पुष्पिंदर
हाल ही में ख़त्म हुए 18वीं लोकसभा के चुनाव में लोगों ने वोट-बटोरू पार्टियों के झूठ सुने। झूठे ऐलानों और वादों की बड़ी गड़गड़ाहट हुई। कहने को देश “लोकतंत्र” है, पर दरअसल इस लोकतंत्र के पीछे लोगों की राय या लोकमत नहीं, बल्कि धन-दौलत की सरदारी काम करती है। 18वीं लोकसभा के चुनावों में चुने गए कुल सांसदों में से 95 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। आम भाषा में हम कह सकते हैं कि 95ः सांसदों के पास औसतन डेढ़ करोड़ से अधिक की जायदाद है और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं, दौलत के अलावा देश के कुल चुने गए सांसदों में से 46ः सदस्यों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इन चीज़ों के बारे में मीडिया बिल्कुल ज़िक्र नहीं करता।
दरअसल जिस तरह बैनरों, मीडिया, अख़बारों के ज़रिए हमारे सामने एक ऐसी तस्वीर पेश की जाती है कि इस देश में हर व्यक्ति आज़ाद है और चुनाव लड़ सकता है, पर असल में ऐसा नहीं होता। झूठ को छिपाने के लिए धन-दौलत झोंकी जाती है। पूँजीवादी मीडिया यह सब उजागर नहीं करता। बिकाऊ मीडिया सुबह से लेकर शाम तक सिर्फ़ लीडरों के भड़काऊ बयान और झूठे वादे लोगों के सामने अच्छे और सच्चे बनाकर पेश करता है, जैसे ये नेता लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बना ही देंगे। निठल्ले करोड़पति सांसदों को मोटे वेतन-भत्ते देकर उनके और ज़्यादा ऐशो-आराम का प्रबंध किया जाता है, लेकिन इस देश में हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले ग़रीब इंसान को बुनियादी सहूलतें देना भी इस तथाकथित लोकतंत्र को बोझ महसूस होता है।
अगर पिछले चार लोकसभा चुनावों पर नज़र डालें, तो एक बात साफ़ हो जाती है कि भारत की संसद में पैसे का दबदबा लगातार बढ़ता जा रहा है। 2009 के लोकसभा चुनावों में जीते उम्मीदवारों में से 58 प्रतिशत सांसद करोड़पति थे, बल्कि 2014 में यह आँकड़ा बढ़कर 82 प्रतिशत हो गया। इसके बाद 17वीं लोकसभा में करोड़पतियों की संख्या 88 प्रतिशत थी। इस बार 18वीं लोकसभा में यह संख्या 95 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है। वैसे तो इस बार भी चुनाव में ग़रीब बचाओ! ग़रीबी हटाओ!, आम लोगों की सरकार बनाओ जैसी झूठी बातें पूँजीवादी पार्टियों द्वारा की गई हैं। लेकिन इन पार्टियों की सच्चाई यह है कि ये अलग-अलग पूँजीपति गुटों की लड़ाई लड़ती हैं। और लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पैसे के दम पर मीडिया का इस्तेमाल करके लोगों के सामने झूठे वादे परोसे जाते हैं। जिसकी प्रत्यक्ष मिसाल हम उत्तर प्रदेश में देखते हैं। उत्तर प्रदेश से 80 सांसद चुने जाते हैं। इनमें से इस बार चुने गए 75 सदस्य करोड़पति हैं, जिनमें से 34 करोड़पति सदस्य समाजवादी पार्टी के हैं और दूसरे नंबर पर भाजपा के 31 के 31 सदस्य करोड़पति हैं। देश के कुल सांसदों में से 42 प्रतिशत के पास 10 करोड़ या इससे ज़्यादा की जायदाद है।
इस बात में कोई अतिकथनी नहीं है कि यह तथाकथित लोकतंत्र महज़ धनतंत्र से अधिक कुछ नहीं, लेकिन इस तथाकथित लोकतंत्र के अलग-अलग स्तंभ जनता में यह भ्रम पैदा करने में कामयाब रहते हैं कि यह व्यवस्था जनता द्वारा और जनता के लिए काम करती है। दरअसल यहाँ अलग-अलग पूँजीपति पार्टियाँ हैं, जो अलग-अलग पूँजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए काम करती हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल मार्च महीने में आई चुनाव बॉन्ड की स्कीम है। जब उसे सार्वजनिक किया गया, तो यह सच सामने आया कि दरअसल किस पार्टी ने किन पूँजीपतियों से मोटा फ़ंड लिया है और क्यों ये पार्टियाँ उन पूँजीपतियों के गुणगान करती हैं। अगर हम पार्टियों में करोड़पति सांसदों की संख्या देखें, तो भाजपा के कुल चुने गए 242 सांसदों में से 227 सांसद करोड़पति हैं। दूसरी ओर ‘इंडिया’ गठबंधन और अन्य पार्टियों का भी यही हाल है। कांग्रेस के 99 सांसदों में से 92 करोड़पति हैं। इसके साथ ही समाजवादी पार्टी के कुल 37 में 34 करोड़पति, तृणमूल कांग्रेस के 29 सांसदों में से 27 करोड़पति हैं इसके बाद जनता दल (यूनाइटेड) के 12 के 12 सदस्य करोड़पति हैं, तेलुगु देशम पार्टी के 16 के 16 सदस्य करोड़पति हैं।
अब आप ख़ुद अंदाज़ा लगाएँ कि क्या ये करोड़पति सांसद संसद में जाकर ग़रीब जनता की बात करेंगे? नहीं! लोगों को कहा जाता है कि पाँच सालों के बाद आप नई सरकार चुन सकते हैं। लेकिन इस पूँजीवादी लोकतंत्र के रहते बार-बार यही सब तो दोहराया जाता रहेगा। हम अक्सर सुनते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, बंगाल आदि देश के सबसे ग़रीब राज्य हैं, पर दूसरी ओर यहाँ से चुनकर आए सांसद सबसे ज़्यादा अमीर हैं। अकेले उत्तर प्रदेश के 80 में से 75 सांसद करोड़पति हैं और बिहार में 40 में से 38 सांसद करोड़पति हैं। मध्य प्रदेश में 29 में से 27 सांसद करोड़पति हैं। इसके साथ ही राजस्थान के 25 में से 22 सदस्य करोड़पति हैं। अगर हम पंजाब की बात करें, तो कुल चुने गए 13 सांसदों में से 12 करोड़पति हैं।
बेशक पूँजीवादी मीडिया हमारी आँखों के सामने एक नक़ली दुनिया खड़ी करके असल चीज़ों पर पर्दा डालने की कोशिश करता है, लेकिन यह भी सच है कि सरकारों और पूँजीवादी मीडिया की लाख कोशिशों के बावजूद सच छिपता नहीं है। आख़िर जनता ने एक दिन इन लुटेरों से और इनके चाकरों से हिसाब लेना ही है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)