इतिहासनामा/ संत कबीर : कहें कबीर एक राम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई

इतिहासनामा/ संत कबीर : कहें कबीर एक राम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई

सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सौहार्द से जुड़े सवालों के सन्दर्भ में देखा जाए तो एक खुदा को मानने वाले (मुवहहिद) संत कबीर (मृत्यु 1518) की असाधारण जीवनी और उनमें सम्मिलित किंवदंतियों की निरंतर प्रासंगिकता का संज्ञान लेना जरुरी है। क्योंकि अक्सर कई अहम सवालों और मुद्दों को आक्रामक धार्मिक लामबंदी और राजनीतिक हिंसा द्वारा कुचल दिया जाता है। कबीर उत्तर भारत की मिली-जुली संस्कृति की जीती जागती मिसाल थे। संभव है कि एक परित्यक्त बच्चे के रुप में कबीर के शरीर में किसी ब्राह्मण का रक्त प्रवाह कर रहा हो, लेकिन उनका लालन-पालन 15वीं सदी के एक मुसलमान जुलाहे के परिवार में हुआ था। वह उत्तर भारत में लोदी-अफगान शासन के राजनीतिक परिपेक्ष में सामाजिक पदानुक्रमों, जात-पात, ऊंच-नीच, और भेदभाव के अलावा धार्मिक पाखंडों को अपने उत्कृष्ट विचारों से चुनौती देने वाले भक्ति-संत के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने विभिन्न धार्मिक समूहों, पंथों और सम्प्रदायों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का आह्वान किया।

15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 16वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में बीच बाजार में खड़े होकर उपदेश देते हुए, कबीर ने न केवल हिंदू और मुस्लिम धर्मगुरुओं की तीखी आलोचना की, बल्कि उस जमाने के तथाकथित सूफी और योगियों की भी क्लास लगायी। यहां यह दोहराना जरुरी है कि कबीर ने न केवल हिंदुओं के पशु-बलि अनुष्ठान की आलोचना की, बल्कि उन्होंने मुसलमानों द्वारा जानवरों के वध की खास तौर से कटु आलोचना किया। वह गाय के अलावा बकरी और मुर्गी के भी जबह किए जाने के खिलाफ थे। जानना चाहिए कि 15वीं सदी में गो-हत्या हिंदू-मुस्लिम विद्वेष का बहुत बड़ा मुद्दा बन चुका था। इसको रोकने का एक ही आसान तरीका था। जहां कहीं एतराज और दंगा-फसाद हो, प्रतिबंध लगा दिया जाए –

बकरी मुर्गी किन्ह फरमाया
किनके कहे तुम छुरी चलाया

कबीर जैसे सुलझे मिजाज के धर्म-गुरु के लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि अगर हिंदू-मुस्लिम सौहार्द में आड़े आने वाले गो-मांस से परहेज करके समाज में शांति और अमन पैदा किया जा सकता है, तो क्या मजायका। उत्तर भारत के बहुसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा भी इस बात पर बजिद है। शाकाहारी लोग जानवरों पर होने वाले हिंसा के खिलाफ हैं, इसे रोकने के लिए दंगा-फसाद और हिंसक वारदातों का लंबा इतिहास है। यह एक विचित्र प्रकार की विडंबना है। इसी तरह, योगियों के लिए, कबीर की सलाह थी कि प्राणायम और अन्य आध्यात्मिक साधनाओं का तब तक कोई फायदा नहीं है, जब तक व्यक्ति का दिल साफ नहीं हो जाता और वह अपने अंदर के राम को खोज नहीं लेता। यह निराकार राम आदमी के अंदर बस्ते हैं। और इंसान को इंसान बनाते हैं। भगवान की प्राप्ति के लिए किसी उपासना-स्थल पर माथा पटखने की जरुरत नहीं है।

लोगों को अपने दिल के आईने में प्रभु के दर्शन करने की सलाह देते हुए कबीर ने अपनी ग्रन्थावली में सम्मिलित एक दोहे में कहा है कि दर्पण पर एकत्रित गन्दगी की निरंतर सफाई की आवश्यकता होती है –

जौ दरसन देख्या चाहिए, तौ दरपन मंजत रहिए
जब दरपन लागे कायी, तब दरसन किया न जायी!

कबीर द्वारा मुस्लिम धर्मगुरुओं (उलमा और काजी के अतिरिक्त अपने समकालीन सूफियों) पर हमला एवं योगियों की आलोचना भी उन्हें राम-भक्ति की वैष्णव-ब्राह्मणवादी सगुण परंपरा के नजदीक लाकर खड़ा कर देता है। वहीं दूसरी ओर, उनके गैर-ब्राह्मणवादी हिंदू अनुयायी, कबीर-पंथी, निर्गुण या निराकार भगवान में विश्वास करते थे। कड़ा-मानिकपुर (बाद में इलाहाबाद) के शेख तकी के सूफी शिष्य के रूप में शुरुआत करते हुए, कबीर खुद सारी सीमाओं को लांघ कर धार्मिक और सामाजिक बंदिशों से आजाद हो चुके थे। उस आजादी का भी अपना अलग मजा और आनंद होगा। धर्मांधता और पाखंड से आजादी, जात-पात से आजादी, हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य से आजादी! नतीजा जग-जाहिर है; कबीर कहीं के नहीं रहे। और वह इस बात पर राजी थे।

योगियों और सूफियों की तरह, कबीर भी सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की विभिन्न धाराओं के सामान्य आधार की तलाश में थे – परंपराओं की आपसी समानताएं और विविधता में एकता की भारतीय अवधारणा। आम तौर पर, धार्मिक और राजनीतिक नेतृत्च ने बड़ी परिपक्वता के साथ परंपराओं की बहुलता को न सिर्फ मैनेज किया है, बल्कि उनके सहअस्तित्च को सैद्धांतिक और ऐतिहासिक औचित्य भी प्रदान किया है। लेकिन कुछ गैर-जिम्मेदार तत्व अपनी विकृत मानसिकता और राजनीतिक लोभ के मद्देनजर सामाजिक समन्वय, संतुलन और सदभाव की प्रक्रिया से जुड़ी व्यवस्था को नुकसान भी पहुंचाते रहे हैं।

कबीर के कुछ समकालीन सूफियों ने, जो विशेषकर चिश्ती सिलसिले के नामी-गिरामी बुजुर्ग थे और वहदत-उल-वुजूद (अस्तित्व की एकता) की अवधारणा में विश्वास करते थे, अमृतकुंड नामक एक प्रसिद्ध पुस्तक में प्रस्तुत योगिक विचारों और प्रथाओं को अपना लिया था। मध्युगीन भारत के सूफी हलकों में इस किताब के अरबी और फारसी अनुवाद की बहुत मांग सुनने को मिलती है। अमृतकुंड पर फिदा उत्साही लोगों में से एक प्रमुख चिश्ती सूफी, अब्दुल कुद्दुस गंगोही थे। उन्होंने एक जिम्मेदार मुस्लिम धार्मिक नेता की हैसियत से प्रख्यात अपनी मजबूत स्थिति से योग पर लिखी इस किताब को पढ़ा था, और हिंदी में लिखी अपनी खुद की कविता में अपने को अलखदास कहने में कोई विरोधाभास नहीं पाया। उनके नजदीक, वहदत-उल-वुजूद (जो सूफियों के लिए अद्वैत की धारणा के समान है) और एकेश्वरवादी तौहीद (उलमा द्वारा एक ईश्वर में विश्वाश पर जोर) की धारणाओं में कोई अंतर नहीं था। गंगोही की किताब रुश्दनामा (अलखबानी) को ध्यान-पूर्वक पढ़ा जाना चाहिए।

दरअसल, मध्यकालीन भारत के सूफी-भक्ति संगत में, निराकार भगवान को विभिन्न नामों (अल्लाह, राम, रहीम, खुदा या अलख निरंजन) द्वारा बुलाया जाता था। भगवान की एकता (वहदत-उल-वुजूद, और जरूरी नहीं कि तौहीद) की अवधारणा के माध्यम से कबीर ने भगवान (खालिक) और उसकी सृष्टि या कृति (खलक) के एक दूसरे में आत्मसात हो सकने की बात कही है। उन्होंने ऐलान किया कि –

खालिक खलक, खलक में खालिक
सब घट रहियो समाई

बहुत से और सूफियों और संतों की तरह, कबीर ने भी साफ-साफ यह घोषणा किया कि –

कहें कबीर एक राम जपहु रे,
हिंदू तुरक न कोई!

निःसंदेह, पूर्वाग्रहों से मुक्त, कबीर की भक्ति की भाषा को सभी के लिए आशीर्वाद माना जाता रहा है। कबीर के जीवन और शिक्षा की सराहना नाभादास के प्रसिद्ध भक्तमाल या भक्तों की माला (1600 ईस्वी के आसपास) में देखी जा सकती है –

हिंदू-तुरक प्रमाण रमैनी सबदी साखी
पछपात नहीं बचन सब ही के हित की भाषी

1600 के आसपास ही, अनंतदास ने भी 15वीं और 16वीं शताब्दी में उत्तरी भारत के सबसे लोकप्रिय भक्ति कवियों के जीवन और कार्यों पर आधारित अपनी आकर्षक छंदयुक्त, परचाइयों की रचना की। अनंतदास ने दिखाया है कि समाज के पिछड़े तबकों से आने वाले संत रविदास और दादू दयाल भी यह प्रयास कर रहे थे कि कबीर इस बात के कायल जो जाएं कि भक्ति मार्ग में सगुण/निर्गुण विभाजन से ऊपर उठना जरुरी है। रविदास ने इस बात पर जोर दिया कि इस मामले में किसी तरह की जिद अच्छी बात नहीं हैं। उनका तर्क और मिसाल देखिए, कबीर से यूं मुखातिब हैं –

आपको समझना चाहिए कि निर्गुण और सगुण एक ही हैं। सगुण मक्खन की तरह हैं और निर्गुण घी के समान!

कबीर को इस बात के लिए तैयार किए जाने के प्रकरण को वैधता प्रदान करने के लिए यह भी दिखाया गया है कि इस वार्ता के दौरान ही चमत्कारिक रुप से भगवान स्वयं उनके बीच साक्षात पधार कर कबीर के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं। ह्रदय-परिवर्तन के इस कांड के साथ कबीर को हिन्दू भक्ति परंपरा में अपना लिया जाता है।

लेकिन यहां असल विचार ब्राह्मण/शूद्र भेद या अंतर को दूर करने का था। ऐसा करने के लिए कबीर स्वयं किसी भी हद तक जा सकते थे। लेकिन, क्या संत लोग अपने मिशन में सफल हुए? आज भी कि जमाना खराब है और जात-पात और धार्मिक उन्माद अपने शबाब पर है, समाज को कबीर सरीखे संतों से सीखने की जरुरत है। वह एक ईश्वर के मानने वाले थे, और जिसे मंदिर और मस्जिद के बजाय अपने दिल में खोजा जाना चाहिए। चूँकि समाज के एक बड़े वंचित तबके को मंदिर में प्रवेश से रोका जा रहा था, उन्होंने यह कहकर उन्हें रास्ता दिखाया कि अगर मंदिर में पत्थर की मूर्ति से भगवान की प्राप्ति संभव है, तो हम पहाड़ की पूजा के लिए तैयार हैं। इसी तरह शास्त्रों और ज्ञान के क्षेत्र में एक वर्ग या जाति विशेष के वर्चस्व पर तंज करते हुए कबीर ने कहा है कि इस तरह लोग अपनी दुनिया तो संवार सकते हैं, लेकिन असल पांडित्व तो प्रेम के ढाई अक्षर में निहित है। इस प्रकार, समाज में और लोगों के बीच आपसी प्रेम और सदभाव ही सच्ची धर्म-निष्ठा है। इसके लिए समाज के द्वारा बनाए गए पिंजड़ों की कैद को तोड़कर बाहर निकलने की आवश्यकता थी। कबीर ने इस काम के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया और हर तरह की बंदिशों से आजाद हो गए।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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