ईरानी कट्टरपंथ व पूंजीवाद दोनों ‘जान, जिंदगी, आजादी’ के दुश्मन

ईरानी कट्टरपंथ व पूंजीवाद दोनों ‘जान, जिंदगी, आजादी’ के दुश्मन

एम असीम

बीते 13 सितंबर को ईरान की ‘नैतिक पुलिस’ ने 22 साला कुर्द युवती जीना महसा अमीनी को तेहरान में रूसरी (हिजाब) सही से न पहनने के इल्जाम में गिरफ्तार कर उसकी इतनी पिटाई की कि 16 सितंबर को उसकी मौत हो गई। 17 सितंबर को अमीनी के कुर्दिस्तानी गृहनगर साजेग में उसके जनाजे के वक्त ही इस निर्मम कत्ल के खिलाफ भारी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जिन पर पुलिस ने गोली चलाई और एक 10 वर्षीय बच्ची की सिर में गोली मार निर्मम हत्या कर दी। इसके बाद विरोध पूरे इरान में फैल गया और अभी तक प्रबलता से जारी है। लाखों की तादाद में ईरानी स्त्रियां, व पुरुष, इनमें शामिल हो रहे हैं। बहुत सी स्त्रियों ने इस विरोध के दौरान सार्वजनिक रूप से अपनी रूसरी (हिजाब) उतार उनकी होली जलाई है और अपने लंबे बाल काट लिए हैं। इसमें स्कूली छात्राओं से लेकर बुजुर्ग स्त्रियां तक शामिल हैं। बहुत बड़ी संख्या में ईरानी पुरुष भी इन स्त्रियों के साथ एकजुट हो गए हैं। उधर पहले तो ईरानी शासकों ने अमीनी को मौत को हृदयाघात का नतीजा बताया, फिर 7 अक्टूबर को एक सरकारी मेडिकल बोर्ड ने कहा है कि यह मृत्यु पिटाई से नहीं, बचपन मे उसके सिर में हुए कैंसर से हुई है।

ईरानी सत्ता ने इस विरोध को कुचलने के लिए भारी दमन किया है। एक ओर, इरानी शासक अयातुल्लाह खामेनेई व राष्ट्रपति रईसी इसे अमरीका-इजरायल की इस्लाम विरोधी विदेशी साजिश बता आम धार्मिक लोगों को इसके खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरी ओर, आम व सशस्त्र पुलिस ही नहीं, तथाकथित इस्लामी ‘रेवलूशनेरी गार्ड्स’ जो इरानी कट्टरपंथी पूंजीवादी सत्ता के दमन का मुख्य औजार राजनीतिक स्टॉर्मट्रूपर पुलिस दस्ता है, को भी इस विरोध के दमन में झोंक दिया गया है। ये इसके लिए पिटाई, आंसू गैस से गोलीबारी तक सभी हरबों-हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस दमन के दौरान होने वाली मौतों की तादाद 200 से ऊपर पहुंच गई है। हजारों को गिरफ्तार किया गया है। हुकूमत ने सूचना प्रवाह रोकने हेतु इंटरनेट तक बंद कर दिया है। ईरानी हुकूमत ने खास तौर पर अल्पसंख्यक कुर्द इलाकों में जबर्दस्त दमन चक्र चलाया हुआ है। मगर विरोध को न सिर्फ कुचला नहीं जा सका है, बल्कि इसमें भागीदारी बढ़ती गई है। हिजाब संबंधी कानूनों की समाप्ति के साथ ही इसमें आर्थिक असमानता व भ्रष्टाचार का सवाल भी जुड़ गया है और तथाकथित ‘इस्लामी गणतंत्र’ को खत्म करने की मांग भी शामिल हो गई है। छात्रों-शिक्षकों से लेकर मजदूर तक आंदोलन की हिमायत में हड़तालें कर रहे हैं।

इस विरोध आंदोलन के दो प्रमुख नारे ऊपर दिए गए हैं। निश्चय ही इस आंदोलन की बुनियाद हिजाब की जबर्दस्ती का विरोध है। मगर ऊपर दिए गए ये नारे बताते हैं कि ये आंदोलन वो भी नहीं है जो अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादी मीडिया दिखाना चाहता है। निश्चय ही ये खोमैनी से खामेनेई नेतृत्व वाले ‘इस्लामी गणतंत्र’ के खिलाफ विद्रोह है, मगर ये किसी अमरीकी साम्राज्यवाद हिमायती ‘शाही’ हुकूमत के पक्ष में भी नहीं है जैसा साम्राज्यवादी मीडिया प्रचारित कर रहा है। निश्चय ही ये कट्टरपंथी हुकूमत के खिलाफ जीने की आजादी या जनवादी अधिकारों के लिए विद्रोह है। किंतु यह उस ‘जनतंत्र’ के लिए भी विद्रोह नहीं है जिसे अमरीकी साम्राज्यवादी फौजी तख्तापलट, दखलंदाजी, बमबारी व निर्मम कत्ल-ओ-गारत के जरिए बहुत से देशों में स्थापित करते आए हैं। निश्चय ही अभी यह तय होना बाकी है कि इस विरोध का नेतृत्व किसके पास है। पर इतना तो तय है कि अमरीकी-नाटो एजेंसियां व मीडिया अपने अमरीका-यूरोप में बैठे जिन भाड़े के एजेंटों को इसका नेता बता रही हैं, वे इस विरोध के नेता नहीं है। इस आंदोलन का चरित्र समझने के लिए पहले इसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य जानना चाहिए।

1953 में ईरानी जनता ने वहां पहले से कायम और औपनिवेशिक ब्रिटेन व अमरीकी साम्राज्यवाद समर्थित पहलवी राजशाही को उखाड़ फेंक एक राष्ट्रीय जनतंत्र स्थापित कर लिया था और मोहम्मद मुसद्देग के नेतृत्व में चुनी गई सरकार बनी थी। इस सरकार ने देश के संसाधनों को साम्राज्यवादी पूंजी के आधिपत्य से निकालने का प्रयास किया। मगर जैसे ही उसने अमरीकी ब्रिटिश कंपनियों से ईरानी तेल उद्योग को अपने कब्जे में लेना शुरू कर एंग्लो इरानियन ऑयल कंपनी का राष्ट्रीयकरण किया, साम्राज्यवादी ताकतों की मदद से फौजी तख्तापलट द्वारा फिर से पहलवी शाह खानदान को निरंकुश शासन सौंप दिया गया।

शाह के शासन में पुराने सामंती अभिजात वर्ग और साम्राज्यवादी पूंजी के दलाल एक छोटे से अमीर तबके की ऐसी स्थिति जरूर थी जिसके बारे में तेहरान के तत्कालीन आजाद व खुले जीवन की फैशनेबल तस्वीरें हम सोशल मीडिया पर प्रचारित होते हुए देखते हैं। उनसे ऐसा लगता है कि वह शासन बहुत आधुनिक, प्रगतिशील, समान व जनवादी अधिकारों वाला था और उसमें स्त्रियों को भी पूरी आजादी व जनवादी अधिकार प्राप्त थे। किंतु वास्तविक तथ्य है कि उस शाही निजाम में इरान की अधिसंख्य आम मेहनतकश जनता वैसे किसी आजाद फैशनेबल स्वर्गीय वातावरण में नहीं, साम्राज्यवादी पूंजी व सामंती अभिजात वर्ग द्वारा घोर शोषण, गरीबी व उत्पीड़न की शिकार थी और उसे कोई जनवादी अधिकार व आजादी हासिल नहीं थी। पहलवी शासन की सावाक नामक गुप्त पुलिस एजेंसी अपनी नृशंसता के लिए कुख्यात थी। अंततः 1970 के दशक में मजदूर वर्ग व आम मेहनतकश अवाम ने इसके खिलाफ विद्रोह कर दिया। 1977 में मजदूरों ने एक बड़ी आम हड़ताल की और 1979 में शाह को उखाड़ फेंका। पर इस विद्रोह में बड़ी भूमिका निभाने वाली मजदूर वर्गीय तूदेह पार्टी सोवियत संशोधनवादी प्रभाव में होने से अपनी वैचारिक व सांगठनिक कमजोरियों के चलते वहां सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित करने में नाकाम रही।

सुविदित है कि पहले साम्राज्यवादी विश्व युद्ध व 1917 की रूसी सर्वहारा समाजवादी क्रांति के बाद से ही दुनिया भर में उपनिवेशवाद-साम्राज्यवाद के विरुद्ध खड़े हो रहे राष्ट्रीय व जनवादी मुक्ति संघर्षों को कमजोर व इनके समर्थन में जुटती जनता को गुमराह करने के लिए ब्रिटेन, फ्रांस, अमरीका, आदि के औपनिवेशिक शासकों ने हर प्रकार के कट्टरपंथी, प्रतिगामी तत्वों का इस्तेमाल किया था। अरब इलाकों व फारस की खाड़ी सहित पूरे पश्चिम व मध्य एशिया में यहूदी जायनवादी व कट्टर इस्लामी मुल्लाशाही दोनों ने ही मजदूर वर्ग व जनवादी मुहिमों के खिलाफ इस साम्राज्यवादी साजिश में अपनी भूमिका निभाई। इजरायल से अफगानिस्तान तक इस पूरे क्षेत्र का पिछली एक सदी का इतिहास इसका गवाह है। निश्चय ही धार्मिक कट्टरता के सामंती मूल्यों के रूप में इरान में भी इसका एक आधार पहले से मौजूद था। साथ ही पहलवी शासन में अभिजात शासक वर्ग के पतनशील आधुनिकता वाले जीवन की प्रतिक्रिया में इस्लाम आधारित प्रतिगामी विचार भी वहां के समाज में जगह बना रहा था।

इरान में भी शाह के पतन पश्चात किसी मजदूर वर्गीय या जनवादी सत्ता के जोखिम से बचने हेतु ऐसे मौके के लिए ही पहले से पेरिस में बैठे साम्राज्यवादी मोहरे अयातुल्लाह खोमैनी को आगे किया गया। अमरीकी-यूरोपीय मीडिया में उन्हें शाह विरोधी संघर्ष का नेता प्रचारित किया गया। तूदेह पार्टी के कमजोर वैचारिक नेतृत्व में प्रतिगामी विचारों के प्रभाव वाले इरानी मजदूर वर्ग में खोमैनी को स्वीकृति दिलाने के लिए उनके इंटरव्यू आने लगे कि इस्लाम ही श्रमिकों का सच्चा हितैषी है। इसके लिए मोहम्मद साहब का मजदूर का पसीना सूखने से पहले ही मजदूरी भुगतान वाला मशहूर कथन भी जोरों से उद्धृत किया जाने लगा। नमाज पढ़ते मजदूरों के फोटो के साथ “इस्लाम ही श्रमिकों का एकमात्र दोस्त है” के नारे वाले बहुत से पोस्टर लगाए गए। खोमैनी ने साम्राज्यवादी मीडिया को बताया कि उनके इस्लामी शासन में मजदूरों को यूनियन बनाने से लेकर उचित मजदूरी, सुरक्षा व तमाम श्रमिक कल्याणकारी योजनाओं के जरिए श्रम व जनवादी अधिकारों की गारंटी की जाएगी,

“इस्लामी गणतंत्र में श्रमिकों को संगठित होने व अपने ट्रेड यूनियन अधिकारों की हिफाजत का हक होगा। इरान के वंचित मजदूर, जिनमें अधिकांश धार्मिक, गरीब व भूखे किसान हैं, को अपने हकूक के लिए हर मुमकिन व वैध तरीकों से संघर्ष का अधिकार होगा।”

अंततः खोमैनी ने पेरिस से तेहरान पहुंच कर सत्ता हथियाई। इस सत्ता ने अपने पूर्व प्रचार के ठीक उलट मजदूरों व अन्य जनवादी अधिकार मांगने वालों पर बेहद जुल्म ढाना शुरू किया, बहुतों का कत्ल कराया और कितनों ही को लंबे दौर के लिए जेलों में डाल दिया गया या उन्हें मुल्क छोड़ कर भागना पड़ा। यह अलग बात है कि सत्ता मिल जाने पर अमरीकी पिट्ठू पहलवी शाह विरोधी जनता का समर्थन पाने के लिए यह मोहरा अपने साम्राज्यवादी कंट्रोलरों के हाथ से भी बाहर निकल गया और उसने अमरीका विरोधी पोजीशन अपना ली।

सभी धर्म दावा करते हैं कि वे गरीबों मेहनतकशों के सच्चे हितैषी हैं। हिंदू राष्ट्र वाले वसुधैव कुटुम्बकम बताते नहीं थकते हैं, तो बौद्ध धर्म वाले बुद्ध को मार्क्स से भी बड़ा ‘साम्य’वादी कहते हैं। वहीं बताया जाता है कि ईसा मसीह ने तो कहा था कि सुईं की नोक में से हाथी निकल सकता है मगर अमीर जन्नत के दरवाजे से पार नहीं हो सकते क्योंकि स्वर्ग के राज्य के अधिकारी गरीब लोग ही होंगे! पर वास्तविकता क्या है? हिंदू राष्ट्र हो या बौद्ध, ईसाई राष्ट्र हो या इस्लामी, सभी शोषकों व शोषितों, पूंजीपतियों व मजदूरों, में वर्ग विभाजित हैं और सभी में राजसत्ता मजदूरों के शोषण व पूंजीपतियों के मुनाफे की गारंटी पर ही टिकी है। अन्य सभी की भांति इरान के इस्लामी गणतंत्र में भी वही होना स्वाभाविक व अवश्यंभावी था, और हुआ। मजदूरों व आम मेहनतकश जनता के जीवन को कट्टरपंथी मुल्लाओं के नेतृत्व वाले इरानी पूंजीवादी शासकों के शोषण व अमरीकी साम्राज्यवाद के प्रतिबंधों ने मिलकर बेहद तकलीफदेह बना दिया है। इरानी श्रमिक कार्यकर्ता सादिक कारगर के शब्दों में,

“उत्पीड़ित शासक नहीं बने, वे और उत्पीड़ित हो गए। श्रम कानून खत्म कर दिए गए। मजदूरों के हड़ताल करते ही, अत्याचारी स्पेशल पुलिस उनसे निपटने लगी। मजदूरों को कोड़े लगाए जाते हैं, कैद किया जाता है, यूनियन के लिए 10 साल जेल में डाला जाता है ३ । पुराने शासकों की जगह नए सरमायेदारों ने ली है जो शोषितों के साथ और भी बुरा, अधिक हिंसक, अधिक निर्मम, और अधिक अमानवीय सुलूक करते हैं। सच्चाई यह है कि सौ साल के संघर्षों और प्रयासों से श्रमिकों ने जो कुछ भी हासिल किया था, वह सब उन्होंने इस्लामी गणतंत्र में गंवा दिया है।”

इस्लामी गणतंत्र के शासन में आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। बड़े पैमाने पर बाल श्रमिक हैं। बहुत से मेहनतकश लोग मांस, रोटी, दूध, आदि जरूरी चीजों के लिए भी मोहताजी का जीवन जीने के लिए विवश हैं। बड़े पैमाने पर बेघर लोग हैं जो सड़कों से लेकर वीरान कब्रों तक में शरण लेने को मजबूर हैं। दूसरी ओर, सत्ताधारी भारी ऐशोआराम का जीवन गुजर रहे हैं, मर्सिडीज में बैठते हैं, पार्टियां करते हैं, स्विस बैंकों में पैसा रखते हैं और उनके बच्चे हिजाब के बंधन से मुक्त देशों में पढ़ते हैं।

पर इस्लामी गणतंत्र का सर्वाधिक दुष्प्रभाव स्त्रियों को सहना पड़ा है। स्त्रियों की आजादी को सीमित करने वाले शरिया कानूनों और तथाकथित ‘नैतिक पुलिस’ ने उन्हें जीवन के हर क्षेत्र दृ स्कूल-कॉलेज, सार्वजनिक यातायात, मनोरंजन स्थलों, कार्य स्थल दृ हर जगह उनकी स्थिति को दोयम बना दिया है। लैंगिक अलगाव की नीति से बहुत से स्थान उनकी पहुंच से दूर हो कर दिए गए हैं। शिक्षा में कई पाठ्यक्रम उनके लिए मना हो गए हैं और कई किस्म की नौकरियों में उनका जाना मना है। विवाह कानूनों में परिवर्तन के जरिए परिवार में भी उनकी स्थिति कमजोर बना दी गई है। यहां तक कि जन्म प्रमाणपत्र पर सिर्फ पिता का नाम होने से माताओं को बच्चों पर कोई कानूनी अधिकार ही समाप्त कर दिया गया है। इस सबके ऊपर ‘नैतिक पुलिस’ लगातार उनके जीवन व व्यवहार को नियंत्रित करती है, जिसका नतीजा महसा अमीनी जैसे निर्मम जुल्म हैं।

इस दक्षिणपंथी मुल्लाशाही शासन के जुल्म व हिजाब नियमों के खिलाफ स्त्रियों के विरोध पहले भी होते रहे हैं। पर ये पहले ये मुख्यतः तेहरान व अन्य बड़े शहरों तक सीमित रहे हैं। इस में अधिकांशतः उच्च व मध्य वर्ग की स्त्रियां ही शामिल रही हैं। 2009 के चुनाव के बाद हुए ग्रीन मूवमेंट का मुख्य आधार भी ‘पश्चिम’ समर्थक उच्च मध्य वर्ग ही था। पर हाल के सालों में इस स्थिति में परिवर्तन आया है और विरोध का मुख्य आधार मजदूर वर्ग बन गया है। 2019 के पेट्रोल कीमतों वृद्धि व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (जिस पर सख्त दमन में हजारों मौतें हुईं थीं) के वक्त से मौजूदा सत्ता विरोध का मुख्य आधार इरानी मजदूर वर्ग बन गया है। उस आंदोलन के बाद खुजेस्तान में मजदूरों की बड़ी हड़तालें भी हो चुकी हैं।

फिर महसा अमीनी कुर्द थीं। सभी पूंजीवादी देशों की तरह इरान में भी अल्पसंख्यक होने के कारण कुर्द आबादी और भी अधिक अत्याचार का शिकार हैं। अमीनी कुर्द बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी वाले शहर साजेग की रहने वाली थीं। उनकी निर्मम हत्या के खिलाफ साजेग में फूट पडे स्त्रियों व आम मेहनतकश कुर्दों के गुस्से के साथ इस बार विभिन्न इरानी मजदूर संगठन मजबूती से खड़े हुए हैं। ट्रेड यूनियनों व शिक्षकों की कोआर्डिनेशन काउंसिल 26 व 28 सितंबर को दो बार हडताल का आह्वान कर चुकी है। दिसंबर 21 में वेतन बढाने के लिए आंदोलन के बाद भारी दमन झेल चुके शिक्षक इस विरोध में प्रोग्रेसिव फीमेल स्टूडेंट्स जैसे संगठनों की अपनी छात्राओं के साथ खड़े हैं और कैस्पियन सागर के किनारे अबादान के पेट्रोलियम उद्योग के ऑयल कांट्रैक्ट वर्कर्स यूनियन भी प्रदर्शन कर रहे हैं और दमन न रुकने पर हडताल की चेतावनी दे रहे हैं। 15 विश्वविद्यालयों के छात्र भी रूसरी व भ्रष्टाचार विरोध जैसी मांगों पर हड़ताल कर रहे हैं।

इस विरोध के नारे बताते हैं अब यह सिर्फ रूसरी के सवाल तक महदूद नहीं रह गया है बल्कि इरान की बहुसंख्यक आबादी के तकलीफदेह जीवन के खिलाफ आजादी और जनवादी व श्रमिक अधिकारों के लिए एक व्यापक जनसंघर्ष बन गया है। अब इस विरोध का नारा इस्लामिक गणतंत्र के बजाय एक वास्तविक जनतंत्र की स्थापना बन गया है जिसमें सभी को जनवादी अधिकारों के साथ जीने की आजादी हो। मगर याद रहे कि यह कोई इस्लाम विरोधी आंदोलन भी नहीं है, न ही अब यह मात्र एक वस्त्र संबंधी आंदोलन रह गया है। यह किसी भी प्रकार की अनिवार्यता व जबर्दस्ती के खिलाफ संघर्ष है। इसी वजह से इरान में बहुत से धार्मिक विश्वास वाले हिजाबी-निकाबी लोग भी इस्लामी गणतंत्र में हिजाब अनिवार्यता जैसे जुल्म के विरोध में खड़े हो गए हैं। बल्कि बहुत से धार्मिक विश्वास वाले लोगों द्वारा तक जालिम ‘इस्लामी गणतंत्र’ के खिलाफ यह नारा लगाया जा रहा है दृ ‘हुसैन, हुसैन! यजीद अब रेवलूशनेरी गार्ड बन गया है!’ इस प्रकार कुर्द क्षेत्र की स्त्रियों व मजदूर वर्ग के बीच शुरू विरोध अब फारसी, कुर्द, अजेरी, राशती, अरब, लुर, आर्मिनियाई, बलोच, आदि विभिन्न राष्ट्रीयताओं, समुदायों, वर्गों का एक सामूहिक सेकुलर विरोध बन गया है।

निश्चित ही अमरीकी-यूरोपीय साम्राज्यवादी फारस की खाड़ी के मुहाने पर स्थित पेट्रोलियम धनी इरान की हालिया स्थिति में अपनी हिमायती सत्ता कायम करने के लिए दखलंदाजी का मौका देख रहे हैं। पिछले एक साल से बाइडेन प्रशासन परमाणु समझौते को दोबारा जिंदा कर इरानी सत्ता के साथ नए समीकरण बनाने के प्रयास में जुटा था ताकि उसे चीनी-रूसी खेमे से दूर रखा जा सके। पर यह वार्ता अब असफल हो गई है। अतः वे वहां सत्ता बदलाव हेतु दखलंदाजी का अवसर ढूंढ रहे हैं। साम्राज्यवादी मीडिया द्वारा इस विरोध का इस्लाम विरोधी एनजीओवादीकरण न सिर्फ इरानी स्त्रियों व आम मेहनतकश लोगों के संघर्ष की मदद नहीं करेगा, बल्कि उलटा यह इसे नुकसान पहुंचायेगा, क्योंकि मौजूदा मुल्लाओं की सत्ता व अमरीकी साम्राज्यवाद दोनों इस विरोध की नजर में इरानी जनता के मित्र नहीं हैं।

साम्राज्यवादी शक्तियां अमरीका में रहने वाले पूर्व रजाशाह पहलवी परिवार या इरान-इराक जंग दौरान सीआईए द्वारा खड़े किए गए आतंकवादी संगठन मुजाहिदीन-ए-खल्क की अब फ्रांस में बैठ नारीवादी अवतार लेने वाली मरयम रजावी या ट्रंप प्रशासन में रही पूर्व इरानी मसीह अलीनजाद जैसे अपने कई मोहरों को इस आंदोलन के नेता तौर पर आगे बढाने का प्रयास कर रही हैं। पर ये सब साम्राज्यवादी पिट्ठू इरानी जनता के लिए मौजूदा शासन से भी बदतर सिद्ध हो सकते हैं।

ईरानी जनता इस वक्त अपने जनवादी अधिकारों और आजादी की लडाई लड़ रही है। इरान के बाहर इससे एकजुटता व हमदर्दी रखने वालों को इसमें साम्राज्यवादी दखलंदाजी का विरोध करना और साम्राज्यवादी मीडिया द्वारा इसके चरित्र के बारे में दुष्प्रचार का भांडाफोड़ करना इस वक्त मुख्य जिम्मेदारी बनती है। अभी इस आंदोलन का नतीजा क्या होगा यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता क्योंकि अभी तक इसे नेतृत्व देने के लिए कोई मजबूत संगठित राजनीतिक शक्ति की मौजूदगी नजर नहीं आई है। हालांकि बहुत से मजदूर वर्ग संगठन व कार्यकर्ता अपने स्तर पर इस मुहिम में जुटे हुए हैं, पर अभी तक की रिपोर्ट यही बताती हैं कि विरोध का मुख्य आधार अभी तक स्वतःस्फूर्त गुस्सा व असंतोष ही है और इसे संगठित करने वाली ताकतें अभी बहुत बिखरी हुई हैं।

पर इस वक्त अपनी ‘जान, जिंदगी, आजादी’ के लिए लड़ाई में कट्टरपंथी ‘इस्लामी गणतंत्र’ का जुल्म झेलती इरानी स्त्रियों और सभी इरानी मेहनतकशों को अपने ही पड़ोसी मध्य एशिया में स्थित पूर्व सोवियत समाजवादी गणराज्यों दृ उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, अजरबैजान, आदि दृ के सौ साल पहले 1920 के दशक के इतिहास को जानना चाहिए, ताकि उन्हें पता चले कि उस समय ठीक यही लड़ाई वहां कैसे जीती गई थी। उस समय तक इन क्षेत्रों की स्त्रियों की स्थिति बेहद दासता से भरी थी। वे न शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं, न अपनी पसंद से जीवनसाथी चुन सकती थीं। उन्हें घर से बाहर निकलते हुए घोड़े के बालों से बना परंजा या लंबा पर्दा सिर पर ओढ़ना पड़ता था। उल्लंघन होने पर स्त्रियों को पिटाई, कत्ल, बलात्कार, आदि ‘सजायें’ दी जाती थी। जमींदार गरीब परिवार की किसी भी स्त्री से जबर्दस्ती शादी कर लेते थे और इंकार करने पर स्त्री व उसके परिवार को भारी जुल्म झेलना पड़ता था। इस जुल्म में सामंती तंत्र को मुल्लाशाही का पूरा सहयोग हासिल था।

मगर वहां मजदूर वर्ग की सोवियत समाजवादी सत्ता आने के बाद स्त्रियों के साथ ऐसे जुल्म करने वालों को सख्त सजायें दी जाने लगीं। स्त्रियों को अपनी मर्जी से फैसले लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा। अंततः 8 मार्च 1928 के अंतर्राष्ट्रीय महिला कामगार दिवस को बुखारा, समरकन्द जैसे शहरों में स्त्रियों को पर्दा उतारने को प्रोत्साहित करने हेतु सार्वजनिक स्थलों पर मंच बना उनका स्वागत किया गया। इस दिन बहुत सी स्त्रियों ने अपना पर्दा उतार दिया और उसके बाद मध्य एशिया के इन गणराज्यों में परदे की अनिवार्यता और सामाजिक दबाव समाप्त हो गया तथा तब से ही पर्दा प्रथा बिना किसी सरकारी दबाव के खुद ही कम होती चली गई क्योंकि इसके आधार के रूप में मौजूद सामाजिक व्यवस्था और सत्ता की ताकत समाप्त हो चुके थे।

यह बताता है कि परदे और स्त्रियों की दोयम सामाजिक स्थिति का सवाल निजी संपत्ति पर टिकी पूरी सामाजिक व्यवस्था व शोषण आधारित सत्ता के ढांचे से जुड़ा सवाल है। इस दोयम स्थिति को समाप्त कर ‘जान, जिंदगी, आजादी’ का अधिकार प्राप्त करने के लिए इरान की स्त्रियों व मेहनतकश जनता को इरानी पूंजीवाद के साथ ही इस पर आधारित इस्लामी गणतंत्र की मुल्लाशाही व अमरीकी साम्राज्यवाद की दखलंदाजी से भी आजाद होना पड़ेगा। तब जो शोषणमुक्त समाज बनेगा उसी में स्त्रियों को अपनी पसंद और चुनाव आधारित जीवन जीने का वास्तविक अधिकार प्राप्त होगा।

(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)

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