उषा जैन ’शीरीं‘
भले ही समलैंगिक रिश्तों को सामाजिक मान्यता मिले न मिले, इनका प्रचलन बढ़ने लगा है। समय समय पर ऐसे रिश्ते उजागर होते ही रहते हैं। लड़कियों को शिक्षा या नौकरी के लिये घर से दूर अकेले रहना ऐसे रिश्तों के बनने का बड़ा कारण है। कई बार प्यार में धोखा खाने के बाद की प्रतिक्रिया ऐसे रिश्तों में सुकून तलाशती नजर आती है।
केवल अमीरजादे, डॉक्टर, इंजीनियर, उद्योगपति ही ऐसे रिश्तों में बंधे नहीं मिलेंगे-मध्यवर्ग, निम्न मध्य वर्ग और निम्न वर्ग में भी ऐसे रिश्ते खूब बन रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ऐसे रिश्ते पुराने जमाने में नहीं होते थे लेकिन तब उन्हें वे दबे ढके रहते थेे। आज तो सामने आ जाते हैं, कुछ मीडिया के कारण और कुछ उनकी अपनी बोल्डनेस। आज ये आधुनिक जीवन शैली का हिस्सा हैं। इस शैली को अपनाने वाले इसे सामाजिक मान्यता दिलवाने के लिए हर तरह की कोशिशों में जुटे हैं।
इसे मान्यता दी जाए या नहीं, इस बात को लेकर लोगों में मतभेद है लेकिन ज्यादा लोग इसके पक्षधर नहीं हैं। सरकार भी इसे लेकर किसी एक मत पर नहीं पहुंच सकी है।
इसके पक्ष में कई संस्थाएं काम कर रही हैं। ये संस्थाएं ऐसे लोगों को असामाजिक माने जाने से मनोबल टूटने पर सहारा देती हैं।
लेकिन इसे सामाजिक मान्यता दी जाए, यह भी उचित नहीं होगा। यह कुदरत के खिलाफ है। भले ही इसके पक्षधर इसके लिए जेनेटिक बनावट को जिम्मेदार मानें लेकिन उसी कुदरत ने हमें सोचने समझने के लिए दिमाग भी दिया है। जैसा सच्चा प्यार स्त्री पुरूष में होता है, वही सच्चा सुख दे सकता है, मानसिक, दैहिक और रूहानी हर स्तर पर स्त्री पुरूष दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
समलैंगिक अपने मन को खंगालें, आत्मनिरीक्षण करें और जानने की कोशिश करें कि वे विद्रोही तेवर क्यों अपनाना चाहते हैं। क्यों अपने को किन्नरों की श्रेणी में लाना चाहते हैं? एक बार उन किस्मत के मारों से पूछकर तो देखें कि वे आप जैसा बनने और सुख पाने के लिए किस कदर छटपटाते हैं।
आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निज हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।
(उर्वशी)