गौतम चौधरी
लाचित बड़फूकन को असमिया महानायक कहा जाता है लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से लाचित को भारतीय उपमहाद्वीप का एक महानायक मानता हूं। ऐसे तो लाचित महज एक आहोम सेनापति थे लेकिन उन्होंने वह किया जिससे हर भारतीय का सिर गर्व से उंचा हो जाता है। असमिया भाषा में बड़फूकन का मतलब सेनापति होता है। सन् 1671 की बात है। असम की धरती पर सराईघाट के मैदान में मुगलों की ओर से रामसिंह के नेतृत्व में मुगलिया सेना का मुकाबला करने के लिए महज कुछ हजार असोम सैनिकों के साथ लाचित बड़फूकन, मैदान में उतरे थे। इस लड़ाई ने मुगलों के दांत खट्टे कर दिए और अंततोगत्वा मुगलों को अहोमों के साथ संधि कर वापस दिल्ली लौटना पड़ा।
इस लड़ाई को इसलिए भी याद किया जाता है कि असम पर पुनः अधिकार प्राप्त करने के लिए रामसिंह प्रथम के नेतृत्व वाली मुगल सेना का प्रयास चंद असोम सैनिकों ने विफल कर दिया गया था। इस लड़ाई के लगभग एक वर्ष बाद लाचित बीमार हो गए और उनकी मृत्यु हो गयी। लाचित सेंग कालुक मो-साई (एक ताई-अहोम पुजारी) के चैथा पुत्र थे। उनका जन्म सेंग-लॉन्ग मोंग, चराइडो में ताई अहोम के परिवार में हुआ था। उनका धार्मिक मान्यता के बारे में बताया जाता है कि वे फुरेलुंग अहोम थे। दरअसल, जिस प्रकार संपूर्ण भारत के आदिवासी आदि सनातन चिंतन में विश्वास करते हैं और अपने-अपने तरीकों से प्रकृति की पूजा करते हैं ठीक उसी प्रकार लाचित का परिवार भी आदि सनातन चिंतन को मानता था। लाचित बोड़फुकन ने मानविकी शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक (सोलधर बरुआ) का पद, निज-सहायक के समतुल्य एक पद, सौंपा गया था जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। बोड़फुकन के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व वे अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक (घोड़ बरुआ), रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक (या दोलकक्षारिया बरुआ) के पदों पर आसीन थे।
राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी के शासक मुगलों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित बोड़फुकन का चयन किया। राजा ने उपहारस्वरूप लाचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार (हेंगडांग) और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए। लाचित ने सेना एकत्रित की और 1667 की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर ली। लाचित ने मुगलों के कब्जे से गुवाहाटी को फिर से आजाद करा लिया।
सराईघाट की विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित बोड़फुकन की मृत्यु हो गई। उनका मृत शरीर जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है।
लाचित बोड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका वर्णन इस प्रकार करता है, ‘‘उनका मुख चैड़ा है और पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आंख उठाकर नहीं देख सकता।’’
सराईघाट की वह लड़ाई जिसने लाचित को अमर कर दिया
मुगल सेना ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते ढाका से असम की ओर चलीं और गुवाहाटी की ओर बढ़ने लगी। रामसिंह के नेतृत्व वाली मुगल सेना में 30,000 पैदल सैनिक, 15,000 तीरंदाज, 18,000 तुर्की घुड़सवार, 5,000 बंदूकची और 1,000 से अधिक तोपों के अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था। लड़ाई के पहले चरण में मुगल सेनापति रामसिंह असमिया सेना के विरुद्ध कोई भी सफलता पाने में विफल रहा था। रामसिंह द्वारा एक पत्र के साथ अहोम शिविर की ओर तीर छोड़ा गया, जिसमें लिखा था कि लाचित को एक लाख रूपये दिये गये थे और इसलिए उसे गुवाहाटी छोड़कर चला जाना चाहिए। यह पत्र अंततः अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के पास पहुंचा। यद्यपि राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह होने लगा था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचित के विरुद्ध एक चाल है।
सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में, जब मुगलों ने सराईघाट में नदी से आक्रमण किया, तो असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे। कुछ सैनिक पीछे हट गए।
यद्यपि लाचित गंभीर रूप से बीमार थे, फिर भी वे एक नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुगल बेड़े की ओर बढे। उन्होंने सैनिकों से कहा, ‘‘यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। महाराज ने मुझे एक कार्य सौंपा है और मैं इसे अच्छी तरह पूरा करूंगा। मुगलों को मुझे बंदी बनाकर ले जाने दीजिए। आप महाराज को सूचित कीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए अच्छी तरह युद्ध किया।’’ लाचित की इस वीरता को देखकर असोम वीर फिर से युद्ध के लिए तैयार हो गए और मुगलों पर टूट पड़े। ब्रह्मपुत्र नदी में एक भीषण युद्ध हुआ। लाचित के नेतृत्व वाली सेना विजयी हुई। मुगल सेनाएं गुवाहाटी से पीछे हट गई।
मुगल सेनापति ने अहोम सैनिकों और अहोम सेनापति, लाचित बोड़फुकन के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा, ‘‘महाराज की जय हो! सलाहकारों की जय हो! सेनानायकों की जय हो! देश की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहां तक कि मैं रामसिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका!’’