गौतम चौधरी
इन दिनों झारखंड सहित पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी अपने हार की समीक्षा कर रही है। विगत दिनों हार की समीक्षा के दौरान भाजपा के प्रदेश स्तरीय एक नेता ने आरोप लगाया कि इस चुनाव के दौरान खूंटी लोकसभा में कुछ विदेशी एजेंसियों ने चुनाव को प्रभावित किया, जिसके कारण भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार अर्जुन मुंडा चुनाव हार गए। उक्त नेता के हवाले से कई अखबारों में इस प्रकार की खबर भी छपी। उक्त नेता को इस मामले में तथ्य भी प्रस्तुत करना चाहिए। वास्तव में यह राष्ट्रहित से जुड़ा मामला है। यदि उनके पास कोई प्रमाण हो तो वे मीडिया के सामने भी प्रस्तुत कर सकते हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों के नेताओं ने लोहरदगा और चाईबासा लोकसभा के बारे में भी कुछ इसी प्रकार की बातें कही। इधर, चतरा, हजारीबाग, गोड्डा, जमशेदपुर, दुमका, धनबाद और राजमहल में अपने ही नेताओं और कुछ प्रभावशाली कार्यकर्ताओं के भीतरघात के आरोप अखबारों की सुर्खियां बटोर रही है। सच तो यह है कि इन तामाम आरोप-प्रत्यारोपों के बीच हार के असली कारणों की चर्चा करने से वर्तमान प्रदेश नेतृत्व कतरा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि प्रदेश भाजपा का वर्तमान नेतृत्व यदि पूरे चुनाव तसल्ली से सक्रिय रहता तो झारखंड में भाजपा प्रदर्शन इससे बेहतर होता।
भारतीय जनता पार्टी विचार परिवार के प्रतिनिधि संगठन में दो शब्दों की चर्चा बहुत होती रही है। एक शब्द है अनामिकता और दूसरा सामोहिकता। अनामिकता का अर्थ, व्यक्तिगत नाम या यश उपर उठकर काम करना है। इसमें संगठन सबसे ऊपर होता है। नाम यदि हो तो संगठन का हो। अपना नाम कभी ऊपर नहीं रखना चाहिए। उसी प्रकार सामूहिकता है। इस शब्द का अर्थ कुल मिलाकर अपने नाम को प्राथमिकता नहीं देना और संगठन के लिए काम करना। सामूहिकता का अर्थ है निर्णय सामूहिक होनी चाहिए। इससे संगठन भाव पैदा होता है और निर्णय में सबकी भागीदारी सुनिश्चित होती है। यदि लक्ष्य प्राप्ति में असफलता होती है तो इसके लिए पूरा समूह जिम्मेबार होता है। नीचे से लेकर ऊपर तक वर्तमान भाजपा मानो इन दोनों शब्दों को भुला दिया हो। चुनाव के दौरान साफ तौर पर प्रदेश भाजपा कई धरों में बटी हुई दिख रही थी। इसका असर चुनाव परिणाम पर तो होना ही था।
इस बार के चुनाव प्रबंधन में दूसरी जो विसंगति सामने आयी वह प्रदेश नेतृत्व में समन्वय का घोर अभाव था। यही नहीं प्रदेश के कई नेता अपने ही उम्मीदवार को हराने के लिए संसदीय क्षेत्र में अपने गुर्गों के माध्यम से उम्मीदवार को कमजोर बना रहे थे। इसमें तीन प्रदेश महामंत्रियों की भूमिका संदिग्ध है। एक महामंत्री ने उम्मीदवार को पार्टी द्वारा आवंटित संसाधनों को पहुंचाने में इतनी देर कर दी कि मामला हाथ से निकल गया। दूसरे महामंत्री ने अपने सारे व्यक्तिगत संसाधनों का उपयोग कर अपने ही उम्मीदवार को हराने की पूरी कोशिश की। उसी महामंत्री ने एक बेटिकट पूर्व सांसद को आगे कर कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को सहयोग करवा दिया। यहां तक कि उक्त पूर्व सांसद ने अपने सजातीय वोटरों को भी प्रभावित करने की कोशिश की लेकिन अधिकतर सजातीय वोटरों ने भाजपा का दामन थामे रखा। इस काम में संघ के कुछ अगड़ी जाति के स्वयंसेवक और नेताओं ने बेहतर भूमिका निभाई।
भाजपा के एक प्रदेश महामंत्री जमशेदपुर में ऐसी ब्यूहरचना की थी कि उम्मीदवार हार जाए लेकिन वहां भी भाजपा के स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं ने सूझ-बूझ का परिचार दिया। उक्त महामंत्री इन दिनों संघ के भी खास हैं और विगत कई वर्षों से उन्हीें के शैक्षणिक संस्थान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बड़े कार्यक्रम आयोजित हो रहे हैं। राजमहल लोकसभा क्षेत्र में भाजपा के एक विधायक ने उम्मीदवार के खिलाफ जोरदार मोर्चेबंदी कर रखी थी इसके कारण वहां नकारात्मक प्रभाव देखने को मिला ओर उम्मीदवार के हारने का एक कारण यह भी रहा। गोड्डा में वोट कम मिलने का कारण खुद उम्मीदवार हैं। हालांकि उन्होंने काम तो बहुत किया है लेकिन स्थानीय वोटरों से उनका कोई खास लगाव नहीं है साथ ही भाजपा के स्थानीय नेताओं को भी वे परेशान करते रहे हैं। इसके कारण उनकी स्थिति कमजोर हुई।
इस पूरे चुनाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका भी सकारात्मक नहीं दिखी। संघ ने पूरे चुनाव सेलेक्टेड उम्मीदवारों के लिए काम किया। इधर संघ के चार पिछड़ी जाति के नेताओं ने अपने मनोनोकूल टिकट न दिए जाने के कारण कई स्थानों पर नकारात्क प्रचार किया। इस मामले में संघ के एक नेता का तो भाजपा के एक विधायक के साथ फोटो भी सोशल मीडिया पर वॉयरल हुआ था। संघ के एक पिछड़ी जाति के वरिष्ठ नेता जिनका केन्द्र पहले कोलकाता हुआ करता था, उन्होंने भी कई स्थानों पर नकारात्मक भूमिका निभाई। साथ ही एक अखिल भारतीय स्तर के नेता ने भी झारखंड भाजपा को वकाद में लाने के लिए अपने पूरी ताकत लगायी क्योंकि वे रांची का टिकट अपने मनोकूल उम्मीदवार को दिलाना चाहते थे। आजकल उनका केन्द्र पटना कर दिया गया है।
किसी पार्टी या संगठन के कोषाध्यक्ष की भूमिका वित्त प्रबंधन की होती है। प्रदेश भाजपा के प्रदेश कोषाध्यक्ष इस बार वित्तप्रबंधन के बदले रांची के हवाई अड्डे पर अपने ड्यूटी निभा रहे थे। इससे तो यही साबित होता है कि या तो उन्हें पूरे चुनाव वित्त प्रबंधन के कार्य से मुक्त कर दिया गया था, या फिर वे केन्द्रीय नेताओं से अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए खुद हवाई अड्डे पर डटे थे। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि झारखंड भाजपा इस चुनाव को किस मोड में लड़ रही थी।
इधर, इस चुनाव झारखंड प्रदेश अध्यक्ष की भूमिका भी बहुत संतोषजनक नहीं रही। पूरे चुनाव उन्होंने अपने साथ आए या फिर अपने पूर्व के पार्टी संगठन के नेता और कार्यकर्ताओं को ही तवज्जो देते रहे। यहां तक कि जो दो टिकट काटा गया वह भी उन्होंने अपने ही खास को दिलाया। लोग इधर पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास की चर्चा करते रहे, उधर उन्होंने धनबाद की उम्मीदवारी भी अपनेही खास को सौंप दी।
कुल मिलाकर भाजपा यदि हार की कुशल समीक्षा चाहती है तो प्रदेश के सात वरिष्ट नेताओं को उसमें शामिल न करे। क्योंकि प्रदेश में भाजपा की हार के लिए प्रदेश अध्यक्ष सहित कुल सात नेता ही जिम्मेदार हैं। इसमें चार तो महामंत्री ही हैं। एक कोषाध्यक्ष महोदय हैं, जिन्होंने इस बार वित्त के बदले हवाई अड्डा संभाला। एक महोदय ऐसे हैं, जिन्हें पूरे प्रदेश के लाभार्थियों को मिलने वाली टीम का मुखिया बनाया गया था। ये महाशय संघ के एक पूर्व क्षेत्र स्तर के नेता के चहेते माने जाते हैं। पार्टी मुख्यालय में इनका तदर्थ कार्यालय कभी खुला ही नहीं। भाजपा नेतृत्व को याद रखना होगा कि यदि आगामी विधानसभा जीतनी है तो इन तमाम नेताओं पर नकेल कसनी होगी। इन्हें दायित्व तो दें लेकिन इनके स्वार्थ पर भी मुक्ममल नजर रखें क्योंकि इनके स्वार्थ और महत्वाकांक्षाएं अब पार्टी से बड़ी हो गयी है।