डॉ. मिथिलेश
झारखंड में विश्वविद्यालयी शिक्षा-व्यवस्था का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है लेकिन इसकी बदहाली की कहानी नयी है। राज्य में अभी राज्य संपोषित सात विश्वविद्यालय-राँची, विनोबा भावे, सिदो-कान्हू, नीलांबर-पीतांबर, कोल्हानख् बिनोद बिहारी कोयलांचल और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय संचालित हैं तथा जमशेदपुर वीमेंस यूनिवर्सिटी कुलपति एवं अन्य अधिकारियों की नियुक्ति की बाट जोह रहा है। 1960 से लेकर 2021 तक सात-आठ राज्य विश्वविद्यालय बनने में 61 वर्षों का समय लग गया लेकिन निजी विश्वविद्यालयों की संख्या पिछले मात्र दस वर्षों में ही दो दर्जन के करीब हो गई है जो धड़ल्ले से डिग्री बेच रहे हैं। इस दरम्यान एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, रक्षाशक्ति विश्वविद्यालय, टेक्निकल यूनिवर्सिटी भी इस राज्य को मिले हैं। आई आई एम की भी स्थापना हुई है, पर आई आई टी अब भी दूर की कौड़ी बना हुआ है।
जो संस्थान हमारे राज्य द्वारा चलाये जा रहे हैं, उनकी दशा किसी से छुपी नहीं है। इनके साथ जो बात घटित होती है, वह ये कि कुछ की गलतियों की सजा पीढ़ियाँ भुगत रही हैं। राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद् (नैक) के एक निष्कर्ष के मुताबिक भारत के 90 प्रतिशत कॉलेज और 70 प्रतिशत विश्वविद्यालय मानकों पर खरे ही नहीं उतरते। स्तरहीनता की यह स्थिति आधारभूत ढाँचे में तो है ही, उससे ज्यादा अकादमिक मामलों में है। झारखंड की स्थिति और भी चिंताजनक है। ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों के कई ऐसे कॉलेज हैं जो न्यूनतम मानकों के आसपास भी नहीं ठहरते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान दिलाना और जरूरी लगता है कि बीते दो-तीन दशकों में कस्बों और छोटे शहरों के कॉलेजों में नामांकन का अनुपात तेजी से बढ़ा है। जितने विद्यार्थी पढ़ने की आकांक्षा लिये आ रहे हैं, उन सबको नामांकित कर पाना मुश्किल हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ बिना शिक्षक-कर्मचारी के कुछ इलाकों में मॉडल व महिला कॉलेज खोल दिये गये हैं। सार्वजनिक कोष से बड़ी राशि खर्च करते हुए इन कॉलेजों के विशाल भवन तो बना दिये गये हैं, लेकिन प्राचार्य से लेकर शिक्षक व कर्मचारियों की राह ये संस्थान अब भी देख रहे हैं।
हाँ उन विशाल भवनों के गेट पर निजी सुरक्षा एजेंसी के दो-चार गार्ड अवश्य तैनात हैं, जो इस बात की गवाही दे रहे हैं कि भवन ही ‘शिक्षा-दान’ के लिए पर्याप्त नहीं हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर अमल किया गया है, लेकिन हम इसके लिए कितने तैयार हैं?
झारखंड के विश्वविद्यालय व कॉलेज शिक्षकों व कर्मचारियों के अभाव से तो जूझ ही रहे हैं, यहां जिस शिक्षा-पद्धति को अंगीकार किया गया है, उसने विद्यार्थियों को भी शिक्षण-संस्थानों से दूर कर दिया है। स्नातक तथा स्नातकोत्तर स्तर पर च्वाइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम (सी बी सी एस) को आनन-फानन में जिस तरह बिना सोचे-समझे लागू किया गया उसका बड़ा ही प्रतिकूल असर यहाँ की उच्च शिक्षा पर पड़ा है।
सीबीसीएस पद्धति लागू करने के पहले छुट्टियों व अवकाशों को री शेड्यूल करने की जरूरत थी, जिस पर ध्यान ही नहीं दिया गया। ग्रामीण क्षेत्रों के कॉलेज अब ‘फुसलावन’ कॉलेज में तब्दील हो गये हैं, जहां नामांकन और परीक्षा-दो ही काम महत्त्वपूर्ण रह गये हैं। यों शहरी क्षेत्र के कॉलेजों की स्थिति को भी ठीक कहना अत्यंत कठिन है। उच्च शिक्षा की स्थिति को चिंतनीय बनाने में नीति और नीयत तालमेल का अभाव उत्तरदायी है।
सरकारी महकमे का ध्यान सकल नामांकन अनुपात (GER) बढ़ाने पर ही केन्द्रित है। झारखंड सरकार की घोषणा के मुताबिक जीईआर को 2022 तक 32 प्रतिशत तक ले जाने की योजना है। जीईआर बढ़ाने की कवायद अच्छी है, लेकिन सिर्फ नामांकन ले लेने से ही कर्त्तव्य पूरे हो जाएंगे और क्या हम सक्षम तथा कौशलयुक्त मानव संसाधन बना सकेंगेǃ क्वालिटी को उन्नत बनाने पर हमारा जोर कब होगा, इस पर अमल करने की जवाबदेही किसकी है? शर्तीया तौर पर सरकार की ही बनती है।
मौजूदा समय में शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात जबर्दस्त असंतुलन में है। 1ः25 आदर्श शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात के मुकाबले कई विषयों में यह पाँच सौ से हजार विद्यार्थियों पर एक का है। कुछ विषय ऐसे हैं, जिनमें विद्यार्थी कम नामांकित होते हैं, बावजूद इसके उनमें भी शिक्षक-विद्यार्थी का अनुपात संतुलित नहीं है। कई विषयों में शिक्षक ही नहीं हैं, बावजूद इसके हम डिग्री दिये जा रहे हैं।
अभी भी शिक्षकों के मंजूर पदों के आलोक में ही संविदा पर बहाली का विचार चल रहा है, जबकि विद्यार्थियों की बढ़ी संख्या के मद्देनजर शिक्षकों के स्वीकृत पदों की संख्या पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। 1992 में स्थापित विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग में स्नातकोत्तर विभाग बिना स्वीकृत पदों के ही अब तक चल रहे हैं। इसी क्रम में इस दुर्भाग्यपूर्ण सत्य से भी आंख बंद करना मुनासिब नहीं होगा कि जो शिक्षक कार्यरत हैं, उनमें से कइयों की योग्यता व क्षमता भी संदिग्ध है। एक पूर्व कुलपति ने कहा था कि 80 प्रतिशत शिक्षकों की गुणवत्ता संदिग्ध है। जो कुछ ठीक हैं, उनकी प्रोन्नति समेत अन्य मामलों में सरकार जिस बेतकल्लुफी का परिचय देती रही है उसका विसंगतियों को बढ़ाने में अहम योगदान है।
बात थोड़ी-सी प्रशासनिक नियुक्तियों की करें तो यहां भी नीति नीयत की फांक साफ नजर आती है। कुलपति व प्रतिकुलपतियों की नियुक्ति पर ही गौर करें। तीन साल के लिए कुलपति नियुक्त होते हैं। इनमें से ज्यादातर जब आते हैं तो उनका प्रशासनिक अनुभव लगभग शून्य होता है और जब तक वे अनुभवी होते हैं, तब तक उनकी हटने की ही बारी आ जाती है।
दोबारा उन्हें मौका नहीं दिया जाता, इसका असर विश्वविद्यालय की संपूर्ण व्यवस्था पर पड़ता है। यूजीसी ने पांच वर्षों के लिए कुलपतियों की नियुक्ति का प्रावधान किया लेकिन झारखंड में उसे स्वीकार नहीं किया गया है। झारखंड को उच्च शिक्षा के अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर स्थापित हम देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि इसके सभी स्टेकहोल्डर गहन आत्मावलोकन के साथ आगे कदम बढ़ायें।
(लेखक रामगढ़ कॉलेज में प्राचार्य हैं। लेखक के विचार निजी हैं। इनके विचार से जनलेख प्रबंधन का कोई लेना-देना नहीं है।)