राजेश कुमार पासी
मुख्तार अंसारी की मौत के बाद जिस तरह से विपक्ष के कई नेताओं ने उसका गुणगान किया है और उसको एक मसीहा बनाने की कोशिश की है, उसका समाज में कोई अच्छा असर होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उसे गरीबों, दलितों, पिछड़ों और मुस्लिमों का मसीहा बताया जा रहा है। उसके बारे में बहुत सी कहानियां सोशल मीडिया में चलाई जा रही हैं। सिर्फ सोशल मीडिया ही नहीं, मुख्यधारा का मीडिया भी उसकी कहानियां सुना रहा है। बताया जा रहा है कि किस तरह से वो गरीब बेटियों की शादी करवाता था, गरीब बच्चों को पढ़ने में मदद करता था, गरीबों के घर बनवाता था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इनमें से कई कहानियां सच्ची भी होंगी लेकिन झूठी कहानियां ज्यादा होंगी । जो व्यक्ति लंबे समय तक राजनीति में रहा और जिसका राजनीतिक प्रभाव भी अच्छा था, उसने अगर सैकड़ों लोगों की मदद की है तो कोई अचंभा नहीं होना चाहिए। राजनीतिक प्रभाव के चलते उसने बहुत से लोगों की मदद सरकारी राजस्व से की होगी लेकिन जनता ने उसे भी उसकी निजी मदद समझा होगा। नेताओं ने सत्ता पाने के लिए उसका इस्तेमाल किया होगा, इसलिए आज उसकी मौत पर सब मातम मना रहे हैं।
वास्तव में उसकी मौत को सरकार की साजिश बताकर मुस्लिम समाज को अपने पाले में खींचने की कोशिश हो रही है। जिन राजनीतिक दलों ने उसकी मौत पर सवाल उठाया है, उन्होंने ही उसे राजनीति का खिलाड़ी बनाया था। उसने कई दलों के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और जीता था। उसने आजाद उम्मीदवार के रूप में भी जीतकर दिखाया था कि वो बिना किसी की मदद के भी जीत सकता है। ऐसा नहीं हो सकता कि वो सिर्फ डर के सहारे ही चुनाव जीतता रहा हो, उसने जनता के लिए भी कुछ काम किये होंगे। वास्तव में बाहुबलि नेता सामान्य नेताओं से ज्यादा काम करते हैं क्योंकि वो अपने अपराधों को अपने अच्छे कामों से दबाना चाहते हैं। वो ज्यादा काम इसलिए भी कर पाते हैं क्योंकि प्रशासनिक अधिकारियों में उनका एक भय होता है। देखा जाये तो उसके जनाजे में हजारों लोगों की भीड़ जुटने पर अचंभा नहीं होना चाहिए। उसके जनाजे में आये मुस्लिम समाज के लोगों में सरकार के प्रति गुस्सा भी देखने को मिला है क्योंकि उन्हें लगता है कि सरकार ने ही जेल में उसको मरवा दिया है।
ये कितना अजीब है कि हमारे देश में एक आपराधिक रिकार्ड वाला व्यक्ति चपरासी तक की नौकरी हासिल नहीं कर सकता लेकिन बड़े-बड़े अपराध करने वाला व्यक्ति सांसद और विधायक बन सकता है। कानून को तोड़ने वाला उस सदन का सदस्य बन सकता है, जहां कानून बनाये जाते हैं। कानून तोड़ने वाला ही कानून को लागू करने वाली कुर्सी पर बैठ सकता है। अपने आतंक और पैसे के बल पर अपराधी किस्म के लोग राजनीति में जगह बना लेते हैं, उनमें से ही एक नाम मुख्तार अंसारी का भी है। राजनीतिक दल भी एक जिताऊ उम्मीदवार की खोज में सारे सिद्धांत भूलकर उसे टिकट थमा देते हैं क्योंकि उन्हें उनकी जीत की गारंटी का पता होता है। ऐसे अपराधियों के बारे में जब इन दलों से सवाल पूछे जाते हैं तो उनका यही कहना होता है कि अभी मामला अदालत में चल रहा है, आरोप साबित नहीं हुए हैं। कई बार तो ऐसे आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताकर भी पल्ला झाड़ लिया जाता है। जनता भी ऐसे नेताओं को चुनते हुए उनके आपराधिक रिकार्ड पर ध्यान नहीं देती है। जनता को सिर्फ इससे मतलब होता है कि नेता उनका काम करवाता है या नहीं। उम्मीदवार की जाति और धर्म भी इसमें अहम रोल अदा करते हैं।
अंसारी के जनाजे में आये मुस्लिम युवकों में ज्यादा गुस्सा देखने को मिल रहा था क्योंकि उन्हें लग रहा है कि मुस्लिम होने के कारण अंसारी को सजा भुगतनी पड़ी है। योगी की हिन्दू हितेषी छवि होने के कारण उनको लगता है कि सरकार ने उसे जेल में मार दिया है। यह ठीक है कि जेल में अपराधी की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है लेकिन अपराधी की प्राकृतिक मौत को सरकार नहीं रोक सकती। वो पहले से ही बीमार चल रहा था, अगर उसे दिल का दौरा पड़ गया तो इतना हल्ला क्यों मचाया जा रहा है। उसकी मौत की जांच चल रही है और पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी उसकी मौत का कारण दिल का दौरा पड़ना ही बताया गया है। हमारे देश में आरोप लगाने वाले ही फैसला सुनाने लगे हैं। जिन लोगों ने उसको जहर देने के आरोप लगाया है, वो ये मान चुके हैं कि जो उन्होंने कहा है, वही सच है। उनको अपनी बात सच साबित करने के लिए किसी तर्क और तथ्य की जरूरत नहीं है।
भारतीय राजनीति में लम्बे समय से देखा जा रहा है कि अपराधी राजनीति में आने के बाद यह सोचने लगते हैं कि वो कुछ भी करें, कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। राजनीति में आने के बाद ऐसे लोग अपनी लूट-खसूट से हजारों करोड़ रुपये का साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं। रंगदारी, लोगों की जमीनों पर कब्जा करना, अपहरण और सरकारी ठेकों में धांधली जैसे कामों से ये अपना साम्राज्य खड़ा कर लेते हैं। माफिया शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, शाहजहां शेख और विकास दूबे जैसे लोग इसका बड़ा उदाहरण हैं। अपने पैसों की मदद से ये लोग जनता में एक बड़ा वर्ग तैयार कर लेते हैं, जो इनके कहने पर मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। जनता में एक बड़ा वर्ग इनको अपना मसीहा मानने लगता है। राजनीतिक दलों को ये अपराधी दोहरा लाभ पहुंचाते हैं, ये एक जिताऊ उम्मीदवार होते हैं और पार्टी फंड को मजबूत करते हैं। इसके अलावा कई दूसरे काम भी करते हैं।
इनसे कोई नहीं पूछता कि बिना कोई व्यापार किए उनके पास कैसे हजारों करोड़ की संपत्ति आ जाती है। वैसे वो नेता इनसे कैसे पूछे जो खुद भी बिना किसी व्यापार के हजारों करोड़ के स्वामी बन गये हैं। वैसे मुस्लिम माफिया के उभरने के पीछे मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति भी जिम्मेदार है। शहाबुद्दीन, अंसारी और अतीक अहमद मुस्लिमों के बड़े नेता माने जाते हैं। उनकी मौत पर मुस्लिम समाज की सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया से यह समझा जा सकता है। ये कितने ही बड़े अपराध कर लें लेकिन जब इनके खिलाफ कार्यवाही की जाती है तो राजनीतिक दल इसे मुस्लिम विरोधी कार्यवाही कहते हैं। यह कहा जाता है कि मुस्लिम होने के कारण उनके खिलाफ कार्यवाही हो रही है। दर्जनों हत्याओं, डकैती, फिरौती, गैर कानूनी कब्जों, बलात्कारों और दंगों के बाद भी मुस्लिम बाहुबलि मुस्लिम समाज के मसीहा बने रहते हैं।
बुरहान वानी के जनाजे में हजारों लोगों की भीड़ आई जबकि वो एक घोषित आतंकवादी था। याकूब मैनन को बचाने के लिए कुछ लोग रात को सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये थे और आधी रात में सुप्रीम कोर्ट ने उसके केस की सुनवाई की। उसके जनाजे में भी हजारों की भीड़ जुटी थी। ऐसे ही अंसारी के जनाजे में भी हजारों की भीड़ जुटने पर अचंभा नहीं होना चाहिए। विडम्बना तो यह है कि बदायूं कांड में दो मासूम बच्चों के हत्यारे के जनाजे में भी हजारों की भीड़ आ गई थी। ये सवाल उठता है कि दो निर्दोष मासूम बच्चों की निर्दयतापूर्ण तरीके से हत्या करने वाला जानवर कैसे मुस्लिमों का मसीहा बन जाता है? इसका जवाब मुस्लिम समाज को देना चाहिए कि ऐसे लोगों के साथ खड़ा होकर वो क्या संदेश देना चाहता है? क्या किसी ने सोचा है कि ऐसी हरकतों से हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा कहां जायेगा?
2008 में अंसारी के लोगों ने योगी आदित्यनाथ को मारने की कोशिश की थी, उनकी गाड़ी पर अंधाधुंध गोलीबारी की गई। उन्होंने रास्ते में गाड़ी बदल ली थी, इसलिए बच गये। कांग्रेस नेता अजय राय के भाई की हत्या भी अंसारी के नाम पर है लेकिन आज कांग्रेस की नीति के कारण अजय राय उसके समर्थन में खड़े नजर आ रहे हैं। भारतीय संस्कृति में कहा जाता है कि मरने वाले की बुराई नहीं करते लेकिन एक दुर्दांत अपराधी के पापों को भुलाया नहीं जा सकता। यह कहा जा रहा है कि सिर्फ न्याय होना जरूरी नहीं है बल्कि न्याय होता दिखना भी चाहिए। बात तो सही है लेकिन कोई कुछ देखना न चाहे तो उसे न्याय कैसे दिखाया जा सकता है। अंसारी पर 65 से ज्यादा मुकदमे चल रहे थे और 8 केसों की सुनवाई के कारण उसे जेल में डाला गया था। वो जब तक जिंदा रहता, उसे जेल में ही रहना पड़ता।
योगी सरकार के शासन में मुख्तार अंसारी को जेल में वो सुविधा नहीं मिली, जो मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की सरकार में मिला करती थी। अगर वो सुविधायें मिलती तो शायद आज भी अंसारी जिंदा होता क्योंकि वो ये बर्दाश्त नहीं कर पाया कि कभी यूपी की राजनीति का बड़ा चेहरा होने के बावजूद उसे साधारण कैदी का जीवन जीना पड़ रहा था। जेल में अपने लिए स्विमिंग पूल बनवाने वाला कैसे यह बर्दाश्त कर सकता था। वो जेल में अपना दरबार लगाता था, जिसमें बड़े-बड़े अफसर और नेता अपनी हाजिरी लगाते थे । योगी सरकार में यह सब संभव नहीं था। अगर इस नजरिये से देखा जाये तो योगी सरकार उसकी मौत की जिम्मेदार हैं क्योंकि उसने उसे यह सब सुविधाएं प्रदान नहीं की। यही कारण है कि कुछ लोगों को धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र खतरे में नजर आ रहा है। अब सवाल यह उठता है कि योगी सरकार क्या संदेश समाज को दे रही है और विपक्षी दल समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं, इस पर विचार करने की जरूरत है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)