गौतम चौधरी
दुनिया भर में साम्यवादी आन्दोलन के धार कुंद हो चुके हैं। हालांकि आज भी युवाओं के बीच साम्यवादी आन्दोलन के प्रति आकर्षण है लेकिन भारत सहित यूरोप या किसी अन्य महाद्वीप में साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था अवशान की ओर है। वैसे साम्यवादी दलों का दावा है कि आज भी दुनिया के अधिकतर देशों में साम्यवादी राजनीतिक व्यवस्था ही काम कर रही है लेकिन साम्यवाद का जो जोर 20वीं शताब्दी मध्य में था वह आज तो बिल्कुल नहीं है। भारत में भी कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत मजबूत नहीं रह गया है. लेकिन इस विचारधारा की राजनीतिक पार्टी, भारत में अपने 100 साल पूरे होने पर जश्न मना रही है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत 17 अक्टूबर, 1920 को ताशकंद (तब सोवियत संघ का हिस्सा था, अब उज्बेकिस्तान का हिस्सा है) में हुई थी। हालांकि कुछ जानकारों का मानना है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत स्थापना वर्ष 1925 में कानपुर में हुई थी। खैर, पार्टी की स्थापना सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता और दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने के ज़ोर वाले दौर में हुई थी। यहां यह बता देना ठीक रहेगा कि बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस में व्लदिमिर इल्यिच उल्यानोव लेनिन ने साम्यवादी सरकार की घोषणा कर दी। यही नहीं उन्होंने प्रथम कैबिनेट की बैठक में ही दुनिया में साम्यवादी सरकारों के गठन को अपनी विदेश नीति का अंग बना दिया। उन दिनों भारत अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ रहा था। स्वाभाविक रूप से रूस की साम्यवादी सरकार ने भारतीय क्रांतिकारियों को संरक्षण दिया। इसके कारण भारत में साम्यवादी अन्दोलन को नयी दिशा मिली। सबसे पहले रूस से लौट रहे एक प्रतिनिधिमंडल के कुछ सदस्यों ने ताशकंड में 17 अक्टूबर, 1920 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। इसमें एमएन रॉय के अतिरिक्त उनकी पार्टनर इवलिन ट्रेंट राय, अबानी मुखर्जी, रोजा फिटिंगॉफ, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफ़ीक़, एमपीबीटी आचार्य आदि शामिल थे। कुछ जानकारों का कहना है कि इस बैठक में एम वर्कतुल्ला, लाला हरदयाल, राजा महेन्द्र प्रताप भी शामिल थे लेकिन इस बात पर मतभेद भी हैं। यहीं ताशकंड में पहली बार भारत की स्वतंत्र सरकार का भी गठन किया गया था, जिसमें राजा महेन्द्र प्रताप को राष्ट्रपति और एम वर्कतुल्ला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था। इस सरकार को तत्कालिन अफगानिस्तान की सरकार ने मान्यता भी दी थी। इनमें एमएन रॉय अमरीकी कम्युनिस्ट थे जबकि अबानी मुखर्जी की पार्टनर रोजा फिटिंगॉफ रूसी कम्युनिस्ट थीं। मोहम्मद अली और मोहम्मद शफ़ीक़ तुर्की में ख़िलाफ़त शासन को लागू करने के लिए भारत में चल रहे ख़िलाफ़त आंदोलन के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए रूस में थे। ये वो समय था जब गांधी भी ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन कर रहे थे। उस वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन के कई कार्यकर्ता भारत की यात्रा कर रहे थे। कुछ तो पैदल ही सिल्क रूट के रास्ते भारत आ रहे थे। ये लोग तुर्की में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध कर रहे थे। यह दौर एक तरह से भूमंडलीय दौर था क्योंकि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार का विरोध करते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने का फ़ैसला लिया था।
उस भूमंडलीय दौर का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एमएन रॉय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने से पहले मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी (सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी) की स्थापना कर चुके थे। इधर देश भर में ब्रिटिश उपनिवेश के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे विभिन्न समूह इस पार्टी की तरफ़ आकर्षित हुए। महत्वपूर्ण यह है कि अमरीका से चल रही गदर पार्टी के सदस्यों पर इसका काफी असर देखने को मिला। इसी वक्त में खि़लाफ़त आंदोलन में हिस्सा ले रहे युवा बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। इन सबके अलावा एमएन रॉय देश भर में विभिन्न समूहों को पार्टी से जोड़ने के काम में लग गए। हालाँकि पार्टी के कोई ठोस कार्यकारी योजना नहीं बनी थी लेकिन पार्टी बड़ी तेजी से अपना आधार बढ़ा रहा था।
कम्युनिस्टों ने उस वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करने, उनका आंतरिक हिस्सा होने और दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया। उन्होंने मुख्य तौर पर शहरी इलाक़े के अद्यौगिक क्षेत्रों में काम किया. मद्रास के कम्युनिस्ट नेता सिंगारावेल चेट्टियार उस वक्त सुर्खियों में आ गए थे जब उन्होंने 1922 में गया में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन के दौरान संपूर्ण स्वराज की घोषणा की थी। आज जब हम पाबंदियों और षडयंत्रों की बात करते हैं तो हमें इंदिरा गांधी के आपातकाल की याद आती है लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान कम्युनिस्टों पर लगा प्रतिबंध इसकी तुलना में कहीं ज्यादा भयावह और खतरनाक था। कम्युनिस्टों पर षड्यंत्र करने के कई आरोप लगे थे, जिसमें पेशावर, कानपुर और मेरठ षड्यंत्र प्रमुख हैं। पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षड्यमंत्र मामले में फँसाया गया। हर कोई यह समझ गया था कि ब्रिटिश सरकार एमएन रॉय और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही है।
इन पत्राचारों पर नज़र रखने के साथ ही षड्यंत्र के मामलों की शुरुआत हुई थी। एक तरह से हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के बाद भारतीय सरकारों को ना केवल ब्रिटिश क़ानून बल्कि उनके नज़र रखने के तरीके विरासत में मिले। कानपुर वोल्शेविक षड्यंत्र मामले में जेल से बाहर आने के बाद नेताओं की दिसंबर, 1925 में कानपुर में बैठक हुई। इस बैठक में तय किया गया कि ताशकंद में बनी पार्टी संचालन में आने वाली मुश्किलों को दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को अखिल भारतीय स्तर पर एकजुट करने की ज़रूरत है। इसलिए एक बार फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन की घोषणा की गई। इस बैठक के आयोजन में सत्यभक्त की अहम भूमिका थी। उन्होंने अपील की थी कि पार्टी का नाम इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी रखा जाए लेकिन पार्टी के दूसरे नेताओं ने कवेंशन ऑफ़ इंटरनेशनल कम्युनिस्ट मूवमेंट का हवाला देते हुए कहा कि देश का नाम अंत में रखा जाएगा। कानपुर की बैठक में सिंगारावेल चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के साल को लेकर विभिन्न मतों वाले लोगों में मतभेद है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल ताशकंद में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मान्यता देते हैं, लेकिन मौजूदा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी मानते हैं।
पार्टी के संचालन के लिए विभिन्न जगहों पर कम्युनिस्टों ने श्रमिकों और किसानों को जोड़ना शुरू किया। सरकार ने कार्रवाई शुरू की और लोगों को गिरफ़्तार किया। इसी दौर में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी साम्यवाद के प्रभाव में आए। चिट्गांव में स्थानीय कम्युनिस्टों के संघर्ष को इतिहास में जगह मिली। नयी पीढ़ी के नेताओं में पुछलपल्ली सुंदरैया (हैदर ख़ान के शिष्य), चंद्र राजेश्वर राव, ईएमएस नंबुदिरापाद, एके गोपालन, बीटी रणदीवे जैसों ने उभरना शुरू किया।
मेरठ षड्यंत्र मामले में रिहा होने के बाद नेताओं ने कलकत्ता में 1934 में बैठक की और देश भर में आंदोलन को बढ़ाने के लिए संगठन को मज़बूत करने पर बल दिया। ब्रिटिश सरकार ने इन सबको देखते हुए 1934 में पार्टी पर पाबंदी लगा दी। इसी साल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सोशलिस्ट विंग के तौर पर गठन हुआ। इस नए संगठन ने भी अपनी ताकता बढ़ाई लेकिन इसकी ताकत उत्तर भारत तक ही सीमित रहा और दक्षिण में कम्युनिस्टो का प्रभाव बरकरार रहा।
उस समय साम्यवादी नेता सुंदरैया, चंद्रा राजेश्वरा राव और नंबूदरीपाद के नेतृत्व में सामाजिक आर्थिक आंदोलन को आगे बढ़ाया गया। सुंदरैया और नंबूदरीपाद पर गांधी का असर था और यह उनकी जीवनशैली और कामकाजी शैली से भी जाहिर होता था। कांग्रेस ने महात्मा गाँधी के नेतृत्व में 1943 में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया लेकिन उस वक्त कम्युनिस्टों की सोच अलग थी। यह एक ग़लत फ़ैसला था और यह तबसे उन्हें सताता रहा है। उन्होंने अपने आधिकारिक दस्तावेज़ों में यह स्वीकार किया है कि उस वक्त लिया गया फ़ैसला सही नहीं था। यह दूसरे विश्व युद्ध का समय था। तब नाज़ी सेनाएं सोवियत संघ को निशाना बना रही थीं। इसका असर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर भी साफ़ था जो उस वक्त सोवियत संघ के गहरे प्रभाव में थी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व युद्ध को जनता का युद्ध कहा। इस युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की सेनाएं एक तरफ थीं तो दूसरी तरफ सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका की सेनाएं थीं। यानी ब्रिटेन सोवियत संघ का सहयोगी था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विश्लेषणों के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन चलाने से नाजी सेनाओं को हराने के लिए मित्र राष्ट्र की सेनाओं की कोशिशों को धक्का लगेगा। ब्रिटिश सरकार से यह अनुरोध किया गया था कि नाज़ी सेनाओं से संघर्ष के लिए एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाना चाहिए। वहीं महात्मा गाँधी का विचार था कि ब्रिटिशों को उनके घुटने पर लाने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है। हालाँकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ का पक्ष लिया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कर दिया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उस वक्त इसकी वजह बताते हुए कहा था कि जापान की सेना बर्मा तक पहुंच गई थी और इस आंदोलन के चलते जापानी सेनाओं को रोकने में मुश्किल होगी लेकिन भारत के लोगों पर इस तर्क का उलटा प्रभाव पड़ा। पार्टी के नेता भी इस बात पर सहमत होते हैं कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के साथ कई तरीकों से काम करने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष की सबसे अहम लड़ाई भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करना पार्टी की ऐतिहासिक भूल थी। 1942 में ही ब्रिटेन ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाई पाबंदी को हटा लिया था। इसके बाद पार्टी (जिसे आज कांग्रेस कहा जाता है) की पहली राष्ट्रीय बैठक का आयोजन तत्कालीन बंबई में 1943 में किया गया। जाहिर है कि पार्टी अपनी स्थापना के 23 साल तक अपनी पहली बैठक का आयोजन नहीं कर सकी थी। स्थितियां ही ऐसी थीं, पार्टी और पार्टी के लिए काम करने वाले समूहों पर कई तरह की पाबंदियां लगी हुई थीं। भारत को 1947 में आज़ादी मिली. नेहरू खुद को समाजवादी भी मानते थे और यह कहा जाता था कि उन्होंने एक तरह की समाजवादी सरकार चलाई।