गौतम चौधरी
कथा बहुत पुरानी नहीं है। एक तुर्क मुसलमान की शाहजादी ब्राह्मण सरदार पर आशक्त हो गयी थी। उसने उससे शादी भी कर ली लेकिन यह प्रेम कथा अधूरी ही रह गयी। आइए जानते हैं पूरी कहानी।
भारत में इस्लामिक शासन के दौरान शाहजादे या सुलतान हिंदू लड़कियों से निकाह करना अपना शौक समझते थे। कई बार इस प्रकार की शादियां जबरन भी की जाती थी लेकिन अपनी बेटियों की शादी हिंदुओं में नहीं करते थे। इस प्रकार की कथाओं से पूरा सल्तनत और मुगल काल अटा-पटा है लेकिन एक मुस्लिम शहजादी ने ब्राह्मण सरदार से शादी कर ली ऐसी घटना नहीं के बराबर है और यह कथा तो कुछ ऐसी है कि वह मुस्लिम शाहजादी जिसने हिंदू से शादी की ब्राह्मणों की कुलदेवी बन गयी।
भारत पर कब्जा कर सैकड़ों सालों तक राज करने वाले इस्लामिक हमलावरों का इतिहास अजब-गजब चीजों से भरा हुआ है.। इस कथा का क्लाइमेक्स यह है कि उस शाहजादी ने न केवल हिन्दू ब्राह्मण से शादी अपितु वह सती बन गयी।
बात 15वीं शताब्दी की है। उस वक्त आज के मध्य प्रदेश के धार जिले में नसीरुद्दीन खिलजी की मांडू सल्तनत का राज था। उसने मनावर क्षेत्र में तोजी यानी टैक्स वसूली का जिम्मा अपने वफादार गोविंदराम मंडलोई को सौंप रखा था। एक दिन की बात है, गोविंदराम मंडलोई बैलगाड़ी पर कर की रकम लेकर राजभवन जा रहे थे। तभी रास्ते में जंगलों में उन पर दो शेरों ने हमला कर दिया। गोविंदराम अपने साहस और पराक्रम के बल पर तलवार और भाले से अपने काफिले की रक्षा करते हुए दोनों शेरों को भगाने में कामयाब रहे। इसके बाद वे कर की रकम लेकर बादशाह नसीरुद्दीन खिलजी के दरबार पहुंचे।
उनकी बहादुरी का किस्सा जनश्रुति के रूप में सुल्तान नसीरुद्दीन और उनकी बेटी शहजादी जैतुन्निशा तक पहुंची। नसीरुद्दीन खिलजी गोविंदराम की वीरता पर बहुत खुश हुआ और उसने उसे दरबार में सम्मानित किया। इसके लिए एक समारोह का भी आयोजन किया गया। यह सम्मान समारोह देखने शहजादी जैतुन्निशा भी दरबार पहुंची। गोविंदराम को देखा तो वह उस पर मोहित हो गईं। उसने दासी के हाथों अपना प्रेम पत्र गोविंदराज को भिजवा दिया। नसीरुद्दीन को जब इसका पता चला तो वह खूब नाराज हुआ। भारत में मुस्लिम शासकों की एक खासियत यह भी था कि वे सत्ता को लेकर हर तरह के खून खराबे को देखते हुए दामाद के सल्तनत पर दावे के डर से अपनी बेटियों की शादी नहीं कराते थे, यदि करते भी थे तो अपने कुनवों में ही कर दिया करते थे।
उनसे बेटी को खूब समझाया कि गोविंदराम उनका एक छोटा सा मुलाजिम है। उसके साथ रिश्ते बढ़ाना ठीक नहीं है लेकिन जैतुन्निशा ने कुछ भी सुनने से इनकार कर दिया। हारकर खिलजी ने गोविंदराम को बुलाया और उसे सारी बात बताई। सुल्तान की मंशा समझते हुए गोविंदराम ने भी निकाह से इनकार करते हुए कहा कि वह उनकी बेटी को दरबार जैसी सुख-सुविधा नहीं दे सकेगा और दरबार में वह रहेगा नहीं लेकिन जैतुन्निशा ने कहा कि वह बिना सुख सुविधा के ही गोविन्द के साथ रह लेगी और अगर गोविंदराम से उसकी शादी नहीं हुई तो वह उसकी तलवार से विवाह कर लेगी और उसी को आजीवन पति मानकर रहेगी।
आखिरकार नसीरुद्दीन खिलजी को झुकना पड़ा। कथा है कि नसीरुद्दीन खिलजी ने उन दोनों का का विवाह करवा दिया। इस शादी के बाद जैतुन्निशा का नाम बेसरबाई रखा गया। हालांकि सुल्तान की शर्त की वजह से जैतुन्निशा को शादी के बाद भी राजमहल में ही रहना पड़ा। इस विवाह के कुछ ही दिनों बाद गोविंदराम वापस मनावर लौट गए। वहां पर सांप के काटने की वजह से उनकी मौत हो गई। चंूकि गोविन्दराम ने एक मुस्लिम कन्या से शादी कर ली थी इसलिए उन्हें अपने समाज से बाहर कर दिया गया। मृत्यु के बाद गोविन्द को दफना दिया गया।
अपने पति की मौत की सूचना जब बेसरबाई तक पहुंची तो वह घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ी और मनावर पहुंचने पर उसने हिंदू सुहागिनों की तरह 16 शृंगार किए। इसके बाद वह सती होने के लिए चल पड़ी। लोगों को जब मुस्लिम शहजादी के इस तरह सती होने के फैसले का पता चला तो वे हैरान रह गए। उन्होंने उसे रोकने की कोशिश की तो बेसरबाई ने उन्हें गोविंदराम मंडलोई से अपने गंधर्व विवाह के बारे में जानकारी दी।
इसके बाद बेसरबाई ने गोविंदराम की पगड़ी मांगी और मान नदी के किनारे पहुंची। कथा है कि वहां पर उस राजकन्या ने घनघोर तपस्या के उपरांत योग माया से आग जलाई और फिर उसमें सती हो गई।
एक कथा यह भी है कि मान नदी के किनारे तमोली जाति की एक महिला रहती थी। उसने चिता के लिए लकड़ी की व्यवस्था की थी। चिता जलाने वह आग लेकर आई, तो बेसरबाई ने मना कर दिया। कहते हैं कि उन्होंने अपनी योग अग्नि से चिता जलाई और सती हो गईं। कथा के अनुसार सती होने से पहले परिवार के लोग उनके पास पहुंचे, तो उन्होंने कुछ नियम-कायदे बताए। मंडलोई ब्राह्मण समाज में वह नियम कायदे आज भी देखने को मिलते हैं।
मंडलोई ब्राह्मण धार, इंदौर और खंडवा के आसपास रहते हैं। मनावर में श्री खेड़ापती हनुमान मंदिर में बेसरबाई का सती स्तंभ लगा है। मंडलोई समाज के घरों में कोई भी मांगलिक कार्य होता है, तो भोग बेसरबाई को ज़रूर लगाया जाता है।
इतिहास के महत्वपूर्ण घटनाक्रम, फैसले, उपलब्धि आदि को गैजेट के रूप में शाही छापेखाने से प्रकाशित किया जाता था। मुस्लिम शासन था, तो किसी ने बेसरबाई के इतिहास को लिखने की हिम्मत नहीं दिखाई। बाद में मनावर ग्वालियर के सिंधिया राजघराने के क्षेत्र में आया। तब सिंधिया राजघराने ने अपने गैजेट में बेसरबाई की कथा को भी स्थान दिया।
पांच सदियों से ज़्यादा गुजर गईं, लेकिन मंडलोई समाज के लोग बेसरबाई की हर सीख याद रखे हैं। बेसरबाई सती होने घोड़े पर आई थीं। उन्होंने कहा था कि समाज के पुरुष सिर्फ घोड़ी पर बैठेंगे। आज भी इसका पालन किया जाता है। नवरात्र की नवमी को लप्सी (गेहूं के आटे का हलुआ), पूड़ी का भोग लगता है। किसी भी मंगल कार्य में इष्टदेवी के रूप में निमंत्रण भी दिया जाता है।
इस घटना के बाद बेसरबाई मध्य प्रदेश के मंडलोई ब्राह्मणों की कुलदेवी बन गईं। इस समाज के लोग आज भी एमपी के खंडवा, इंदौर और धार आदि जिलों में रहते हैं. इन मंडलोई ब्राह्मणों के घरों में आज भी जब कोई मांगलिक कार्य होता है तो बेसरबाई को भोग जरूर लगाया जाता है।
(सोशल मीडिया से प्राप्त तथ्यों पर आधारित।)