बलदेव शर्मा
इस मानसून में जिस तरह की तबाही पूरे हिमाचल प्रदेश में देखने को मिली है, उससे कुछ ऐसे बुनियादी सवाल उठ खड़े हुये हैं जिन्हें भविष्य को सामने रखते हुए नजरअंदाज करना संभव नहीं होगा। यह तबाही प्रदेश के हर जिले में हुई है और इसके बाद प्रदेश को लेकर अब तक हुये सारे भूगर्भीय अध्ययन भी चर्चा में आ खड़े हुये हैं।
इन सारे अध्ययनों में यह कहा गया है की पूरा प्रदेश भूकंप क्षेत्र में आता है। एक वर्ष में ऊना को छोड़कर अन्य सभी जिलों में हुये 87 भूकंपों का आंकड़ा सामने आ चुका है। इन भूकंपो से भूस्खलन, पहाड़ों में लैंडस्लाइड, बाढ़ आदि होना यह अध्ययनों में आ चुका है। इसका कारण पहाड़ों में बनी जल विद्युत परियोजनाओं और यहां बनाई गई सड़कों को कहा गया है। इन जल विद्युत परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण से पर्यटन का विकास हुआ। यह सारा विकास पिछले तीन दशकों की जमा पूंजी है। इस सारे विकास से जो आर्थिक लाभ प्रदेश को पहुंचा है उसी का परिणाम है प्रदेश पर खड़ा एक लाख करोड़ के करीब का कर्ज और इतना ही इसके लिये दिया गया उपदान। लेकिन इतनी कीमत चुकाकर खड़ा किया गया यह विकास कितनी देर टिक पायेगा।
1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के रिज और लक्कड़ बाजार क्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। आज तक रिज अपने पुराने मूल रूप में नहीं आ सका है। हर वर्ष रिज के जख्म हरे हो जाते हैं। इसी विनाश के कारण 1979 में यह माना गया कि प्रदेश के सुनियोजित विकास के लिए नगर एवं ग्रामीण नियोजन विभाग चाहिए और परिणामतयः टीसीपी विभाग का गठन हुआ। प्रदेश के नगरीय और ग्रामीण विकास के लिये एक स्थाई विकास योजना तैयार करने की जिम्मेदारी इस विभाग की थी। लेकिन राजनीति के चलते यह विभाग ग्रामीण क्षेत्र तो दूर शहरों के लिये भी कोई स्थाई योजना नहीं बना पाया है।
राजधानी नगर शिमला के लिये ऐसी स्थाई योजना की एकदम आवश्यकता थी लेकिन 1979 में जो अंतरिम योजना जारी हुई उसमें भी एन.जी.टी. का फैसला आने तक 9 बार रिटैन्शन पॉलिसीयां जारी हुई और हर पॉलिसी में अवैधता का अनुमोदन किया। यहां तक की एन.जी.टी. का फैसला आने के बाद भी हजारों अवैध निर्माण खड़े हो गये। सरकार स्वयं फैसले के उल्लंघनकर्ताओं में शामिल है। शायद सरकार के किसी भी निर्माण का नक्शा कहीं से भी पारित नहीं है। जबकि टी.सी.पी. नियमों के अनुसार हर सरकारी भवन का नक्शा पास होना आवश्यक है।
राजधानी नगर शिमला के कई हिस्से स्लाइडिंग और सिंकिंग जोन घोषित हैं। इनमें कायदे से कोई निर्माण नहीं होना चाहिए था। लेकिन यहां निर्माण हुए हैं। पहाड़ में 35 डिग्री से ज्यादा के ढलान पर निर्माण नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकारी निर्माण भी हुये हैं। जब सरकारी भवन ही कई-कई मंजिलों के बन गये तो प्राइवेट सैक्टर को कैसे रोका जा सकता था। ऐसे बहुमंजिला भवनों की एक लंबी सूची विधानसभा के पटल पर भी आ चुकी है लेकिन वह रिकार्ड का हिस्सा बनकर ही रह गई है। आज शिमला में जो तबाही हुई है उसका एक मात्र कारण निर्माण की अवैधताएं हैं जिन्हें रोक पाना शायद किसी भी सरकार के बस में नहीं रह गया है।
सुक्खू सरकार ने भी इसी दबाव में आकर ऐटिक और बेसमैन्ट का फैसला लिया है। जब सरकार के अपने भवन ही असुरक्षित होने लग जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिमला कितना सुरक्षित रह गया है। इस विनाश के बाद शिमला की सुरक्षा को लेकर हर मंच पर सवाल उठ रहे हैं। पिछले चार दशको में हुए शिमला के विकास ने आज जहां लाकर खड़ा कर दिया है उसके बाद यह सामान्य सवाल उठने लग गया है कि भविष्य को सामने रखते अब राजधानी को शिमला से किसी दूसरे स्थान पर ले जाने पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। एन.जी.टी. ने कुछ कार्यालय शिमला से बाहर ले जाने के निर्देश दिए हुए हैं। लेकिन अब कार्यालयों की जगह राजधानी को ही शिफ्ट करने पर विचार किया जाना चाहिए।
(यह आलेख शैल समाचार से प्राप्त किया गया है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)