डॉ. सुधाकर कुमार मिश्र
सामयिक परिप्रेक्ष्य में जातिवाद भारत की राजनीति की एक ऐसी गोटी है जिसको प्रत्येक राजनीतिक दल अपने निश्चित एवं विवेकीय प्रतिशत से फिट करना चाहते हैं। राजनीति अपने शुरुआती दिनों से नागरिक समाज के लिए सेवा का हेतु रहा है लेकिन सेवा हेतु में जाति राजनीतिक दलों के लिए सुंदर खेल है। विवेक की आम अवधारणा है कि उसको जिस कार्य के लिए संकेंद्रित करेंगे , वह उसे क्षेत्र का विशेषज्ञ बनता है। जाति व्यवस्था नागरिक समाज का अटूट अंग रही है और इसने जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित किया है। स्वतंत्रता के पूर्व भी जाति का राजनीतिक जीवन पर गहरा प्रभाव रहा था। स्वतंत्रता के पश्चात जाति व्यवस्था का प्रतिशत बढ़ता गया और राजनीतिक जीवन और सार्वजनिक जीवन से नैतिकता, सत्यता, ईमानदारी, व्यक्ति के विभिन्न चेहरों (मुखौटा) का अभ्युदय, राजनीतिक मूल्यों का पतन और नागरिक मूल्य का गत्यात्मक ह्रास हो रहा है।
विगत 77 वर्षों में राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली और सामान्य राजनीतिक जीवन के अनुभव से यह संकेत मिलता है कि भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर जातिवाद का संवेदनशील प्रभाव है। भारतीय समाज से जाति का उन्मूलन नहीं हो सकता , जाति का स्वरूप अवश्य परिवर्तित होता रहेगा । राजनीतिक संस्कृति और आधुनिकरण के मूल्यों के अनुरूप होने के कारण जाति के बदलते स्वरूप कोश् परंपराओं की आधुनिकता श् कहा जाने लगा है। भारत की राजनीति का दुर्भाग्य है कि संसद( देश की सर्वाेच्च पंचायत, राष्ट्र की आत्मा और लोकतंत्र के मंदिर में) जाति के लिए वाक युद्ध का अखाड़ा बनता जा रहा है ना कि विकास के लिए।
विचारकों का मानना था कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की मजबूती के पश्चात जाति व्यवस्था का लोप हो जाएगा ,एक भ्रामक और त्रुटिपूर्ण अध्ययन था ।भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के मजबूती के पश्चात जाति की राजनीति का राजनीतिक सेंसेक्स बढ़ता ही जा रहा है। जाति राजनीतिक संस्कृति का आमुख होता जा रहा है ,खासकर उन नेताओं की जिनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि जातिवाद के कारण ही अभ्युदय हुआ था।
राजनीति एक प्रतियोगी क्रिया है. इसका लक्ष्य निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति है । एक ऐसे नागरिक समाज में जिसमें राजनीतिक समानता को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है और इस समाज में सरकार का निर्माण और परिवर्तन बहुमत की इच्छा के द्वारा होता है । सरकार के निर्माण के लिए अन्य समूहों की सहायता अति आवश्यक है। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के द्वारा राज्य के प्रत्येक नागरिक को व्यवस्था में सहभागिता धर्म ,मूल, वंश और जाति के भेदभाव को वर्जित किया है उसे राजनीतिक व्यवस्था में जाति की राजनीति इस तरह हावी है । सुशासन, विकास और उत्तम विधि और व्यवस्था पर जाति की राजनीति हावी है, इसका सफल दृश्य उदाहरण आम चुनाव, 2024 में उत्तर प्रदेश में लोकसभाओं के सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशियों की हार से देखा जा सकता है।
1990 में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण (एलपीजी) के दौर में राज्य के नियंत्रण को कम करना (अहस्तक्षेप की नीति का उदय) और निचली जातियों को सशक्त बनाने पर केंद्रित, जाति केंद्रित राजनीतिक दलों के अभ्युदय को संबल मिला। नवोदित राजनीतिक दल अक्सर भ्रष्टाचार से भरी होती थी, क्योंकि इसको राजनीतिक खेल के क्षेत्र को समतल होने के लिए देखा जाता था। जाति माफिया के रूप में जाने वाले नेताओं ने उच्च जातियों के संस्थानों के प्रति निचली जातियों के असंतोष का भरपूर फायदा उठाया और खुलेआम राज्य के संस्थानों को लूटा। इस राजनीतिक असमतल को मोदी सरकार, योगी योगी (माफियों का खात्मा) और सुशासन बाबू/मौसम वैज्ञानिक, नीतीश कुमार जी (जाति राजनीति को बढ़ावा दिए हैं लेकिन माफिया संस्कृति को न्यून किया)।
जाति की राजनीतिक व्यवस्था पर समेकित रूप से कहा जा सकता है कि –
1/ जाति की राजनीति विकास, सुशासन एवं विधि और व्यवस्था की राजनीति को क्षीण कर रही है।
2/ जाति की राजनीति समावेशी राजनीति और विकास की राजनीति के लिए मंदक है।
3/ जाति की राजनीति प्रतिभा, कार्य सक्षम और ऊर्जावान सांसदों को हतोत्साहित कर रही है ;और
4/ जाति की राजनीति दलगत राजनीति को बढ़ावा दे रही है।
संसद( सर्वाेच्च पंचायत और लोकतंत्र की मंदिर) को सामूहिक विचार – विमर्श, और विकासोन्मुखी सदन के रूप में प्रासंगिकता को बढ़ाया जाए। प्रत्येक राजनीतिक दल राष्ट्रीय विषयों, मुद्दों, विकास और समावेशी विकास पर ध्यान बढ़ाए जिससे भारतश् विश्व गुरुश् औरश् विकसित राष्ट्र- राज्यश् का लक्ष्य प्राप्त कर सके।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं। आलेख के व्यक्त विचार आपके निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)