अनिल धर्मदेश
इसराइल ने 13 अक्टूबर को गाजा में इंटरनेट बंद कर दिया क्योंकि उसकी सुरक्षा एजेंसियों को इसके गलत इस्तेमाल की सूचनाएं मिल रही थीं। गाजा में रह रहे करीब 22 लाख लोगों में 22 लोग भी ऐसे नहीं थे जिन्होंने इसराइल के आग्रह और पुरस्कार-घोषणा के बाद भी उसे बंधकों या हमास के सुरंगों की कोई सूचना उपलब्ध कराई हो। यह कौन से सामान्य नागरिक हैं जिन्हें मानवता के मापदंड तभी याद आते हैं, जब उनका जीवन खुद के समाज की करतूतों के प्रतिरोध के कारण उपजी विपत्ति में घिर जाता है जबकि स्वयं के समाज की अमानवीयता के विरुद्ध सार्वजनिक क्या, गुप्त रूप से बोलने वाला भी एक व्यक्ति नहीं मिलता।
तो क्या यह घोर चुप्पी, यह व्यापक और प्रचंड गोपनीयता स्वयं में एक षड्यंत्र नहीं है? सात अक्टूबर को हमास के 2000 आतंकियों ने इजराइल में नरसंहार किया। 20 मिनट में पांच हजार रॉकेट दागने के लिए भी कम से कम एक हजार आतंकी लगे होंगे। इन तीन हजार लोगों में सैकड़ों के परिवार और मित्रों को इजराइल पर हमले के पहले ही इस षड्यंत्र की जानकारी रही होगी। छोटे से भू-भाग में बसी घनी आबादी वाले गाजा में हजारों लोग हमास के ठिकानों व सुरंगों की जानकारी रखते होंगे। उनमें से किसी एक ने भी यदि सात अक्टूबर के आतंकी हमले की गुप्त सूचना ही कर दी होती तो आज गाजा पर हजारों बम नहीं गिरे होते।
विश्व के समक्ष दशमलव जनसंख्या वाले यहूदी समाज का यह प्रतिरोध अप्राकृतिक नहीं है क्योंकि तीन हजार वर्षों के इतिहास में उन्होंने धार्मिक विस्तारवाद के नाम पर कभी दूसरे देशों पर कब्जा नहीं जमाया, उनकी जनसांख्यिकी नहीं बदली। उन्हें परिस्थितियों ने अस्तित्व-रक्षा के लिए शत्रु के समूल नाश का पाठ ही सिखाया है। ऐसे में हमास पर इजराइल के तेवर ढीले पड़ें, यह संभव नहीं लगता बल्कि इजराइल किसी नैरेटिव के माध्यम से हमास को बचाने वालों को भी निशाने पर लेने से नहीं चूकेगा। यदि निर्दोषों और अपराधियों का विभक्तिकरण इतना ही सरल होता तो विश्व में बार-बार मानवीयता संकट में नहीं आती। अपने देश-समाज के अपराधों का मूक समर्थन करने वालों को भी अपराधी के समान ही दंड का भागी बनना पड़ता है अन्यथा कौन नहीं जानता कि कतर-ओमान जैसे देशों में हमास जैसे अनेक आतंकी संगठनों का प्रमुख कार्यालय बना हुआ है।
हमास और गाजा को लेकर संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी देशों का रवैया अभी तक ढुलमुल है और वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से दोनों ही पक्षों के साथ खड़े हैं। कॅरोना, लॉकडाउन और प्रचंड बाजारवाद के कारण पहले ही जबरदस्त आर्थिक मंदी झेल रहे पश्चिम के लिए इस समय युद्ध अवहनीय है। इजराइल के प्रतिरोध की लपटों में ईरान और हिजबुल्ला जिस प्रकार हमास के समर्थन का घी डाल रहे हैं, ऐसे में इस संघर्ष के विस्तार को नकारा नहीं जा सकता। यही वह डर है जिसके कारण पश्चिमी देश खाड़ी व ओपेक के दबाव हैं और गाजा को बार-बार अहमियत दी जा रही है। पश्चिम के स्वार्थ और विवशता के कारण ही इजराइल के साथ खड़े देश भी लगातार फिलिस्तीन और गाजा के नाम पर आतंक के प्रति एक पूरे समाज की एकजुटता के विरुद्ध स्पष्ट रूप से मुखर नहीं हो पा रहे जबकि धार्मिक एकजुटता की अंधी भाग के कारण खाड़ी और ओपेक देशों की हमास के प्रति अस्पष्टता भी सर्वविदित है।
इसी देखादेखी के दबाव में भारत भी गाजा के नागरिकों के हित की बात करने को विवश दिख रहा है। हमास के हमले की सबसे पहले और कठोर आलोचना करने वाले भारत की कूटनीति पर भी पश्चिम, खाड़ी और ओपेक देशों के स्वार्थ का प्रभाव कहीं न कहीं परिलक्षित होने लगा है। अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे छोटे से इजराइल ने दोहरी नीति को लेकर संयुक्त राष्ट्र तक को आइना दिखाया है, ऐसे समय पर अच्छे-बुरे आतंकवाद के लिए दुनिया को कटघरे में खड़ा करने वाले भारत को भी यह सिद्ध करना होगा कि वह किसी भी प्रपंच के दबाव में आतंकवाद से समझौता करने को तैयार नहीं है। इजराइल में सात अक्टूबर को हुए नरसंहार की तरह ही भारत में भी गोधरा रेल कांड हुआ था जिसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल करीब डेढ़ हजार लोगों और उनके परिवारों-मित्रों ने भी गाजा के लोगों जैसी ही प्रचंड धार्मिक गोपनीयता अपनायी और घटना के पहले किसी को इसके होने की भनक तक नहीं लगने दी। परिणामस्वरूप पूरा गुजरात प्रतिरोध की आग में जल उठा।
धार्मिक कट्टरवाद में शेष विश्व के विरुद्ध वैमनस्यता को आतंकवाद ने जिस प्रकार का व्यावस्थित सैन्य स्वरूप दे दिया है, उसके विरुद्ध भारत जैसे आतंकवाद से त्रस्त देश को प्रत्येक दशा में वैचारिक स्थायित्व का परिचय देना चाहिए। विश्व के प्रति दृष्टिकोण के पटल पर भारत और इजराइल के बीच सांस्कृतिक एकरूपता के साथ ही प्रताड़ना झेलने की भी समानता है। विश्व में दोनों ही देशों के बहुसंख्यक अन्य धर्मों की अपेक्षा संख्या में बहुत कम भी हैं और आतंकवाद के विषय पर दोनों देशों का कोई अन्य स्वार्थ भी नहीं है। हमास के विरुद्ध इजराइल की कार्रवाई पूरी दुनिया के सामान्य नागरिकों के लिए एक नजीर बनेगी कि किसी सशक्त देश या धार्मिक कट्टरवाद के समर्थन में अन्याय व अत्याचार पर चुप्पी साधकर उसे मूक समर्थन देने वालों को भी किसी मोड़ पर कठोर दंड का भागी बनना पड़ता है।
(आलेख में व्यक्त लेखक के विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)