अरविंद मिश्रा
महाभारत में एक प्रसंग है, सभी बड़े बड़े महारथियों के परास्त होने पर शल्य को दुर्याेधन महारथी मनोनीत करता है। रणभूमि की ओर बढ़ते शल्य को अपनी दिव्य दृष्टि से देखते हुये संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं कि महाराज ष्यह तो देखिये कि मनुष्य की आशा कितनी बलवती होती है कि अब शल्य भी महारथी बन कर पांडवों को जीतने चला है।ष् निहितार्थ यह कि बड़े बड़े हार चुके अब भला शल्य कौन पराक्रम दिखा देगा?
यह दृष्टांत मुझे अपने पूरे भारतीय अमला जामा के साथ ओलंपिक में जाने वाले खिलाड़ियों की उपलब्धियों को देखकर न चाहते हुये भी याद आ जाता है। इस बार 117 लोगों का भरा पूरा कांटिन्जेन्ट वहां गया। मेडल इस बार भी आधे दर्जन ही रहे। गोल्ड एक भी नहीं। बस एक सिल्वर और बाकी ब्रोंज। पहली बार ही नहीं, भारत का परफार्मेंस कभी भी उल्लेखनीय नहीं रहा है। हम बिना मेडल के भी लौटने का कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं। हां एक राष्ट्र के नाते हम इस कमतर उपलब्धि पर भी खुश हो लेते हैं। दिल को बहलाने को ग़ालिब खयाल अच्छा है। हम आशा की डोर पकड़ झूलते रहते हैं।
ऐसी सोच को कृपा कर नकारात्मक दृष्टिकोण न समझा जाय। केवल यह भर कहना है कि आखिर कब तक हम वैश्विक स्पर्धाओं में अपनी भद पिटवाते रहेंगे? हम तो एक भी मेडल पा जाने पर खुशी से झूम उठते हैं मगर तनिक उन देशों का भी तो देखिये जो दर्जनों गोल्ड और सिल्वर ले जाते हैं। वे हमारे बारे में क्या सोचते होंगे। अमेरिका, चीन और जापान झोली भर भर पदक ले जाते हैं और अपने देश को गौरवान्वित करते हैं। और हम हर ओलंपिक में अपनी भद पिटवा के लौटते हैं।
आखिर हम कुछ दिनों तक ओलंपिक खेल सन्यास (उवतंजवतपनउ) की नीति क्यों नहीं अपनाते? विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश को अब ऐसी क्या ललक बनी रहती है कि बिना उचित चयन, कठोर प्रशिक्षण के हर बार एक बड़ी टीम ओलंपिक में उतारते हैं और करोड़ों खेलप्रेमियों के आशा और विश्वास के साथ छल होता है।
कम से कम एक दशक तक बंद करिये हारे हुये गेम का यह मंजर। खिलाड़ियों को समुचित तैयारियों में जुटाईये। यहां अधिकाधिक बजट मुहैया कराईये। और जब तक ओलंपिक स्तर का हमारा परफार्मेंस न हो, टीमें एक दो दशक तक मत ही भेजिये। या तो बस उतने ही खिलाड़ी भेजिये जो असंदिग्ध रुप से अंतरराष्ट्रीय मानकों तक अथवा उनके भी ऊपर निरंतर परफार्म करके दिखा चुके हों।
हमारी चयन से लेकर प्रशिक्षण और परफार्मेंस मानकों तक की सारी प्रक्रिया और उपलब्धि असंतोषजनक रहती है। बस इक्के दुक्के खिलाड़ियों के बल पर कई करोड़ रुपये स्वाहा कर हम सैंकड़ो लोगों को बस नाकामी और बेबसी लाने को भेजते हैं। इस पूरी प्रक्रिया की गंभीर स्क्रीनिंग और रिव्यू बेहद आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय खेल की दुनिया में भारत की यह भेड़ चाल हताश करती है। जगहसाई का बायस बनती है।
राजनीति एक अलग अमरबेल है जो हमारे संभावनाशील खिलाड़ियों की क्षमताओं को चूसती रहती है और जो डिजर्व करते हैं वे हाशिये पर खिसकते जाते हैं। भारत में संभावनाशील खिलाडिय़ों की कमी नहीं है। गावों बस्तियों तक में टैलेंट बिखरे पड़े हैं। राजनीतिक कुचक्र के भंवर में वे प्रतिभाएं डूब जाती हैं। उन्हें पहचान नहीं मिल पाती। वे गुमनामी में दम तोड़ देती हैं। खामी हमारे सिस्टम में है। और दुखद यह है कि एक दशक की मोदी सरकार भी हमारे खेल परिदृश्य को इस घटाटोप से उबार नहीं पाई है। शब्दाडंबर से कमियों को छुपाना निरर्थक ही नहीं काउन्टर प्रोडक्टिव भी है।
कभी अमेरिका क्रिकेट नहीं खेलता था और न कुछ यूरोपीय देश हाकी में उतरे थे। चीन भी कुछ प्रतिस्पर्धाओं से दूर रहता था। आखिर किसलिये? वे हमारे जैसे किसी मुगालते में नहीं रहते थे। वे अपनी किरकिरी नहीं कराना चाहते थे। तैयारियों में लगे रहे, रणनीति बनाते रहे और उपयुक्त समय का इंतजार किया। पाई समय जिमि सुकृति सुहाये। और फिर जब वे मैदान में उतरे तो गैर देशों के प्रतिस्पर्धियों पर कहर ढ़ा दिया, सारा शो और सोना लूट लिये। मैंने देखा अमेरिका अब क्रिकेट भी खेल रहा है और चीन हाकी और उनकी परफार्मेंस भी शानदार है। इनसे हम सबक क्यों नहीं ले सकते।
हमारी तो यही अपील है कि भारत 2036 तक ओलंपिक खेल सन्यास ले और इस एक दशकीय अवधि में अपनी सारी चयन प्रक्रिया को दुरुस्त करे, खेलों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करे, टैलेंट हंट करे और हमारे खिलाड़ी जी तोड़ मेहनत करके अपने परफार्मेंस को अब सहज ही उपलब्ध ओलंपिक आंकड़ों /मानकों के ऊपर पहुचायें। और जब अगले ओलंपिक का बकौल हमारे प्रधानमंत्री के, भारत मेजबानी करे तो हमारे खिलाड़ी छा जांय और अपना जज्बा दिखा दें।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)