दक्षिण का हिंसक आन्दोलन और खालिस्तानी उभार कहीं अमेरिकी कूटनीतिक चाल तो नहीं?

दक्षिण का हिंसक आन्दोलन और खालिस्तानी उभार कहीं अमेरिकी कूटनीतिक चाल तो नहीं?

गौतम चौधरी 

एक ओर पंजाब में खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह शांत हवा में बारूद की गंध घोल रहा है, तो दूसरी ओर सुदूर दक्षिण तमिलनाडु में एक बार फिर से हिन्दी विरोध के नाम हिंसक वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है। यही नहीं पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में फिर से माओवादी चरमपंथी लोकतांत्रिक भारत के खिलाफ जन मिलिशिया को सज्ज करने लगे हैं। एक मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे कई चरमपंथी संगठनों ने बड़ी तेजी से अपना पांव पसारना प्रारंभ कर दिया है। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ मुस्लिम चरमपंथी संगठनों ने मुसलमानों के कमजोर तबके यानी पसमदा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रखा है। एक खुफिया रिपोर्ट में बताया गया है कि झारखंड जैसे प्रदेश में पैसे एकत्रित करने के लिए लगभग तीन लाख गुल्लक बांटे गए हैं, जिसे कारीगर मुसलमानों की दुकान के साथ ही उनके घर पर रखे जाएंगे। इसके माध्यम से बड़ी मात्रा में पैसे एकत्र कर उसे देश तोड़क शक्तियों को मजबूत करने की कोशिश की जाएगी। पूर्वोत्तर में भी आतंकवाद को नए सिरे से खड़े करने की कोशिश हो रही है। नागालैंड में NSCN (IM) गुट के साथ तो केन्द्र सरकार ने समझौता कर रखा लेकिन NSCN (K) को मजबूत बनाने की योजना बनाई जा रही है। असम के पृथकतावादी संगठन ULFA को भी मजबूत करने की कोशिश हो रही है। गौर से देखें तो इन तमाम देश तोड़क और पृथकतावादी ताकतों को मजबूत करने की कोशिश हो रही है। अब सवाल खड़ा होता है कि आखिर वह कौन-सी शक्ति है जो इन तमाम ताकतों को संगठित और मजबूत करने के फिराक में है?

याद करिए, एक समय था जब उक्त तमाम शक्तियां मजबूत थी और ऐसा लग रहा था कि देश का विभाजन हो जाएगा। उस समय देश में राजनीतिक अस्थिरता थी। प्रधानमंत्री के कार्यकाल भी छोटे-छोटे हो रहे थे। डाॅ. मनमोहन सिंह की सरकार के समय 10 वर्ष तक राजनीतिक स्थिरता रही। उस दौरान देश की आंतरिक सुरक्षा में बड़े पैमाने पर बदलाव किया गया। यही नहीं देश का शीर्ष नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर झुका। मसलन, डाॅ. मनमोहन सरकार ने भारत के अंदर बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधार के नाम पर अमेरिकी हित वाली नीति को लागू कर दिया। यहां तक कि सरकार समर्थक वामपंथियों के लाख विरोध के बाद भी अमेरिकी सरकार के दबाव में मनमोहन सरकार ने परमाणु दायितव विधेयक भी पारित कर दिया। इसके कारण अमेरिकी प्रशासन में भारत के प्रति विश्वास बढ़ा और देखते ही देखते तमाम प्रकार की पृथक्तावादी शक्तियां कमजोर पड़ गयी। 10 वर्ष तक शासन करने के बाद वर्ष 2014 में डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन बुरी तरह चुनाव हार गया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की जीत हुई। इस जीत के बाद मोदी देश के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री बनने के साथ नरेन्द्र मोदी ने डाॅ. मनमोहन सिंह से छूट गए कामों को पूरा करना प्रारंभ किया और आर्थिक सुधार के काम को आगे बढ़ाया।

आर्थिक सुधार का काम नरेन्द्र मोदी पार्ट 2 में भी जारी है लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत की विदेश नीति से अमेरिका क्षुब्ध है। यही नहीं नरेन्द्र मोदी पार्ट 2 में भारत ने एक बार फिर से ब्रिक्स देशों को संगठित करने की दिशा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना प्रारंभ कर दिया है। इसके साथ ही भारत ने चीनी कूटनीतिक अभियान, शंघाई सहयोग संगठन में प्रभावशाली भूमिका निभाना प्रारंभ कर दिया है। भारत, अमेरिकी डाॅलर के खिलाफ चलाए जा रहे वैश्विक अभियान में भी तसल्ली से हिस्सा ले रहा है। मोदी सरकार पार्ट 2 के इन गतिविधियों ने अमेरिकी प्रशासन के कान खड़े कर दिए हैं। इसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ेगा।

गौर से देखें तो जब से अमेरिका में जो बिडेन की सरकार बनी है तब से अमेरिकी लाॅबी भारत को लगातार घेरने की योजना पर काम कर रहा है। विगत दिनों कई अमेरिकी कूटनीतिक संगठनों ने भारत के खिलाफ वैश्विक अभियान चलाने की कोशिश की। दुनिया में इन दिनों भारत के खिलाफ अभियान चलाने वाले बुद्धिजीवियों और रणनीतिक संगठनों का सबसे बड़ा पनाहगाह अमेरिका बन कर उभरा है। कई मामलों में तो यह चीन और दुश्मन देश पाकिस्तान से भी आगे निकल गया है। जानकारों की मानें तो भारत के प्रशासनिक ढ़ांचे, राजनीति, व्यापार और कानूनी संस्थाओं में बड़े पैमाने पर अमेरिकी लाॅबी की पैठ है। बड़े पैमाने पर NGO लाॅबी भारत के जनमन को प्रभावित करता है। स्वयंसेवी संगठनों में भी अमेरिकी काॅरपोरेट के पैसे लगे हुए हैं। यही नहीं भारत के कई बड़े धार्मिक संगठनों में भी अमेरिकी लाॅबी की पहुंच है। नरेन्द्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में जो एक तटस्थ विदेशी नीति और भारत केन्द्रित अर्थ नीति का प्रभाव बढ़ा है, उससे अमेरिका के रणनीतिकार घबड़ाए हुए हैं। उन्हें लगने लगा है कि यदि भारत में यही चलता रहा तो बहुत जल्द भारत, चीन की तरह उसके लिए चुनौती खड़ा कर सकता है। भारत की आर्थिक प्रगति को रोकने के लिए अमेरिकी लाॅबी भारत में फिर से अस्थिरता पैदा करना चाहता है। अमेरिका भारत में कमजोर और कठपुतली सरकार चाहता है। दूसरी ओर पृथकतावाद व चरमपंथ को हवा देने के फिराक में है। साथ ही उसको मजबूत करने के लिए बुद्धिजीवियों की नई पौध लगाने की कोशिश प्रारंभ किया है। दक्षिण का हिन्दी विरोधी हिंसक आन्दोलन, पंजाब में चरमपंथी उभार एवं मध्य-पूर्व भारत में माओवादी हमलों में बढ़ोतरी, नरेन्द्र मोदी सरकार को अस्थिर करने की अमेरिकी चाल है। इस बात को समझने की जरूरत है। यदि अभी न समझे तो हम लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की तरह नरेन्द्र मोदी को भी खो देंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »