परमिंदर
जब भी किसी माँ का जवान बेटा नशे का शिकार होता है, तो उस माँ की आँखों के आँसू हर संवेदनशील इंसान के दिल को पिघला देते हैं। हम अक्सर ऐसी घटनाओं के बारे में सुनते हैं, जहाँ नशे के ओवरडोज़ से किसी नौजवान की मौत हो जाती है और नौजवान की बाज़ू मे सीरिंज लगी ही रह जाती है। नशे से अनेकों जानें निगले जाने की ऐसी घटनाएँ अक्सर ही सुनने को मिलती हैं। हाल ही में पंजाब में 14 दिनों में नशे के ओवरडोज़ से 14 लोगों की मौत हो गई है, जिसमें गुरदासपुर में तीन, अबोहर में दो, मोगा में दो, अमृतसर में दो, फ़िरोज़पुर में एक, मुक्तसर में एक, फ़रीदकोट में एक और लुधियाणा ज़िले में दो मौतें हुई हैं। इनमें से कई लोगों के सीरिंज बाज़ुओं में ही लगी हुई मिली हैं। इस घटना ने यह भी साफ़ कर दिया कि पुलिस प्रशासन नशा तस्करों को पकड़ने का काम कितनी “शिद्दत” से कर रही है, जो लोगों को धोखा देने के लिए किए जाना वाला महज़ एक ड्रामा है।
चुनावबाज़ पार्टियाँ हर बार चुनाव से पहले नशे का नामोनिशान मिटाने की बात करती हैं, लेकिन सरकार बनने के बाद नशे की समस्या के हल के लिए ऐसा कोई भी क़दम नहीं उठाया जाता। क्योंकि नशे का व्यापार इन सरकारों और मंत्रियों की कमाई का बड़ा ज़रिया है। ऐसे नशे जिन पर स्पष्ट रूप से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक का लेबल लगा होता है, जिनका सेवन करने से कैंसर जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं, सरकार ऐसे नशों के उत्पादन और बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की सेवक इन सरकारों को लोगों की ज़िंदगी की कोई परवाह नहीं है। इन्हें तो केवल पूँजीपतियों के मुनाफ़े की परवाह रहती है।
विश्व स्तर पर, अर्थव्यवस्था में पहले स्थान पर हथियारों का कारोबार है, दूसरे पर पेट्रोल का और तीसरे स्थान पर नशों का कारोबार है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नशों का सालाना कारोबार 500 से 650 अरब डॉलर का है। भारत में नशों का सालाना कारोबार 42 से 52 लाख करोड़ रुपए का है और पंजाब में नशों का सालाना कारोबार 7500 करोड़ रुपए का है। यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि इतने बड़े पैमाने पर नशों का कारोबार, सीमा पार तस्करी या भारत में तैयार होने वाले सिंथेटिक नशों का कारोबार सरकारों की मिलीभगत के बिना असंभव है।
नशों के व्यापार से संबंधित सरकारी प्रतिनिधियों के काले चिट्ठे भी समय-समय पर हमारे सामने उजागर होते रहते हैं। पंजाब के विक्रम सिंह मजीठिया का नाम जग ज़ाहिर है, जिस पर कभी कोई कार्रवाई नहीं हुई, क्योंकि सरकारी तंत्र इन मंत्रियों की जेबों में पड़ा हुआ महज़ एक खिलौना मात्र है। बड़े तस्करों को पकड़ने के बजाय उन्हें बचाने के लिए कुछेक छोटे तस्करों को पकड़कर या नशे की लत के शिकार लोगों को जेलों में डालकर नशा ख़त्म करने का नाटक किया जाता है। नशों का उत्पादन करने वालों को कभी नहीं पकड़ा जाता, क्योंकि बनावटी नशों का व्यापार शासन-प्रशासन की मिलीभगत से होता है। सरकार तो ख़ुद नशा बनाने वाली फ़ैक्टरियाँ लगाने की इजाज़त देती है। इस उत्पादन से वह करोड़ों रुपए टैक्स के रूप में वसूल करती है। वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान सरकार ने प्रत्यक्ष कर के रूप में 18.75 लाख करोड़ रुपए इकट्ठे किए, जो वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान 18 प्रतिशत बढ़कर 22.27 लाख करोड़ रुपए हो गए।
मुनाफ़े पर आधारित यह पूँजीवादी व्यवस्था नशाखोरी की समस्या को हल करने में नाकाम है। ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई आदि जैसी बढ़ती समस्याओं से फ़ौरी राहत पाने के लिए लोग नशे का सहारा लेने लगते हैं। यह व्यवस्था उन समस्याओं को ख़त्म करने की कोई कोशिश नहीं करती, जो लोगों को इस दलदल में गिरने के लिए मजबूर करती हैं। पूँजीपतियों के मुनाफ़े को बनाए रखने के लिए नशों के उत्पादन या बिक्री पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जाता। नशाख़ोरी की समस्या का हल क्रांतिकारी बदलाव के ज़रिए बनने वाली समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है, जिसका मुख्य लक्ष्य लोगों के लिए ख़ुशहाल और सम्मानजनक जीवन होगा।
डायसन कार्टर की पुस्तक ‘पाप और विज्ञान’ से पता चलता है कि 1917 की रूसी क्रांति के बाद कैसे वहाँ नशाख़ोरी की समस्या का हल किया गया। इसके लिए वहाँ श्रम का सभी प्रकार का शोषण ख़त्म किया गया। नशे के दुष्प्रभावों के बारे में लोगों को जागरूक करने वाले नाटकों, फ़िल्मों आदि के ज़रिए लोगों के सामने सांस्कृतिक विकल्प खड़े किए गए। आज मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था लोगों के जीवन में ख़ुशहाली नहीं लाता, बल्कि उनका हर तरह से लूट और शोषण करती है। यह व्यवस्था तमाम तिकड़मबाजियों से लोगों में अच्छे जीवन की झूठी उम्मीद तो जगा सकती है, लेकिन ये उम्मीदें पूरी नहीं कर सकती। ख़ुशहाल और अच्छे जीवन के लिए इस पूँजीवादी व्यवस्था को बदलकर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत है।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)