गौतम चौधरी
इस्लाम एक अलग किस्म का धर्म है। इसे आप पूर्ण रूप से अब्राहमिक दर्शन या सोशल ऑर्डर का धर्म नहीं कह सकते हैं। इसकी पूरी जीवन शैली ही समानता और आपसी भाईचारे पर टिकी है। इसे आप इस्लाम की विशेषता भी कह सकते हैं। यह चिंतन किसी को भी व्यक्तिगत या समूह को अपने धार्मिक उद्देश्यों के लिए सार्वजनिक संपत्ति के उपयोग की इजाजत नहीं देता है। यही नहीं यह चिंतन किसी व्यक्ति या समूह को किसी की जायज संपत्ति हड़पने को भी गैर-धार्मिक मानता है। इस्लामिक चिंतन में पारस्परिक स्थानों सहित सार्वजनिक भूमि पर अवैध रूप से कब्जा करने को पाप की श्रेणी में रखा गया है। इस्लाम के पवित्र ग्रंथों में इस बात की मुकम्मल चर्चा की गयी है। यही कारण है कि आज भी जहां धार्मिक स्थान बनाए जाते हैं वह स्थान कानूनी तौर पर वैध होता है और अनुयायियों द्वारा खरीदी गई होती है। इस्लाम के लगभग सभी नवियों ने अपनी शिक्षाओं में इस बात का जिक्र किया है।
सार्वजनिक भूमि की यदि बात करें तो इस्लाम में संपूर्ण मानव जाति का समर्थन करने के लिए एक पवित्र ट्रस्ट के रूप में देखा जाता है। संपत्ति के विशेषाधिकारों के लिए इस्लामी संरचना नैतिक और भौतिक प्रतिबद्धताओं पर आधारित है, जो भूमि के दोहरे व्यवहार, संचय या अव्यावहारिक उपयोग को रोकने की अपेक्षा करती है। ओटोमन लैंड कोड, 1858 के अनुसार सार्वजनिक स्थान, जिनमें सड़कें और अन्य भूमि शामिल हैं, लोक कल्याण की श्रेणी में रखा गया है। ये स्थान सार्वजनिक हित के लिए है। इसपर किसी व्यक्ति या समूह का अधिकार नहीं हो सकता है। ऐसे स्थानों को व्यक्तिगत उपयोग के लिए या किसी आयोजन में धार्मिक उपयोग के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है। यह गैरकानूनी तो है ही इस्लाम की दृष्टि से धर्म के खिलाफ भी है। इस्लाम के पवित्र ग्रंथों में स्पष्ट रूप से दूसरों की चीज़ों को अनुचित रूप से लेने के खिलाफ चेतावनी दी गयी है, चाहे वह निजी हो या सार्वजनिक।
इसके अलावा, इस्लाम सार्वजनिक संपत्ति को भी निजी या किसी समूह के हित के लिए खर्च करने अनुमति नहीं देता है। इस्लाम में अवैध रूप से प्राप्त भूमि पर मस्जिद या अन्य धार्मिक संरचनाओं के विकास को अनुचित बताया गया है। एक मस्जिद, जिससे अपेक्षा की जाती है कि वह अल्लाह के कथन को फैलाएगी और प्रेम, शांति और सद्भाव के केन्द्र के रूप में कार्य करेगी, यदि वह अवैध रूप से कब्जे वाली भूमि पर बनी हो, अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकती है। बरैलवी फिरके के आलिम मुफ्ती तुफैल बताते हैं कि इसकी पुष्टि, सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मोहम्मद पैगंबर, द्वारा मस्जिद अल-दिरार (शरारत की मस्जिद) को खारिज करने से होती है, जिसे कुछ पाखंडियों द्वारा श्रद्धालुओं के बीच कलह फैलाने के लिए शरारत से बनाया गया था। ऐसा कहा जाता है कि जब पैगंबर मुहम्मद को इसकी असलियत का पता चला तो उन्होंने उस मस्जिद को नष्ट करवा दिया। यह पुष्टि करता है कि किसी मस्जिद की पवित्रता उसकी स्थापना के वैध होने से जुड़ी होती है। इस्लामिक विद्वान इस बात पर एकमत है कि धोखे से प्राप्त भूमि पर बनी मस्जिद में की गयी प्रार्थना अल्लाह को स्वीकार्य नहीं है।
इसके लिए मानक स्पष्ट है, यदि भूमि को अवैध रूप से विनियोजित किया गया है, तो निर्माण चाहे कितना भी शुद्ध तरीके से किया गया हो, उस धार्मिक स्थाल पर नमाज पढ़ना हराम माना जाएगा। इस मामले में इस्लाम के दूसरे खलिफा अबुबक्र सिद्दकी का वाकया भी बेहद मुहत्वपूर्ण है। उन्होंरेन साफ तौर पर जिक्र किया है कि यदि भूमि अवैध रूप से प्राप्त किया गया है तो उप पर बना धार्मिक स्थल किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं होगा। भूमि के कब्जे और उपयोग से निपटने का इस्लाम का तरीका आम तौर पर लोकलुभावन है, जिसका उद्देश्य यह गारंटी देना है कि प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी उल्लंघन के आवश्यक स्वतंत्रता प्राप्त करे। सार्वजनिक स्थानों को कठिनाई और शर्मिंदगी से बचाने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर अनुचित नियंत्रण इन गुणों को नष्ट कर देता है और सामाजिक सौहार्द्र को बिगाड़ देता है।
नेक कार्यों के लिए सार्वजनिक स्थानों के उपयोग पर इस्लामी दृष्टिकोण स्पष्ट है। सार्वजनिक स्थान समाज के समग्र लाभ के लिए निहित एक सार्वजनिक संपत्ति हैं और उनका गैरकानूनी उपयोग इस्लामी शिक्षा और नैतिक मानकों दोनों की उपेक्षा करता है। इस तरह, मुसलमानों को यह गारंटी देनी चाहिए कि उनके धार्मिक स्थाल इस तरह से बनाए गए हैं जो इस्लाम में सम्मानित समानता और नैतिक गुणवत्ता के अनुरूप है। वह अवैध किसी की जमीन पर कब्जा करके नहीं बनाया गया है। या फिर किसी अन्य धर्म व आस्था के स्थल को ध्वस्त करके नहीं बनाया गया है।
(इस आलेख में कई स्थानों पर पवित्र ग्रंथ और इस्लामिक रेफरेंस को उद्धृत किया गया है। ऐसा इस्लामिक विद्वानों के साथ बात करके किया गया है।)