गौतम चौधरी
केन्द्रीय गृह मंत्रालय के दस्तावेज का दावा किया गया है कि नागरिक संशोधन अधिनियम (सीएए) धर्म के आधार पर वर्गीकरण या भेदभाव नहीं करता है। यह इंगित करता है कि सीएए केवल धर्म के आधार पर निर्मित एवं स्थापित देशों में धार्मिक उत्पीड़न को वर्गीकृत करता है। इस अधिनियम की भारत को इसलिए भी जरूरत है कि हमारे बगल के तीन देश धार्मिक आधार पर गठित हैं और उनकी प्रशासनिक एवं कानूनी प्रकृति धर्म के आधार पर अपने नागरिकों को वर्गीकृत करता है। यही कारण है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में इस्लाम को छोड़ अन्य धर्म के मानने वाले वहां रहना नहीं चाह रहे हैं। इन तीनों देशों में राजधर्म, इस्लाम को छोड़ कर अन्य किसी पंथ के लोग अपने आप को वहां सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। यहां तक की इन तीनों देशों में इस्लाम के अहमदिया फिरके को भी परोक्ष रूप से रहने की इजाजत नहीं दी जा रही है। अहमदिया फिरके वाले दुनिया के अन्य किसी क्षेत्र में अबाद हो रहे हैं लेकिन इस्लामिक देशों में सरकारी तौर पर उनके खिलाफ षड्यंत्र जारी है। भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान मे ंतो इन्हें गैर इस्लामिक घोषित किया जा चुका है और इशनिंदा के कानून इन पर भी लागू होते हैं।
सबसे पहले सीएए को हमें समझना होगा। यह किसी धर्म के खिलाफ नहीं है। यह मात्र उन उत्पीड़ित धार्मिक समुदाय के लिए जिन्हें हमारे पड़ोसी देश की शासन प्रणाली पंथ के आधार पर उत्पीड़ित कर रही है। मसलन, सीएए में प्रावधान है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिंदू, सिख, पारसी, बौद्ध और ईसाई जैसे छह अल्पसंख्यक समुदाय के लोग, जिन्हें धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर भारत में शरण लेने के लिए मजबूर किया गया था, उन्हें अब भारत में अबैध नहीं माना जाएगा। इसकी नीव तभी पड़ गयी थी जब भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के वजीरेआजम लियाकत अली खान के बीच का समझौता कमजोर पड़ गया। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लागू करने की घोषणा कर दी है। इस अधिनियम को लेकर कुछ मौकापरस्त समूह विरोध पर उतर आए हैं लेकिन क्या यह हाल का मामला है? ऐसा नहीं है। वर्ष 1950 में नागरिकता को लेकर नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था। उस समझौते में भारत और पाकिस्तान के नागरिकों को परिभाषित कर दिया गया। पाकिस्तान ने उस समझौते की धज्जियां उड़ा कर रख दी। आज जो पाकिस्तान का संविधान है उसकी प्रस्तावना में ही कहा गया है कि पाकिस्तान का निर्माण ही इस्लाम की रक्षा के लिए हुआ है और पाकिस्तान राष्ट्र का लक्ष्य इस्लाम की रक्षा है। भारत में जो आज सीएए लागू किया गया है उसकी आधरशिला उसी समय रख दी गयी थी। इस अधिनियम का लक्ष्य हमारे पड़ोस के गैर-धर्मनिरपेक्ष देशों में रह रहे धार्मिक अल्पसंख्यकों की रक्षा करना मात्र है।
आइए हम नेहरू-लियाकत समझौते को समझते हैं। दरअसल, दोनों पड़ोसी देशों के प्रधानमंत्रियों ने वर्ष 1950 में दिल्ली में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसे आमतौर पर नेहरू-लियाकत समझौता कहा जाता है। समझौते में एक-दूसरे के क्षेत्रों में निवास कर रहे धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी दी गयी थी। नेहरू-लियाकत समझौते के तहत, जबरन धर्मांतरण को मान्यता नहीं दी गई और अल्पसंख्यक अधिकारों की पुष्टि की गई। उस समय पाकिस्तान, नागरिकता की पूर्ण समानता और जीवन, संस्कृति, भाषा की स्वतंत्रता और पूजा के संबंध में सुरक्षा की पूर्ण भावना प्रदान करने के लिए औपचारिक रूप से सहमत हुआ था। पाकिस्तान जल्द ही अपने वादे से मुकर गया। अक्टूबर 1951 में लियाकत अली की हत्या कर दी गई। जब 3 जनवरी, 1964 को श्रीनगर के हजरतबल में पवित्र अवशेष चोरी हो गया, तो पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश, में बड़े पैमाने पर अशांति फैल गई, जिसमें अल्पसंख्यक समुदाय, खास कर हिन्दुओं को निशाना बनाया गया। इस घटना में हजारों हिन्दुओं की जान चली गयी और लाखों की संख्या में हिन्दू वहां से पलायन कर गए। कुछ तो भारत में आकर भी शरण लिए। हालांकि अगले दिन पवित्र अवशेष बरामद कर लिया गया, फिर भी तत्कालीन पाकिस्तान के कई क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे जारी हरे।
दरअसल, लोकसभा में एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का जवाब देते हुए तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने कहा था कि भारत नेहरू-लियाकत समझौते को लागू कर रहा है लेकिन पाकिस्तान अपना काम नहीं कर रहा है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के बारे में, नंदा, जिन्होंने नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद दो बार भारत के कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया, ने कहा, ‘‘भारत उन लोगों के प्रति अपनी आँखें बंद नहीं कर सकता है, जो हमारा हिस्सा थे, जिनके साथ हमारे खून के रिश्ते हैं तथा जो हमारे रिश्तेदार और दोस्त हैं और हम उनके कष्टों, उनके शरीर एवं आत्मा की यातना आदि से मुंह नहीं मोड़ सकते जिनसे वे वहां गुजर रहे हैं।’’
यह वह समय था जब नेहरू प्रधानमंत्री थे और संसद में बैठे थे तब उनके गृहमंत्री ने कहा था, ‘‘अगर उन्हें पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यक, अपने देश में सुरक्षा के बीच सांस लेना असंभव लगता है और उन्हें लगता है कि उन्हें इसे छोड़ देना चाहिए, तो हम उनका रास्ता नहीं रोक सकते। हमारे पास उनसे यह कहने का साहस नहीं है, तुम वहीं रहो और कत्ल किये जाओ।’’ तीन दिन बाद, भुवनेश्वर में नेहरू को बायीं तरफ लकवा मार गया, जिसके कारण नंदा को अस्थायी रूप से बीमार प्रधानमंत्री नेहरू की कार्यकारी जिम्मेदारियां संभालनी पड़ीं थी।
सीएए पर गृह मंत्रालय के एक दस्तावेज में देश की आजादी पर आधी रात को दिए गए नेहरू के ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भाषण को उद्धृत करते हुए कहा गया है, ‘‘हम अपने उन भाइयों और बहनों के बारे में भी सोचते हैं जो राजनीतिक सीमाओं के कारण हमसे अलग हो गए हैं और हमने जो आजादी पाई है वर्तमान में वे नाखुश होकर साझा नहीं कर सकते है। वे हमारे हैं और हमारे ही रहेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए और हम उनके अच्छे और बुरे भाग्य में समान रूप से भागीदार होंगे।’’
सीएए ने अहमदिया, शिया, बहाई, हजारा, यहूदी, बलूच और नास्तिक समुदायों को इस आधार पर बाहर रखा है कि राजनीतिक या धार्मिक आंदोलनों से उत्पन्न उत्पीड़न को ऐसे व्यवस्थित धार्मिक उत्पीड़न के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है जिससे सीएए का उद्देश्य ही समाप्त हो जाए। इसी तरह, रोहिंग्या, तिब्बती बौद्ध और श्रीलंकाई तमिलों के मामलों को सीएए से बाहर रखा गया है क्योंकि यह कानून दुनिया भर के मुद्दों का सर्वव्यापी समाधान नहीं है। यह तर्क दिया जाता है कि भारतीय संसद दुनिया भर के विभिन्न देशों में हो रहे विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न की देखभाल नहीं कर सकती है। इस मामले में बस इतना ही कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता से पहले जो हमारे साथ थे और आज वे हमारे ही देश के गैरतात्विक टुकड़ों में निवास कर रहे हैं, उन्हें धर्म के आधार पर इसलिए उत्पीड़ित किया जा रहा है कि वहां इस्लाम की आधुनिक परिभाषा गढ़ ली गयी है। ऐसे उत्पीड़ितों को आधुनिक भारत सम्मान के साथ अपने देश में जगह देने की योजना बनायी है।
गृह मंत्रालय के दस्तावेज का दावा है कि सीएए धर्म के आधार पर वर्गीकरण या भेदभाव नहीं करता है। यह इंगित करता है कि यह केवल धर्म के आधार पर स्थापित पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों की चिंता कर रहा है। कुल मिलाकर भारत पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के इस्लामिक जेहाद की जद में आए अल्पसंख्यकों को एक संवल प्रदान करने की कोशिश कर रहा है। यदि इसमें इस्लाम के किसी भी फिरके को साथ कर लिया जाए तो इसके हेतु नहीं सध पाएंगे। क्योंकि इस्लाम के लिए तो हमारे पड़ोस में तीन देश बन कर तैयर हो चुके हैं और वे इस्लाम की हिफाजत की न केवल वकालत कर रहे हैं अपितु उसी प्रकार का कृत्य भी कर रहे हैं, हालांकि इससे इस्लाम का कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है लेकिन उनका कुल अस्तित्व तो इस्लाम के आधुनिक व्याख्या पर ही टिकी हुई है। इसलिए भारत में सीएए की नीव नेहरू-लियाकत समझौते की असफलता में ही पड़ गयी थी। इसे और पहले लागू हो जाना चाहिए था। अगर यह लागू हो गया रहता तो हमारे पड़ोस के देश में रह रहे अल्पसंख्यकों को इतनी पड़ेसानी नहीं उठानी पड़ती।