गुलाम शाहिद
इन दिनों भारत में एक नई लहर चल रही है। मध्य कालीन भारत के इतिहास को इस्लामिक काल कहकर प्रचारित किया जा रहा है। यही नहीं उस काल के तमामल अच्छे कामों पर भी विवाद खड़ा किया जा रहा है। निःसंदेह हर साम्राज्य में कुछ गलतियां होती है। भारत के मध्यकाल में भी कुछ राजाओं ने गलतियां की होगी लेकिन उन गलतियों का ठिकड़ा आज की पीढ़ियों पर फोड़ने की कोशिश कितना जायज है। इसी विमर्श से एक भाषा का भी विवाद उत्पन्न हुआ है। उर्दू को कुछ लोग इस्लामिक भाषा के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। वास्तविकता उन्हें पता नहीं है। यदि उर्दू को आप समाप्त कर देंगे तो हमारी राष्ट्रभाषा के कई तत्व खत्म हो जाएंगे। इसलिए उर्दू का होना इस देश और हमारी बहुरंगी संस्कृति के लिए जरूरी है। लेकिन झारखंड की हेमंत सरकार को कौन समझाए। हेमंत तो भाजपा विरोध के नाम पर सत्ता में आए हैं लेकिन उनके द्वारा किए जा रहे कार्य कम से कम मुसलमानों को तो रास नहीं ही आ रहा है।
झारखंड के राजनीति में मुसलमानों को अछूत बना दिया गया है। सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष भी जिनके लिए मुसलमान झोली भरके वोट करते है। वो भी पार्टी इनसे जुड़े मुद्दे और समस्याओं पर बात करने से बचती दिखती है। राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से पहले से कमजोर मुसलमान को अब लगभग लावारिस बना दिया गया है। जिनके हाल-चाल तक जानने के लिए भी कोई कोशिश नहीं कर रहा है। झारखंड के वर्तमान सरकार की बात करें तो वह यह मान कर चल रही है कि मुसलमान आखिर वोट किसको देंगे। भाजपा को दे नहीं सकते। हार कर उन्हें हमें ही वोट करना होगा।
इधर समुदाय के समक्ष मुद्दे और चुनौतियां दोनों ही विविध हैं। सच पूछिए तो मुस्लिम समुदाय के पिछड़ेपन के दो कारण हैं। समुदाय के प्रति सरकार की उदासीनता और समुदाय की ओर से उचित पहल की कमी। शिक्षा में, मात्रा और गुणवत्ता दोनों के संदर्भ में विभिन्न प्रकार की चुनौतियां हैं। जबकि सरकार के स्तर पर बहुत कुछ करने की आवश्यकता है, जैसे- शिक्षकों की नियुक्ति, उर्दू में पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन, बिना किसी देरी के योग्य संस्थानों को संबद्धता देना, अनुदान प्रदान करना आदि।
राज्य में उर्दू स्कूलों की हालत बद से बदतर है। सम्बन्धित शिक्षक यह भी कहते है कि उर्दू माध्यम के स्कूलों को अपनी शिक्षा का माध्यम बदलने के लिए मजबूर किया जाता है। उर्दू में पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं। सरकारी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की कमी एक बड़ी समस्या है। यहां यह उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है कि उर्दू, राज्य की दूसरी आधिकारिक भाषा है और अधिकांश मुसलमानों के लिए यह उनकी पहली भाषा है। सब कुछ जानने के बाद भी गठबन्धन के मन्त्री मौन है। बड़ी संख्या में मुस्लिम – प्रबंधित स्कूल संबद्धता की प्रतीक्षा में है लेकिन सरकार की पहल नदारत है। सरकार की वित्तीय सहायता शून्य है। इन गैर सहायता प्राप्त विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों की स्थिति दयनीय है। इन स्कूलों में प्रशिक्षित पीजी शिक्षकों या टीजीटी को बिना किसी अन्य लाभ के बहुत कम वेतन दिया जाता है। वे अपना पूरा जीवन इस उम्मीद में व्यतीत करते हैं कि भविष्य में किसी भी समय वे वही प्राप्त कर सकते हैं जो समान योग्यता वाले अन्य शिक्षक पा रहे हैं। इसमें यह भी कहा गया है, मिडिल स्कूल, हाई स्कूल, इंटरमीडिएट (सीनियर सेकेंडरी) और स्नातक स्तर के छात्रों के लिए उर्दू में किताबें उपलब्ध नहीं हैं। सरकार द्वारा प्रबंधित स्कूलों के छात्रों को सरकार किताबें और अन्य स्टेशनरी की आपूर्ति करती है लेकिन मुस्लिम – प्रबंधित शैक्षणिक संस्थानों को इससे वंचित रखा गया है।
इस संदर्भ मे अंजुमन फरोग उर्दू के अध्यक्ष मोहम्मद एकबाल का कहना है कि उर्दू भाषा भारत की बेटी कही जाती है। उर्दू का जन्म भारत में ही हुआ लेकिन झारखंड निर्माण के बाद सरकारें उर्दू भाषा के साथ लगातार अन्याय कर रही है। अब तो स्थिति ये है कि झारखंड सरकार उर्दू को समाप्त करने की दिशा में पहल करने लगी है। उर्दू भाषा की उपेक्षा और उसे मिटाने की साजिश कांग्रेस और जेएमएम गठबंधन की सरकार कर रही है। इकबाल सख्त लब्ज में टिप्पणी करते हैं और कहते हैं कि भाजपा सरकार से तो कोई अपेक्षा ही नहीं थी लेकिन जिस सरकार को हम अपना मानते हैं वह हमारी भाषा को समाप्त करने पर लगी हुई है। ऐसे में तो हमें विकल्प ढुंढना ही पड़ेगा।
(लेखक एक उर्दू अखबार के स्थानीय संपादक हैं। इनके विचार निजी हैं। इससे जनलेख का कोई लेनादेना नहीं है।)