गौतम चौधरी
वर्ण और जाति, पारंपरिक भारतीय समाज की नींव है। सामाजिक संरचना की यदि बात करें तो इसे आप किसी कीमत पर नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। इस व्यवस्था की संरचना एक-दो वर्ष या फिर एक-दो सौ सालों में नहीं हुआ है। इसका लंबा इतिहास है। पक्ष-विपक्ष, हानी-लाभ की बात करें तो कई तर्क इसके पक्ष और कई इसके विपक्ष में मिल जाएंगे लेकिन इस व्यवस्था की अहमियत इतनी है कि भारतीय समाज में आप अपना धर्म और पांथिक चिंतन चाहे जितना बदल लों जाति व वर्ण आपका पीछा नहीं छोड़ेगा। लंबे इतिहास और वर्षों में कई बदलावों के बावजूद, जाति अभी भी हमारी राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों में व्यापक रूप से स्वीकृत एक संस्था के रूप में काम कर रही है।
भारतीय समाज में जाति को लेकर कई आन्दोलन भी हुए। कहा तो यहां तक जाता है कि भारत की लंबे समय तक गुलामी का कारण भी जाति व्यवस्था रही है। तर्क तो यहां तक दिए जाते हैं कि जाति व्यवस्था की विंगतियों के कारण ही मुस्लिम आक्रांता भारत में अपनी जड़ जमाने में कामयाब हुए। यह कितना सत्य है विश्लेषण का विषय है लेकिन इसके विपक्ष में भी कई तर्क हैं और उनमें से सबसे मजबूत तर्क यह है कि यदि ऐसा ही था तो फिर भारतीय मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था कैसे प्रवेश कर गयी? वैसे मुस्लिम समाज एकरूपता की बात तो करती है लेकिन जाति व्यवस्था वहां भी किसी न किसी रूप में है। यदि भारतीय मुस्लिम समाज की बात करें तो यह व्यवस्था हिन्दुओं की तुलना में थोड़ी कमजोर जरूर है लेकिन वहां भी है। भारत का मुस्लिम समुदाय एकरूपता से कोसों दूर है। इसके भीतर पसमांदा के नाम से जाना जाने वाला एक महत्वपूर्ण वर्ग मौजूद है, जो सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का बुरी तरह सामना कर रहा है। यह ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार हिन्दुओं की पिछड़ी जातियां कर रही है। वर्तमान समय में हिन्दुओं की कुछ पिछड़ी जातियां तो बेहद कमजबूत होकर उभरी है अब अगड़ी कही जाने वाली जातियों को हर मोर्चो पर चुनौती दे रही है लेकिन मुस्लिम समाज में ऐसा देखने को नहीं मिल रहा है। पसमांदा मुद्दे और आज के भारत में इसकी प्रासंगिकता को समझना वास्तविक सामाजिक-धार्मिक समानता प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।
भारत में मुसलमान एक हजार वर्षों से अधिक समय से उपमहाद्वीप के इतिहास का हिस्सा रहे हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में अधिकांश मुसलमान पहले से मौजूद समुदायों से धर्मांतरित हुए हैं। शेष मुस्लिम समूह, जिनकी उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई है, सदियों पहले यहां पहुंचे और अब उपमहाद्वीप के समाज में समाहित हो गए हैं। यद्यपि इस्लाम में परिवर्तित होने से व्यक्ति को एक नए धार्मिक समुदाय और विश्वास प्रणाली तक पहुंच मिली है, लेकिन यह किसी की जाति को बदलने में असमर्थ है। रूपांतरण किसी व्यक्ति के व्यवसाय, उनकी संपत्ति या उसकी कमी, उनके पड़ोसियों की उनके बारे में धारणा या उनके सामाजिक पदानुक्रम को नहीं बदल सकता है। जो लोग इस्लाम में परिवर्तित हो जाते हैं उन्हें एक नया धार्मिक ग्रंथ प्राप्त होता है और वे उस ईश्वर में बदलाव देखते हैं जिसकी वे पहले पूजा करते थे। लोगों को इसमें नैतिक आराम मिल सकता है। हालांकि, जिस तरह आपका धर्म या धार्मिक ग्रंथ बदलने से आपकी त्वचा का रंग नहीं बदलेगा, उसी तरह यह किसी व्यक्ति के जाति-आधारित व्यवसाय, कौशल, विरासत, सामाजिक अंतरताना या स्वास्थ्य को भी नहीं बदल सकता है।
पसमांदा के खिलाफ सबसे घातक रणनीति में से एक पसमांदा संघर्ष का सांप्रदायिकरण है। सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर, पसमांदा मुसलमानों द्वारा सामना किए जाने वाले जाति-आधारित भेदभाव और सामाजिक-आर्थिक अभाव के वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटा दिया जाता है। यह न केवल हाशिये पर पड़े समुदाय की वास्तविक चुनौती और समस्याओं को कमज़ोर करता है, बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर भी विभाजन को बढ़ावा देता है। सच्चर समिति रिपोर्ट (2006) और रंगनाथ मिश्रा आयोग रिपोर्ट (2007) सहित अध्ययनों और रिपोर्टों ने पसमांदा मुसलमानों द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक-आर्थिक असमानताओं पर प्रकाश डाला है। इन रिपोर्टों से पता चलता है कि पसमांदा समुदाय उच्च जाति के मुसलमानों (अशरफ) और हिंदुओं के बीच दलित और ओबीसी जैसे अन्य हाशिये पर रहने वाले समुदायों की तुलना में बेहद पिछड़ी हुई है। शिक्षा, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं तक इनकी पहुंच अशरफों की अपेक्षा कम है। इन निष्कर्षों के बावजूद, उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करने वाली लक्षित नीतियों का अभाव रहा है।
बहुसंख्यक होने के बावजूद, पसमांदाओं को ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव रहा है। एक मजबूत आवाज की अनुपस्थिति ने उनकी विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने और संसाधनों में उनका उचित हिस्सा सुरक्षित करने के प्रयासों में और बाधा उत्पन्न की है। इसके अतिरिक्त, पसमांदा अक्सर व्यापक मुस्लिम पहचान में समाहित हो जाती है, जिससे उनके विशिष्ट अनुभव और आकांक्षाएं अस्पष्ट हो जाती हैं। पसमांदाओं को हाशिए पर धकेलने का भारत के सामाजिक ताने-बाने और लोकतांत्रिक आदर्शों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। भारत में वास्तविक सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए उनका उत्थान आवश्यक है। मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग गरीबी में फंसा हुआ है, जिससे देश की समग्र प्रगति में बाधा आ रही है।
एक अध्यय में बताया गया है किं सामाजिक-आर्थिक अभाव और कट्टरपंथ एक-दूसरे का पूरक है। पसमांदाओं को सशक्त बनाने से शिकायतों का फायदा उठाने वाले चरमपंथी आख्यानों का मुकाबला करने में मदद मिल सकती है। अधिक समावेशी मुस्लिम समुदाय भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान को मजबूत करता है। जब एक महत्वपूर्ण वर्ग अपने धर्म के भीतर अपनी जाति पृष्ठभूमि के आधार पर हाशिए पर महसूस करता है, तो यह सभी के लिए समान व्यवहार के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को कमजोर करता है।
पसमांदा मुद्दा सिर्फ एक विशिष्ट समुदाय के उत्थान के बारे में नहीं है, यह भारत के विविध समाज की वास्तविक क्षमता को साकार करने के बारे में है। इस हाशिए पर मौजूद वर्ग को सशक्त बनाकर, भारत एक अधिक समावेशी और न्यायसंगत राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। आगे बढ़ने के लिए सरकार, नागरिक समाज संगठनों और स्वयं मुस्लिम समुदाय के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। पसमांदा मुद्दे को पहचानना और इसके समाधान की दिशा में काम करना न केवल एक नैतिक अनिवार्यता है, बल्कि एक मजबूत और समृद्ध भारत के निर्माण की दिशा में उठाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण कदम भी है।