लेखक : डॉक्टर यामीन अंसारी
अनुवाद : रज़ीउद्दीन अक़ील
यूपी में भाजपा और मुख्यमंत्री की कुर्सी को बचाने के लिए कांवड़ यात्रा का सहारा लेकर एक तीर से कई निशाने लगाने की कोशिश की गई है।
आज़ादी की तहरीक के समय की एक घटना पत्रकार कृष्णकांत ने नक़ल किया है कि ‘स्वतंत्रता सेनानियों को दिल्ली के लाल क़िले में क़ैद किया गया। यहीं उनके विरुद्ध मुक़दमा चलने वाला था। उनमें आज़ाद हिन्द फ़ौज के कैप्टन प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लों, और मेजर जेनरल शाहनवाज़ खान समेत कई स्वतंत्रता सेनानी शामिल थे। एक दिन महात्मा गाँधी उनसे मुलाकात करने लाल क़िला गए। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाहियों ने गाँधी जी से कहारू यहाँ सुबह-सुबह आवाज लगाई जाती है कि हिंदू चाय तैयार है, मुस्लिम चाय आएगी। उन्होंने बताया कि यह लोग हर सुबह हमें बाँट देते हैं, हालांकि हमारी ऐसी कोई मंशा नहीं, हमारे बीच कोई झगड़ा नहीं, फिर भी फिरंगी हुकूमत ने हुक्म दिया है कि हिंदू चाय अलग और मुसलमानों की चाय अलग बनाई जाए। गाँधी जी ने उनसे पूछारू फिर तुम क्या करते हो? स्वतंत्रता सेनानियों ने कहा हमने अपने पास एक बड़ा बर्तन रखा है, उसमें हिंदू चाय और मुसलमान चाय को मिला देते हैं और फिर मिलजुल कर पी लेते हैं।’ आज सत्ता की हवस और नफरत ने एक बार फिर हिंदुस्तान को उसी दौर में पहुँचा दिया है। लेकिन नफरत और विभाजन की इस राजनीति के खिलाफ पहले भी लोग आवाज बुलंद करते थे, आज भी ऐसी कोशिशों को नाकाम बनाने वाले मौजूद हैं और वह खामोश भी नहीं हैं। उनकी रगों में हिन्दुस्तानियत है, वतन से मुहब्बत है।
फिरंगियों ने जाते-जाते हिंदुस्तान में सांप्रदायिकता का जो पौधा लगाया था, उसको विभिन्न शक्तियों ने समय-समय पर सींचा है। फिरंगी हुकूमत ने भले ही हिंदू चाय और मुस्लिम चाय तैयार करवाई हो, लेकिन मुल्क की बहुसंख्यक आबादी ने हमेशा इस चाय को मिलाकर ही पिया है। मुल्क के दूर-दराज के इलाकों में आज भी चाय-खानों में बनने वाली चाय न हिंदू चाय होती है और न मुस्लिम चाय। सब मिलजुल कर पीते हैं और एक दूसरे से अपने सुख-दुःख साझा करते हैं, चाय को मजहब में तकसीम नहीं करते, लेकिन इसके बावजूद कुछ ताकतें फिरंगियों की पैरवी करती नजर आती हैं। मसला उस वक्त पैदा होता है जब उच्च पदों पर बैठे लोग नफरत को बढ़ावा देते हैं, दिलों में रंजिश पैदा करते हैं, सांप्रदायिकता को हवा देते हैं, लोगों के खाने-पीने पर पहरा लगाते हैं, कौन किससे से क्या खरीदे और क्या नहीं इसका फैसला करने लगते हैं, चाय हिंदू की है या मुसलमान की? तब समझ लेना चाहिए कि कम से कम वह देश, समाज और जनता के हमदर्द और शुभ-चिंतक तो बिलकुल नहीं हो सकते। उन्हें न तो देश के संविधान और न ही इस मुल्क के सभ्य परम्पराओं का लिहाज है। देश का संविधान तो इस बात की मनाही करता है कि धर्म या जात-पात की बुनियाद पर समाज में भेदभाव पैदा की जाए। लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे लोग इस तरह का हुक्म सादिर करते हैं तो वह निश्चित तौर पर कानून की अवहेलना करते हैं और समाज में छुआछूत को बढ़ावा देते हैं।
उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार के हालिया कदमों को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। सावन के महीने में निकलने वाली कांवड़ यात्रा कोई नई धार्मिक प्रथा नहीं है। हालांकि अब से कुछ साल पहले तक यह यात्रा अपनी जगह विशेष पर निकल कर समाप्त हो जाती थी, देश के अधिकतर लोगों को इसके बारे में कुछ पता भी नहीं होता। जब से नफरत की सियासत को बढ़ावा मिला, सियासत में धर्म को मिश्रित किया गया और धार्मिक रीति-रिवाज के प्रदर्शन में इजाफा हुआ, उसके बाद से काँवड़ यात्रा को भी सियासत ने अपने चंगुल में ले लिया। नतीजा यह हुआ कि एक वर्ग को खुश करने के लिए एक शुद्ध धार्मिक यात्रा को नफरत और समाज में विभाजन का हथियार बना दिया गया। पिछले कुछ वर्षों में कांवड़ यात्रा विभिन्न विवादों के कारण सुखिऱ्यों में रही है। कभी इस यात्रा में आपराधिक तत्त्वों के शामिल होने के कारण, कभी हंगामे और उपद्रव के सबब, कभी मुख्य मार्गों को बंद करने और कभी कांवड़ियों के द्वारा प्रतिबंधित पदार्थ के इस्तेमाल के वीडियो वॉयरल होने के कारण। इस साल उत्तर प्रदेश सरकार और पुलिस प्रशासन के फैसलों की वजह से कांवड़ यात्रा विवाद की शिकार है। कांवड़ यात्रा के हवाले से पहले मुजफ्फरनगर पुलिस की तरफ से हुक्म आया कि इस यात्रा के रास्तों पर पड़ने वाले तमाम दुकानदार, ढाबों के मालिक, फल और सब्जी बेचने वाले अपनी दुकानों पर नामों की तख्ती लगाएं, जिससे उनकी शिनाख्त या पहचान जाहिर हो जाए। इस फैसले पर विभिन्न प्लेटफॉर्म पर बहस-मुबाहिसे जारी ही थे कि आदित्यनाथ सरकार ने पूरे उत्तर प्रदेश में कांवड़ यात्रा के रास्तों पर खाने-पीने की दुकानों व ढाबों पर मालिक के नाम का बोर्ड लगाने का हुक्म दे दिया। सरकार ने साफ हिदायत दी हैं कि राज्य में कांवड़ के रास्तों पर स्थित खाने-पीने की दुकानों पर मालिक का नाम या उसकी पहचान लिखना अनिवार्य है। यूपी सरकार के अनुसार यह फैसला कांवड़ यात्रियों के आस्था की पवित्रता को बरकरार रखने के लिए लिया गया है। यह भी कहा गया है कि हलाल सर्टिफिकेट के अंतर्गत बनाई गयी किसी चीज की बिक्री करने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई की जायगी। यूपी सरकार के इस फैसले पर मजबूरी में ही सही, भाजपा की सहयोगी पार्टियों ने भी एतराज जाहिर किया है।
अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ की छवि पहले ही एक कठोर राजनीतिज्ञ की रही है। उन्होंने सत्ता में आने के बाद अपने कई फैसलों से इसे साबित भी किया है। सत्ता में आने से पहले और बाद में उनके वक्तव्य भी इस बात की गवाही देते हैं कि उनकी राजनीति मुस्लिम दुश्मनी पर केंद्रित है। उन्होंने हर वह फैसला किया जिससे मुसलमानों के दिलों को ठेस पहुंचे और हिन्दुओं का एक वर्ग उनसे खुश हो। उनके बयानों और फैसलों से निश्चित तौर पर देश के संविधान और सेकुलर किरदार को नुकसान पहुँचता है। कांवड़ यात्रा के संबंध में भी उनके फैसले पर सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि योगी हुकूमत का हुक्मनामा कानून की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। संसद सदस्य असदुद्दीन ओवैसी ने योगी आदित्यनाथ को निशाना बनाते हुए कहा है कि उनमें हिटलर की रूह आ गई है। उन्होंने कहा कि हम इस आदेश की भर्त्सना करते हैं, क्योंकि यह भारतीय संविधान की दफा 21 (जीने का अधिकार) और दफा 19 (आजीविका का अधिकार) की अवहेलना है, जो छुआछूत को रोकती है। जबकि उत्तर प्रदेश की सरकार छुआछूत को बढ़ावा दे रही है। आदित्यनाथ सरकार के इस फैसले के कई कारण हो सकते हैं। उनकी कठोर राजनीतिज्ञ की छवि तो अपनी जगह है, लेकिन इस वक्त वह कई मोर्चों पर मुश्किलों से दो चार हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन के बाद उन पर दबाव बढ़ गया है। यहाँ तक कि उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हिचकोले खाने लगी है। उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र तक पार्टी और सरकारी सतह पर उनके विरोधी शिद्दत के साथ सरगर्म हैं। ऐसा माना जा रहा है कि यूपी के उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और कुछ दूसरे भाजपा नेताओं ने योगी को मुख्यमंत्री के पद से हटाने की मुहिम छेड़ दी है। संसदीय चुनाव में यूपी में भाजपा का प्रदर्शन सबसे ज्यादा खराब रहा। हालांकि चुनावों में यूपी की कमान अमित शाह के हाथ में थी, मगर अब योगी को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है और उन्हें घेरने की लगातार कोशिशें की जा रही हैं। योगी ने इस स्थिति को भाँप लिया है। इसलिए वह कठोर हिंदू नेता की अपनी छवि को और ज्यादा मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं। कांवड़ यात्रा से जुड़े उनके आदेश को इसी चश्मे से देखा जा रहा है। आदित्यनाथ को चाहिए कि लोकसभा चुनाव में जनता ने जो पैगाम दिया है, उसको समझने का प्रयास करें। उनके द्वारा लिया गया फैसला सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम फिरंगी दौर में वापस आ गए हैं, जब हिंदू चाय और मुस्लिम चाय बनाने का हुक्म सादिर किया गया था। लेकिन यह भी हकीकत है कि इस मुल्क की बहुसंख्यक आबादी ने पहले भी ऐसी कोशिशों को कामयाब नहीं होने दिया था और आज भी उम्मीद है कि वतन से सच्ची मुहब्बत करने वाले लोग समाज को तकसीम करने वाली किसी भी कोशिश को नाकाम बना देंगे।
(लेखक जागरण ग्रुप के उर्दू अख़बार इंक़लाब के स्थानीय संपादक हैं। इसे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के प्राध्यापक ने हिन्दी में अनुवाद किया है। आलेख के व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)