भारतीय महिलाओं को मतदान का अधिकार दिलवाने वाली बेगम जहांआरा शाहनवाज थी। बेगम जहांआरा शाहनवाज ने ही भारतीय महिलाओं को राजनीतिक अधिकार दिलवाए थे। भारतीय उपमहाद्वीप में बेगम शाहनवाज ने जिस लड़ाई को प्रारंभ किया था लंबे संघर्ष के बाद उस लड़ाई की अंतिम परिणति नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ। मसलन, भारतीय महिलाओं को विधायी पंचायतों में 33 प्रतिशत का आरक्षण प्राप्त हो चुका है।
आज जब भारतीय महिलाएं अपने मताधिकार का प्रयोग करती है या फिर चुनाव लड़ती है, तो दूर-दूर तक कल्पना में भी बेगम जहांआरा नहीं आती है। लेकिन तारीख में दर्ज है कि बेगम के कारण ही भारतीय महिलाओं को वोट का अधिकार प्राप्त हुआ। दरअसल, बेगम जहांआरा शाहनवाज के नेतृत्व में हुए संघर्ष का एक लंबा इतिहास है। बेगम जहांआरा शाहनवाज पहले गोलमेज सम्मेलन में दो महिला प्रतिनिधियों में से एक थीं। दूसरे गोलमेज सम्मेलन में तीन महिला प्रतिनिधियों में से एक और तीसरे गोलमेज सम्मेलन में एकमात्र महिला प्रतिनिधि थीं। बाद में, जब भारत सरकार ने अधिनियम, 1935 को अंतिम रूप देने के लिए संयुक्त चयन समिति का गठन किया गया, तो जहांआरा इसकी एकमात्र महिला सदस्य थीं।
बता दें कि वर्ष 1927 से पहले भारतीय महिला दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में जीवन जी रही थीं। महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त नहीं था। उसी वर्ष भारत में साइमन कमीशन आया। अखिल भारतीय महिला आयोग (एआईडब्ल्यूसी) की सदस्य के रूप में जहांआरा ने कमीशन के सामने तर्क दिया कि भारतीय महिलाओं को विधानसभाओं का चुनाव लड़ने और मतदान के अधिकार में आरक्षण मिलना चाहिए। जहांआरा के इस तर्क ने कमीशन को प्रभावित किया और कमीशन ने महिलाओं के पक्ष में रिपोर्ट तैयार की। बावजूद इसके तत्कालिन भारत सरकार ने इसका विरोध किया। चूंकि भारतीय साइमन कमीशन की रिपोर्ट का विरोध कर रहे थे, इसलिए भारतीयों को ब्रिटिश सरकार के सामने अपनी शिकायत रखने का मौका देने के लिए आरटीसी का आयोजन किया गया था। इन सम्मेलनों में 160 मिलियन भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए जहांआरा को चुना गया।
प्रथम गोलमेज सम्मेलन में जहांआरा ने कहा कि भारत में लोग अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की बात कर रहे थे और इस राष्ट्रीय आकांक्षाओं को अंग्रेजों द्वारा रोका नहीं जा सकता था। उन्होंने आगे तर्क दिया कि महिलाओं के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए और यह घोषित किया जाना चाहिए कि महिलाओं को समान मतदान का अधिकार मिलेगा। जहांआरा यह स्वीकार करने से नहीं चूकीं कि यह पहली बार है कि महिलाओं को इस तरह की सभा में प्रवेश दिया गया है। इंग्लैंड में अपने प्रवास के दौरान जहांआरा ने भारतीय महिलाओं को मताधिकार दिलाने के लिए समर्थन जुटाने के लिए कड़ी मेहनत की। तीनों आरटीसी के समापन के बाद 1933 में एक चयन समिति का गठन किया गया और उन्हें उसमें शामिल किया गया। भारतीय महिलाओं को मतदान के अधिकार और आरक्षण के समर्थन में इंग्लैंड में एक जनमत तैयार करने के लिए बेगम जहांआरा ने उन दिनों के कई ब्रितानी महिला अधिकार कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। जहांआरा की मेहनत रंग लाई और जब भारत सरकार अधिनियम 1935 प्रकाशित हुआ तो इसने लगभग 600,000 महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया गया साथ ही विधानसभाओं में आरक्षण की भी व्यवस्था की गयी।
हालांकि, यह अभी भी जहांआरा द्वारा की गई महिलाओं के अधिकारों की मांग से कम था फिर भी यह भारतीय महिलाओं के लिए एक बड़ी जीत थी। आरक्षण के परिणामस्वरूप, 1937 के चुनावों में 80 महिला सदस्य प्रांतीय विधानसभाओं में जीत कर आयी। इसे एतिहासिक जीत कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जहांआरा ने बाल विवाह पर भी कानून बनाने के लिए सरकार को विवस किया। बेगम जहांआरा ने बाल विवाह पर भी कानून बनवाया। एआईसीडब्ल्यू की अन्य महिला कार्यकर्ताओं के साथ जहांआरा ने संघर्ष छेड़ दिया। इस विधेयक के समर्थन में देश में एक लोकप्रिय जनमत तैयार किया। दिलचस्प बात यह है कि मियां शाहनवाज को छोड़कर समिति के सभी मुस्लिम सदस्यों ने इस बिल का विरोध किया। विधेयक को बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929 के रूप में पारित किया गया, जिसने महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु 14 वर्ष और पुरुषों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की।
1937 में जहांआरा पंजाब विधान सभा के लिए चुनी गईं और संसदीय सचिव नियुक्त की गईं। इस क्षमता में उन्होंने महिलाओं में स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और कम उम्र की प्रत्याशा पर ध्यान केंद्रित किया। चूंकि जहांआरा लाहौर की रहने वाली थी इसलिए भारत के विभाजन के बाद वह पाकिस्तान में रहीं और 1948 में माता-पिता की संपत्ति में महिलाओं के अधिकार को लेकर एक बड़ा आन्दोलन खड़ा किया। बाध्य होकर पाकिस्तान सरकार को उनकी बात माननी पड़ी। उन्हीं के प्रयासों से पाकिस्तानी महिलाओं को विरासत का अधिकार प्राप्त हो सका।
सच पूछिए तो बेगम जहांआरा शाहनवाज को हमारा पुरुषवादी समाज भूला दिया है लेकिन नरेन्द्र मोदी की सरकार, जैसे ही महिलाओं के विधायी इकाइयों में आरक्षण पर आगे बढ़ी, नींव का पत्थर खुद व खुद जमीन से बाहर निकाला गया है। बेगम जहांआरा फिर-से हमारे सामने हैं। वह जीवंत हैं। हम उन्हें नहीं भूल सकते, जिन्होंने हमें पुरुष प्रधान समाज में सिर उठाकर चलने की केवल हिम्मत ही नहीं संवैधानिक अधिकार दिलवाया।
(आलेख में व्यक्त लेखिका के विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई लेना देना नहीं है।)