अमरपाल सिंह वर्मा
अपनी जमीन से उजड़ने का दर्द क्या होता है, यह आप पोंग बांध विस्थापितों से मिलकर जान सकते हैं। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में पोंग बांध बनने से विस्थापित हुए हजारों परिवारों को करीब साठ साल बीतने के बाद भी पुनर्वास का इंतजार है। इन लोगों को राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले में सिंचित कृषि भूमि आवंटित की जानी थी। विडम्बना देखिए लगभग पांच हजार विस्थापित आज भी अपना हक पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
कांगड़ा जिले में सन् 1960 से 1974 के मध्य व्यास नदी पर पोंग बांध का निर्माण किया गया। इस बांध के पानी से पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान को पानी मिला लेकिन बांध बनने से विस्थापित हुए 339 गांवों के लोगों के हिस्से मेंं बदनसीबी ही आई। हाल ही में हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिले की यात्रा के दौरान मुझे पोंग बांध विस्थापितों से मिलने का मौका मिला। पोंग बांध विस्थापित 76 वर्षीय हुकमचंद गुलेरी, कुलदीप शर्मा और हंसराज चौधरी से उनकी व्यथा सुनकर कोई भी भावुक हो सकता है लेकिन सरकारों का दिल नहीं पसीज रहा।
यह कहानी कोई एक-दो लोगों की नहीं है। पोंग बांध बनने से इन गांवों के 20 हजार 722 परिवार विस्थापित हुए थे। हिमाचल प्रदेश की सरकार ने इनमें से 16 हजार 352 परिवारों को पुनर्वास का पात्र माना। इसके बाद भी इसमें संशोधन हुआ और अंतत: 16 हजार 100 परिवारों को पुनर्वास का पात्र मानते हुए पात्रता प्रमाण पत्र प्रदान किया गया।
पोंग बांध बनने से विस्थापित हुए परिवारों को राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले मेंं सिंचित कृषि भूमि देना तय हुआ। प्रावधान किया गया कि प्रत्येक परिवार को 15.625 एकड़ भूमि दी जाएगी। इसके लिए श्रीगंगानगर जिले में 2.20 लाख एकड़ भूमि आरक्षित की गई। विस्थापितों का कहना है कि 1968 से 1978 तक एक लाख 90 हजार एकड़ जमीन का आवंटन किया गया जबकि शेष जमीन राजस्थान सरकार ने डि-नोटिफाई कर राजस्थान के लोगों को आवंटित कर दी। विस्थापितों का आरोप है कि जो 16 हजार 100 परिवार पुनर्वास के पात्र माने गए, उनमें से करीब पांच हजार परिवार आज छह दशक बाद भी अपना हक पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिन लोगों को पांच दशक पहले भूमि आवंटित होनी थी, उनमें से ज्यादातर की मौत हो चुकी है। अब उनकी तीसरी और चौथी पीढ़ियां जमीन पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
यह मामला हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका। हिमाचल हाईकोर्ट ने 30 अक्टूबर 2018 को एक निर्णय में हिमाचल सरकार को पोंग बांध विस्थापितों का हिमाचल में ही पुनर्वास करने के आदेश दिए। हाई कोर्ट ने कहा कि हिमाचल सरकार प्रदेश में ही भूमि की तलाशे और पुनर्वास का पूरा खर्च राजस्थान सरकार से लिया जाए। हिमाचल हाई कोर्ट ने दोनों सरकारों को आपस में बैठकर इसका समाधान निकालने के निर्देश दिए तथा कहा कि पोंग बांध विस्थापितों का पुनर्वास करने के लिए उन्हें राजस्थान के जैसलमेर के उन क्षेत्रों भूमि दी जा रही है, जहां रह पाना सरल नहीं है। विस्थापित कहते हैं-हम जैसलमेर में बसने को तैयार हैं लेकिन वहां कोई सुविधाएं तो हो। जो जमीन हमें देने की बात है, वह कागजों मेंं सिंचित है। हकीकत में वहां पानी नहीं है। क्या करेंगे ऐसी जमीन लेकर?
इसके बाद 10 दिसम्बर 2018 को हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने हिमाचल व राजस्थान की राज्य सरकार के मुख्य सचिवों आदेश दिए कि वे पोंग बांध विस्थापितों का हिमाचल में ही पुनर्वास करने के लिए नीति बताएं, ताकि राजस्थान सरकार के खर्चे पर विस्थापितों के लिए उपयुक्त जमीन खरीदी जा सके। कोर्ट ने कहा कि आवश्यकता महसूस होने पर उच्च स्तरीय बैठक कर नीतिगत फैसला लिया जाए।
इसके उपरांत शिमला में फरवरी 2019 में हुई हिमाचल व राजस्थान सरकार की द्विपक्षीय बैठक में राजस्थान के तत्कालीन मुख्य सचिव डीबी गुप्ता ने साफ कर दिया कि कि पोंग बांध विस्थापितों को राजस्थान सरकार की ओर से भूमि ही दी जाएगी। भूमि के बदले पैसा देना सरकार के लिए संभव नहीं है।
हिमाचल प्रदेश सरकार ने राज्य विधानसभा मेंं वर्ष 2018 मेंं दिए एक जवाब मेंं बताया कि अब तक 15477 प्रमाण पत्र जारी हो चुके हैं। राजस्थान सरकार द्वारा आज तक कुल 12027 विस्थापितों को भूमि आवंटित की गई है। जिनमें से 11088 मुरब्बा भूमि का आवंटन सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार व लगभग 2830 मुरब्बा भूमि कब्जा न लेने व किस्त न भरने जैसे कारण बताकर राजस्थान सरकार ने निरस्त कर दिया है। मौजूदा समय में रिकार्ड के अनुसार 8009 विस्थापित ही राजस्थान में भूमि पर काबिज हैं।
इस मामले मेंं सर्वोच्च न्यायालय का अश्विनी कुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 439/92 मामले में 26 जुलाई 1996 को दिया गया आदेश महत्वपूर्ण है। इस आदेश की पालना में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में एक हाई पावर कमेटी गठित की गई। इस कमेटी में हिमाचल व राजस्थान के सचिवों को सदस्य के रूप मेंं शामिल किया गया। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार कमेटी ने तीन महीने के भीतर इस मसले का समाधान खोजना था लेकिन इस समिति की 27 बैठकें आयोजित की जा चुकी हैं, फिर भी विस्थापित भटक रहे हैं।
विस्थापितों का यह भी आरोप है कि जिन विस्थापितों को श्रीगंगानगर जिले मेंं जमीन दी गई, उनमें से भी कइयों की जमीनों पर प्रभावशाली लोगों ने अतिक्रमण किया हुआ है। भूमि विवाद में विस्थापितों को प्रताड़ित किया जाता रहा है। स्थानीय प्रशासन उनकी मदद नहीं करता।
इसके विपरीत राजस्थान के निवेशन विभाग विस्थापितों के भटकने का ठीकरा हिमाचल सरकार पर फोड़ता है। विभाग का कहना है कि हिमाचल सरकार बांध से प्रभावित लोगों की लिस्ट ही राजस्थान को समय उपलब्ध नहीं करवा पाई। विभाग का तर्क है कि जिस तारीख को भूमि अधिग्रहण के मुआवजे की रसीद जारी होती है, नियमानुसार, उस तारीख से चार महीने बाद आवेदन करने वालों को पात्रता प्रमाण पत्र नहीं जारी किया जा सकता। जबकि हिमाचल सरकार अब भी इस आशय के सर्टिफिकेट जारी किए जा रही हैं। साथ ही, हिमाचल सरकार चाहती है कि विस्थापितों को कृषि भूमि के बजाय बतौर मुआवजा बड़ी राशि अदा की जाए।
हिमाचल सरकार यह भी कहती आई है कि कई बांध विस्थापितों को असिंचित तथा भारत-पाक सीमा के पास के पास भूमि आवंटित कर दी गई जबकि विस्थापितों को भूमि का अवलोकन करके सहमति से आवंटन किया जाना चाहिए। इसके विपरीत राजस्थान सरकार कहती आई है कि भूमि आवंटन से पहले संबंधित जगह का अवलोकन कराया जाए, ऐसा कोई नियम नहीं है। विस्थापितों को नियमानुसार वह भूमि दी जा रही है, जो पचास प्रतिशत से ज्यादा सिंचित है। ऐसा करना सही है।
दोनों राज्य सरकारों के अपने-अपने तर्क और नियम हैं, जिनका हवाला दोनों सरकारें देती आ रही हैं लेकिन एक बात सच है कि पोंग बांध विस्थापितों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है। उनका जीवन एक त्रासदी बनकर रह गया है, जिन पर कश्मीर फाइल्स की तर्ज पर फिल्म बनाने की बात हो रही है। इस पर कोई विचार नहीं कर रहा कि विस्थापितों को न्याय कैसे दिलाया जाए। हजारों विस्थापित हिमाचल मेें जगह-जगहर बस्तियां बसाकर रह रहे हैं। अनेक तो पोंध बांध के आसपास झोंपडिय़ां बनाकर रहने पर मजबूर हैं। बड़ा सवाल यह है कि इन विस्थापितों को न्याय कब मिलेगा?
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