गुलाम शाहिद
तमाम मुस्लिम बादशाहों की तरह भारतीय जनता पार्टी को औरंगजेब और टीपू सुल्तान से भी दुश्मनी है, बल्कि दूसरे राजाओं से कुछ ज्यादा ही है। मसलन, बीजेपी नफरत जाहिर करने के लिए जरूरत के मुताबिक मुस्लिम बादशाहों को चुनती है। जब राम मंदिर आंदोलन चल रहा था तो बाबर के दमन की कहानियां फैलाई गई और बाबर के वंशजों पर तोहमत डाले गए। एक तरफ आरएसएस का कहना है कि देश के सभी लोग हिंदू से मुसलमान बने और सभी रामजी के वंशज हैं, दूसरी तरफ बीजेपी का कहना है कि मुस्लिम बाबर के वंशज हैं। हम मुसलमान किसकी बात मानें। अपने दीन के लिए पांच साम का पाबंद नमाजी भी इन दिनों परेशान है। दोनो में कौन सही है, समझ में नहीं आ रहा है।
इधर के दिनों में हिन्दू राष्ट्रवादी जमात के लिए दक्षिण का एक और मुस्लिम शासक निशाने पर आ गया है। उसके पीछे इनकी मन्शा क्या है पता नहीं लेकिन बिना कुछ जाने समझे सोशल मीडिया के स्ट्रीट फाइटर टीपू सुल्तान के खिलाफ अनाप-सनाम लिख-बक रहे हैं। अभी बीजेपी और आरएसएस ने टीपू सुल्तान को पकड़ लिया है। मुझे तो लगता है यह कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए है और वहां बीजेपी थोड़ी कमजोर दिख रही है इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो महीने में छह बार कर्नाटक का दौरा कर चुके हैं।
टीपू सुल्तान को कुछ महीने पहले नफरत के प्रतीक के रूप में पुनर्जीवित किया गया कि जीत तो उन्ही के बदौलत मिलेगी। कुछ राष्ट्रवादियों ने अपने खास विश्वविद्यालय ने शोध किया कि टीपू सुल्तान अंग्रेजों से लड़ते हुए नहीं मारे गए थे, बल्कि उसके हिंदू-विरोधी होने के कारण, उसे कर्नाटक के हिंदुओं के एक निश्चित वर्ग के दो हिंदू ‘बहादुरों’ ने मार डाला था। यह बताने की जरूरत नहीं है कि सिद्धांत आरएसएस तैयार करता है और भाजपा इसे लागू करती है। इसलिए बीजेपी ने टीपू सुल्तान पर एक फिल्म बनाई जो चुनाव से पहले कर्नाटक में रिलीज होगी। जाहिर-सी बात है कि फिल्म में टीपू सुल्तान के अत्याचारों को दिखाया गया होगा, जिसके चलते दो हिंदुओं ने उसे मौत के घाट उतार दिया। टीपू सुल्तान के हत्यारे को जिस जात का व्यक्ति बताया गया, वह जात भाजपा से खफा है, लिहाजा इसलिए इस संप्रदाय को नाराज करने के लिए यह कहानी गढ़ी गई।
इतिहास जो कहता है, उस पर मत जाइए, देश में इतिहास, मीडिया, न्याय और सच बोलना सब खत्म हो गया है। उनका जिक्र करना भी अब गुनाह हो गया है। बस अब चुनाव जीतना ही एक मात्र सच्चाई है। चाहे जैसे भी चुनाव जीता जाय। अत्याचार अंग्रेजों ने भी किया लेकिन उसे कभी भुलाया या जिक्र नहीं किया जाता क्योंकि इस से वोट नहीं मिलेंगे। मुस्लिम राजाओं और आम मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़का कर वोट हासिल किया जा सकता है। जो काम नहीं करते उन्हें अपनी नाकामी और अक्षमता को छिपाने के लिए किसी सहारे की जरूरत होती है। इस जरूरत को मुसलमानों के खिलाफ नफरत भड़काने से पूरा किया जा रहा है। हालांकि सिक्के के दूसरे पहलू पर बैठे राजनेता भी कोई दूध के धुले नहीं है। उनके लिए भी मुसलमान एक वोटबैंक ही है और आजतक उसी के तरह उसका वे उपयोग करते आए हैं।
कुल मिलाकर देखें तो मुसलमान आर या पार महज एक बोटबैंक बनकर रह गया है। भाजपा यदि उसका डर दिखाकर बहुसंख्यकों का वोट बटोरने की कोशिश कर रही है तो अन्य विरोधी दलों के नेता मुसलमानों को बहुसंख्यकों का डर दिखाकर अपनी ओर करने की होड़ में लगे हैं। हमारा दर्द अजीब-सा है। हम जाएं तो कहां? लेकिन याद रखिए, यह देश हमारा भी है। हमारे पुरखे यहीं दफन हैं। हम कोई बाहर से थोड़े आए हैं। हम बहुसंख्यकों के साथ ही पले-बढ़े हैं। आज नहीं तो कल सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।
(लेखक उर्दू दैनिक फारूखी तंजीम के स्थानीय संपादक हैं। आलेख में व्यक्त विचार इनके निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है।)