जयसिंह रावत
सामरिक, धार्मिक, पर्यटन और पर्यावरण की दृष्टि से देश का अति महत्वपूर्ण नगर जोशीमठ के धंसने से उत्पन्न आपदा की स्थिति देखते हुये सरकार में बैठे भूविज्ञानी तो चिन्तित हैं ही लेकिन कुछ स्वतंत्र विज्ञानियों और पर्यावरणविदों का मानना है कि अगर तत्काल जोशीमठ को बचाने के लिये बहुत बड़े पैमाने पर प्रयास नहीं किये गये तो उत्तरी सीमा पर भारत का यह पहला शहर केदारनाथ की जैसी बहुत बड़ी आपदा का कारण बन सकता है।लेखकों को कभी यह लिखने का मौका भी मिल सकता है कि ‘एक था जोशीमठ’। कुछ भूविज्ञानियों ने लगभग 20 हजार की आबादी वाले जोशीमठ को तत्काल खाली करने की सलाह दी है।जोशीमठ के सैकड़ों घर, अस्पताल सेना के भवन, मंदिर, सड़कें, प्रतिदिन धंसाव की जद में हैं। जोशीमठ के लोग दो-दो मुसीबतें एक साथ झेल रहे हैं।दरकते घर तो दहशत का कारण हैं ही, सर्द रातें भी लोगों को परेशान कर रही हैं।उच्च हिमालय का करीबी क्षेत्र होने के कारण रात को यहां तापमान बेहद नीचे चला जा रहा है।शहर के साथ ही ज्योतिर्पीठ और सेना तथा अर्धसैन्य छावनियां भी जमीन नीचे खिसकने की जद में आ चुकी हैं।हैरानी का विषय तो यह है कि जोशी मठ बरबादी की कगार पर आ गया है और शासन-प्रशासन की तन्द्रा अब टूट रही है जबकि यह खतरा 1970 के दशक में ही सामने आ चुका था।
विख्यात स्विश भूवैज्ञानिक अर्नोल्ड हीम और सहयोगी आगस्टो गैस्टर ने सन् 1936 में मध्य हिमालय की भूगर्भीय संरचना पर जब पहला अभियान चलाया था तो उन्होंने अपने यात्रा वृतान्त ‘द थ्रोन आफ द गाड (1938) और शोध ग्रन्थ ‘सेन्ट्रल हिमालयारू जियालाजिकल आबजर्वेशन्स आफ द स्विश एस्पीडिशन 1936 (1939) मेंटैक्टोनिक दरार, मुख्य केन्द्रीय भ्रंश (एमसीटी) की मौजूदगी को चिन्हित करने के साथ ही चमोली गढ़वाल के हेलंग से ले कर तपोवन तक के क्षेत्र को भूगर्भीय दृष्टि से संवेदनशील बताया था।
उत्तराखण्ड सरकार द्वारा वरिष्ठ भूविज्ञानी एवं राज्य आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबन्धन केन्द्र के निदेशक डा0 पियूष रौतेला की अध्यक्षता में गठित विशेषज्ञ समिति ने जोशीमठ की ताजा स्थिति की रिपोर्ट गत जुलाई 2022 में उत्तराखण्ड सरकार को दे रखी है जिसमें इस पवित्र शहर की कैरीइंग कैपेसिटी को देखते हुये वहां निर्माण कार्यों पर नियंत्रण और जमीन के अंदर जा रहे घरों के पानी तथा ऊपर से आ रहे नालों के पानी के उचित निस्तारण के लिये नालों को चेनलाइज करने तथा नीचे अलकनन्दा से हो रहे भूमिकटाव को रोकने आदि की शिफारिश की गयी है।भूविज्ञानियों के अनुसार यह समस्या 1970 के दशक से चली आ रही है।इस शहर का सामरिक, धार्मिक, पर्यटन और पर्यावरण महत्व बढ़ते जाने के कारण इसकी कैरीइंग कैपेसिटी से कहीं अधिक बढ़ गयी।भारी भरकम अनियंत्रित निर्माणकार्य का बोझ खिसकती ढलानों पर बढ़ता जा रहा है।लगभग 20 से 25 हजार की आबादी का प्रतिदिन उपयोग किया हुआ पानी जमीन के नीचे जाकर दलदल पैदा कर रहा है जोकि शहर को नीचे की ओर ले जा रहा है।अब तक घरों के अन्दर पड़ी दीवारों से भी पानी बाहर निकलने लगा है।पिछले साल 7 फरबरी को धौलीगंगा में आयी बाढ़ का पानी और मलबा भी अलकनन्दा में पहुंचा जिसने जोशीमठ की ओर हो रहे भूकटाव की गति कहीं अधिक बढ़ा दी। विष्णुप्रयाग-तपोवन की सुरंग ने खिसकते शहर को हिला दिया।
प्रख्यात स्विश भूविज्ञानी अर्नाल्डही म एवं उनके सहयोगी आगस्टोगैंसर ने 1936 में अपने मध्य हिमालय के अभियान के दौरान न केवल चमोली में मुख्य केन्द्रीय भंरस या मेनसंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) को चिन्हित किया था अपितु चमोली गढ़वाल के हेलंग से तपोवनतक के क्षेत्र को भूगर्भीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील बताया था।इन भूवैज्ञानिकों की इस खोज की बाद में खड़ग सिंह बाल्दिया, एम.पी.एस. बिष्ट और पियूषरौतेला आदि भूविज्ञानियों ने पुष्टि की थी।इसलिये भी जोशीमठ में शहर का इतना बड़ा ढांचा बनने नहीं दिया जाना चाहिये था।भूविज्ञानी प्रो0 महेन्द्रप्रताप सिंह बिष्ट के अनुसार स्थिति काफी गंभीर है।वहां कभी भी कोई बहुत बड़ी घटना हो सकती है इसलिये जोशीमठ के लोगों का तत्काल पुनर्वास किये जाने की जरूरत है।इस शहर की समाप्त हो चुकी कैरीइिंग कैपेसिटी की अनदेखी बेहद खतरनाक हो सकती है।
यह कोई साधारण बसावट नहीं है। यह आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की रक्षा के लिये देश के चार कोनों में धर्मध्वजा वाहक चार सर्वोच्च धार्मिक पीठों में से एक ज्योतिर्पीठ है। यह उत्तराखण्ड की प्राचीन राजधानी है जहां से कत्यूरीवंश ने शुरू में अपनी सत्ता चलाई थी। यही से सर्वोच्च तीर्थ बदरीनाथ की तीर्थ यात्रा की औपचारिकताएं पूरी होती हैं क्योंकि शंकराचार्य की गद्दी यही बिराजमान रहती है।फूलों की घाटी और नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व का बेस भी यही नगर है। हेमकुंड यात्रा भी यहीं से नियंत्रित होती है।नीती-माणादर्रों और बाड़ाहोती पठार पर चीनी हरकतों पर इसी नगर से नजर रखी जाती है।विदित है कि चीनी सेना बार-बार बाड़ाहोती की ओर से घुसपैठ करने का प्रयास करती रहती है। उन पर नजर रखने के लिये भारत तिब्बत पुलिस की बटालियन और उसका माउंटेंन ट्रेनिंग सेंटर यहीं है। यहीं पर गढ़वाल स्काउट्स का मुख्यालय और 9 माउंटेंन ब्रिगेड का मुख्यालय भी है।
दरअसल 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के बाद उत्तरप्रदेश सरकार ने 1976 में गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेशचन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता में वैज्ञानिकों की एक कमेटी का गठन कर जोशीमठ की संवेदनशीलता का अध्ययन कराया था।इस कमेटी में सिंचाई एवं लोकनिर्माण विभाग के इंजिनीयर, रुड़की इंजिनीयरिंग कालेज (अब आइआइटी) तथा भूगर्भ विभाग के विशेषज्ञों के साथ ही पर्यावरणविद् चण्डीप्रसाद भट्टको शामिल किया था। ( रौतेला एवं डा0 एम.पी.एस.बिष्टरू डिसआस्टर लूम्सलार्ज ओवर जोशीमठरू करंट साइंस वाल्यूम 98) इस कमेटी ने अपनी अध्ययन रिपोर्ट में कहा था कि जोशीमठ स्वयं ही एक भूस्खलन पर बसा हुआ है और इसके आसपास किसी भी तरह का भारी निर्माण करना बेहद जोखिमपूर्ण है।कमेटी ने ओली की ढलानों पर भी छेड़छाड़ न करने का सुझाव दिया था ताकि जोशीमठ के ऊपर कोई भूस्खलन या नालों में त्वरित बाढ़ न आ सके।जोशीमठ के ऊपर औली की तरफ से 5 नाले आते हैं। ये नाले भूक्षरण और भूस्खलन से बिकराल रूप लेकर जोशीमठ के ऊपर वर्ष 2013 की केदारनाथ की जैसी आपदा ला सकते हैं।
जोशीमठ का समुचित मास्टरप्लान न होने के कारण उसकी ढलानों पर विशालकाय इमारतों का जंगल बेरोकटोक उगता जा रहा है।हजारों की संख्या में बनी इमारतों के भारी बोझ के अलावा लगभग 25 हजार शहरियों के घरों से उपयोग किया गया पानी स्वयं एक बड़े नाले के बराबर होता है जो कि जोशीमठ की जमीन के नीचे दलदल पैदा कर रहा है।उसके ऊपर सेना और आइटीबीपी की छावनियों का निस्तारित पानी भी जमीन के नीचे ही जा रहा है।निरन्तर खतरे के सायरन के बावजूद वहां आइटीबीपी ने भारी भरकम भवन बनाने के साथ ही जलमल शोधन संयंत्र नहीं लगाया।कई क्यूसेक यह अशोधित जलमल भी जोशीमठ के गर्भ में समा रहा है। यही स्थिति सेना के शिविरों की भी है। जोशीमठ के बचाव के बारे में अब सोचा जा रहा है जब इस शहर का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया।
(युवराज)
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