डॉ. सुखदेव
विगत 2 जुलाई 2024 को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हाथरस के मुगलगड़ी गाँव में एक बड़ी धार्मिक सभा होती है। इस दिन अचानक शुरू हुई भगदड़ में लगभग सवा सौ लोगों की जान चली गई, जिनमें ज़्यादातर महिलाएँ और बच्चे थे। इस सभा में करीब ढाई लाख इकट्ठे हुए थे। सभा में हर कोई बाबा के चरणों की धूल पाने को उतावला था। असहनीय गर्मी और उमस के दमघोंटू माहौल में अचानक लोग एक-दूसरे को रौंदते हुए बाबा की चरण धूलि लेने के लिए आगे बढ़ने लगे। इस अफरा-तफरी में सवा सौ लोगों की मौत हो गयी।
एक पुलिस कांस्टेबल की नौकरी से समय से पहले ही रिटायर होकर बाबा बना सूरजपाल उर्फ़ नारायण साकार विष्णु हरि इस घटना के बाद अपनी पत्नी के साथ रहस्यमय तरीके से लापता हो गया। बाबा अपने भगतों के बीच भोले बाबा के नाम से मशहूर है। बाबागिरी की ट्रेनिंग के शुरुआती दौर में सूरजपाल उर्फ़ भोले बाबा ने एक मृत लड़की को ज़िंदा करने का नाटक कर अपनी पहचान दूर-दूर तक बना ली थी। लड़की तो जीवित हो ही नहीं सकती थी, लेकिन सूरजपाल बाबा की बाबागिरी चल निकली।
किसी बड़े धार्मिक आयोजन में भगदड़ और मौत की यह कोई पहली घटना नहीं है। हर बार की तरह इस बार भी नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों के औपचारिक बयानों के साथ ही विशेष जाँच दल (एस.आई.टी.) का गठन कर दिया गया है। जाँच टीम इस हादसे की सारी ज़िम्मेदारी प्रबंधकों पर डालते हुए इसके पीछे किसी गहरी साजिश की आशंका से भी इनकार नहीं कर रही है। लेकिन इस रिपोर्ट का ख़ास पहलू यह है कि 850 पन्नों की यह भारी-भरकम रिपोर्ट नारायण साकार विष्णु हरि उर्फ़ भोले बाबा को पूरी तरह से निर्दाेष क़रार देती है। हालाँकि रिपोर्ट के आधार पर 6 पुलिसकर्मियों और कुछ अन्य सरकारी अधिकारियों को बर्ख़ास्त करके खाना पूर्ति करने की कोशिश की गई है। आयोजकों में से कुछेक की गिरफ़्तारी की ख़बर और बाबा का इस घटना पर अफ़सोस जताते हुए वीडियो भी जारी किया गया है। सब कुछ सामान्य रूप से चल रहा है, जैसा कि ऐसी भयानक घटनाएँ होने के बाद हमेशा से होता रहा है।
ऐसी घटनाएँ कई सवाल खड़ा करती हैं। भीड़ के अचानक बेक़ाबू होने की घटना को आमतौर पर सामूहिक डर और बेचौनी या अंग्रेज़ी के शब्द ‘मास पैनिक’ का नाम दिया जाता है। वैसे तो सभी धर्म और संत दावा करते हैं कि वे सत्संग के दौरान अपनी संगत में सब्र, संतुष्टि और अच्छे नैतिक मूल्यों का संचार करते हैं। लेकिन देखने में यही आता है कि ऐसी हालतों में आम आदमी में मुश्किल समय में एक-दूसरे की मदद करने के उच्च मानवीय मूल्य भी लुप्त होते नज़र आते हैं और एक-दूसरे को रौंदते हुए आगे बढ़ने की पशुवृत्तियाँ हावी हो जाती हैं। ऐसा क्यों होता है? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ते-ढूँढ़ते धर्म के नाम पर धंधा करने वाले बाबाओं के उच्च मानवीय मूल्यों की शिक्षा देने के दावे हवा हो जाते हैं। जीवन की कठिनाइयों के कारण आम लोगों के मन में पैदा हुई असुरक्षा और भय का फ़ायदा उठाकर ये तथाकथित बाबा अपना कारोबार बढ़ाते हैं। लोगों को बेबस, बेसहारा और हीन होने का अहसास करवाया जाता है, जिनकी समस्याओं का समाधान करने का दावा ऐसे तथाकथित बाबा करते हैं। जहाँ तक सूरजपाल की बात है, इसके बारे में सोशल मीडिया पर कई तरह की कहानियाँ सामने आ रही हैं। इसके भोजन करने के बाद बची जूठन के लिए, नहाने के बाद बचे पानी और चरणों की धूल हासिल करने को बेताब भक्त मंडली के कारनामों की कहानियों की चर्चा हो रही है। यहाँ तक कि इसकी गाड़ी के टायरों से उड़ने वाली धूल को भी माथे पर लगाने के लिए भक्तों में होड़ मच जाती है। 21वीं सदी के विज्ञान के युग में यह एक चिंताजनक बात है।
धर्म के नाम पर अंधविश्वास का कारोबार शासक वर्गों से मिलीभगत के बिना नहीं चल सकता। इस आधुनिक कारोबार की सामंती काल के मध्यकालीन धर्म से तुलना नहीं की जा सकती। आजकल यह एक बहुत ही लाभदायक कारोबार का रूप धारण कर गया है। ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सदगुरु वासुदेव उर्फ़ जग्गी बाबा करोड़ों का कारोबार करने वाली ‘ईशा फ़ाउंडेशन’ का प्रमुख है। उसका दावा है कि उसके 10 लाख पैरोकार हैं। अपने 3 करोड़ पैरोकार होने का दावा करने वाला ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग फ़ाउंडेशन’ का प्रमुख श्री श्री रविशंकर 1000 करोड़ की संपत्ति का मालिक है। योग बाबा रामदेव 1600 करोड़, माता अमृता नंदा माई उर्फ़ अम्माँ 1500 करोड़ और सिरसा वाला बाबा गुरमीत राम रहीम 1455 करोड़ की संपत्ति का मालिक बताया जाता है। जेल में बंद बापू आसाराम के दुनिया-भर में 350 आश्रम और 17,000 बाल संस्कार केंद्र हैं। इसके ट्रस्ट की आमदनी 350 करोड़ रुपए सालाना बताई जाती है। स्वामी नित्यानंद 10,000 करोड़ की संपत्ति का मालिक बताया जाता है। इन सबके अलावा बाबा रामपाल, साध्वी प्रज्ञा, रामभद्राचार्य, धीरेंद्र शास्त्री और निर्मल बाबा इस कारोबार के बड़े नाम हैं। योगी आदित्यनाथ तो मुख्यमंत्री पद तक पहुँच गया है। आज की पूँजीवादी व्यवस्था में धर्म के नाम पर अंधविश्वास का कारोबार आम मेहनतकश आबादी की अज्ञानता और पिछड़ेपन का सफलतापूर्वक इस्तेमाल कर अपनी तिज़ोरियाँ भर रहा है।
मानव इतिहास में वर्ग समाज हमेशा से नहीं रहा है। पशु जगत से अलग होकर मनुष्य बनने की प्रक्रिया में श्रम की प्रमुख भूमिका है। मेहनत करने वाला हमारा पूर्वज, आदि मानव, आदिम साधारण औज़ारों के ज़रिए प्रकृति को अपने हितों के अनुसार इस्तेमाल में लाते हुए हज़ारों वर्षों तक बराबरी वाले ‘प्राचीन क़बायली साम्यवादी’ दौर से गुज़रा है। प्रकृति की क्रूर शक्तियों से संघर्ष करते हुए उसकी बुनियादी सीधी-सादी मान्यताएँ सामाजिक चेतना के रूप में उभर रही थीं। टोटेम और जादू के युग से गुज़रते हुए, व्यक्ति धर्म और विज्ञान की समझ तक पहुँचता है। जहाँ एक ओर प्रकृति पर अपने औज़ारों का इस्तेमाल करते हुए आदिम वैज्ञानिक चेतना जन्म लेती है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति के सामने अपनी अज्ञानता, लाचारी और भय के कारण आदिम धार्मिक चेतना का जन्म होता है। लेकिन शब्द के सही अर्थों में धर्म की जड़ें लग पाना तभी संभव हो सका, जब समाज वर्गों में विभाजित हो गया। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ श्रम विभाजन के एक निश्चित स्तर पर उत्पादन संबंधों को बदलने का आधार तैयार हो गया। शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के विभाजन के साथ समाज काम करने वालों और काम करवाने वालों में विभाजित हो गया। मानव विकास की अपनी ज़रूरतों से उपजी, मनुष्य की प्रकृति की क्रूर ग़ुलामी से मुक्ति की क़ीमत मनुष्य द्वारा मनुष्य की ग़ुलामी की व्यवस्था के रूप में चुकानी पड़ी। आदिम साम्यवादी व्यवस्था के स्थान पर शोषण आधारित वर्ग व्यवस्था क़ायम हुई। मनुष्य के भय और अज्ञानता से पैदा होने वाला धर्म, मुट्ठी-भर लुटेरे शासक वर्गों की वैचारिक ज़रूरत बन गया। लेकिन इतिहास में ऐसे दौर भी आए, जब दमनकारी सामंती व्यवस्था के दौरान शोषित वर्गों ने धर्म के झंडे तले लुटेरे शासकों से टक्कर ली। इतिहास की मुख्य प्रेरक शक्ति वर्ग संघर्ष है। स्पष्ट वैचारिक नेतृत्व के अभाव या कमज़ोरी के चलते मेहनतकश वर्गों ने एक प्रकार की मिथ्या चेतना के साथ सही और असल वर्ग संघर्षों को आगे बढ़ाया है। यही कारण है कि हमारे मध्यकालीन इतिहास में ऐसे जन आंदोलनों की मौजूदगी भी रही है, जो धर्म के झंडे तले लड़े गए। इन आंदोलनों का इतिहास एक अलग विषय है। लेकिन कुल मिलाकर धर्म की भूमिका शासक वर्गों के पक्ष में ही रही है।
मानवीय इतिहास में उभरती हुई पूँजीवादी व्यवस्था ने सदियों पुरानी सामंती व्यवस्था को क्रांतिकारी तरीक़े से उलटाकर एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। यह एक ऐसा संघर्ष था, जिसमें धर्म मज़बूती के साथ सामंतवाद की पीठ थपथपाने के लिए उसके साथ आकर खड़ा हो गया था। यूरोप के कुछ हिस्सों में चले लंबे पुनर्जागरण और प्रबोधन के काल ने मध्ययुगीन पिछड़ेपन और पुराने पड़ चुके वैचारिक कूड़ा-करकट का सफ़ाया कर दिया था। उन्होंने धर्म पर आधारित सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को उखाड़ फेंका और तर्कशीलता को अपनाया। धर्म और राज्य के गठजोड़ को तोड़ दिया गया, धर्म को व्यक्ति का निजी मामला घोषित कर दिया गया। लेकिन दुनिया के कई अन्य देशों की तरह हमारे यहाँ सामंतवाद से पूँजीवाद में संक्रमण क्रांतिकारी रूपांतरण के बजाय ऊपर से लागू किए गए धीमे सुधारों के साथ हुआ। मज़दूर वर्ग और अन्य मेहनतकश आबादी की नई उभरती क्रांतिकारी ताक़त के विरोध से डरकर पूँजीवाद ने सामंतों के साथ समझौता करते हुए पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया को अंजाम दिया। हमारे जीवन में धर्म का इस हद तक बोलबाला होने, अंधविश्वास और मध्ययुगीन पिछड़ेपन का इतना व्यापक पैमाने पर फैला होने का यही मुख्य कारण है। एक ओर जहाँ हमारे देश की ख़ुशहाल आबादी गगनचुंबी इमारतों, अत्याधुनिक यातायात के साधनों, कारों और हवाई जहाज़ों सहित वैज्ञानिक प्रगति का भरपूर लाभ उठा रही है, वहीं दूसरी ओर धागों-ताबीजों, टोना-टोटकों की भरमार है।
हमारे देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता का दावा करता है, लेकिन असल में धर्म और सत्ता का गठजोड़ सांप्रदायिक राजनीति के लिए उपजाऊ ज़मीन प्रदान करता है। इसी से उपजती है बाबाओं-संतों-डेरों की भरमार। वर्तमान सरकार के सांप्रदायिक-फ़ाशीवादी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इन साधु-संतों और धर्मगुरुओं से सत्ताधारियों का गठजोड़ जगज़ाहिर है। यहाँ तक कि तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया भी तर्कशीलता और जनवादी मूल्यों-मान्यताओं का प्रचार-प्रसार नहीं करता, बल्कि अंधविश्वास, पिछड़ेपन, सांप्रदायिक जुनून और बाबाओं का महिमामंडन करता है। आर्थिक असमानता के इस पतनशील दौर में अज्ञानता और अंधविश्वास की पकड़ बनाए रखना शासकों की ज़रूरत है। वर्ग संघर्ष को गुमराह करने के लिए लोगों को अध्यात्मवाद, नरक-स्वर्ग और अगले-पिछले जन्मों के भ्रम में उलझाकर रखना शासक वर्गों की विचारधारात्मक ज़रूरत है। इस व्यवस्था में ना तो हाथरस जैसी घटनाओं के दोषियों को सज़ा दिला पाना संभव है और ना ही आम जनता को न्याय मिल सकता है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए मेहनतकश आबादी के बीच सभी प्रकार के पिछड़ेपन के ख़िलाफ़ विचारधारात्मक अभियान तेज़ करना होगा। एक वैकल्पिक जनपक्षधर मीडिया का निर्माण करके, अंधविश्वास के ख़िलाफ़ तर्कशील और वैज्ञानिक विचारों का प्रचार-प्रसार करते हुए साथ ही हमारे सामाजिक जीवन में मौजूद पूँजीवाद के वैचारिक वर्चस्व को हराकर मज़दूर वर्ग के वैचारिक वर्चस्व को क़ायम करना समय की बड़ी माँग है। यह विचारधारात्मक संघर्ष, मज़दूर वर्ग की मुक्ति के महान मिशन, मेहनतकशों के हित में काम करने वाली समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए चलने वाले संघर्ष के तहत ही संभव हो सकता है।
(यह आलेख मुक्ति संग्राम के अद्यतन अंक से प्राप्त किया गया। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)