वामपंथ/ भारतीय पूँजीवाद द्वारा पर्यावरण का दोहन हुआ तेज़

वामपंथ/ भारतीय पूँजीवाद द्वारा पर्यावरण का दोहन हुआ तेज़

इस साल जून में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने तीसरी दफ़ा अपना कार्यकाल शुरू किया, यह सब ऐसे समय में हुआ जब वैश्विक पर्यावरण सूचकांक के अनुसार दुनिया के 180 देशों में पर्यावरण के क्षेत्र में भारत 176वें पायदान पर रहा। पूरा देश इस बार कहीं भीषण गर्मी तो कहीं बाढ़ के संकट से जूझ रहा है। यह वह दौर है, जब भारत में हर साल लाखों मौतें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही हैं। परिस्थितियाँ चिल्ला-चिल्लाकर कह रही हैं कि पर्यावरण का संकट आज मुँहबाए भारत के सामने खड़ा है। ऐसे समय में जब मेहनतकश जनता जलवायु परिवर्तन के दंश को झेलते हुए मर-खट रहा है, तो भारतीय पूँजीवाद ने अपनी मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए (जो कभी पूरी नहीं होगी) पर्यावरण के दोहन को और तेज़ कर दिया है।

अच्छे दिनों के गुलाबी सपनों के साथ सरकार में आई भाजपा ने भारतीय सरमाएदारों के लिए अच्छे दिनों का पिटारा खोल दिया है, काम के घंटे बढ़ाना, श्रम क़ानूनों की चमड़ी उधेड़ना, पूँजीपतियों पर टैक्सों में भारी छूट इत्यादि के अलावा मुनाफ़े की लकड़बग्घे जैसी अँधी भूख की भारी क़ीमत पर्यावरण को भी चुकानी पड़ रही है। जानी-मानी एजेंसी ग्लोबल फ़ॉरेस्ट वॉच के अनुसार, जो उपग्रह डेटा और अन्य स्रोतों का उपयोग करके लगभग वास्तविक समय में वन परिवर्तनों पर नज़र रखती है, भारत ने 2002 से 2023 तक 4,14,000 हेक्टेयर आर्द्र प्राथमिक वन (4.1 प्रतिशत) खो दिया है, जो इसी अवधि में हुए कुल वृक्ष आवरण नुक़सान का 18 प्रतिशत है। वहीं भारत में वर्ष 2000 से अब तक 2.33 मिलियन हेक्टेयर वृक्ष क्षेत्र नष्ट हो चुका है, जो इस अवधि के दौरान वृक्ष क्षेत्र में छह प्रतिशत की कमी के बराबर है।

अडानी और वेदांता जैसे बड़े पूँजीपतियों के लिए हिंदुस्तान के कुछ सबसे घने वन क्षेत्रों में से एक कोंकण और महाराष्ट्र के पश्चिमी तटीय क्षेत्र में फैले सावंतवाड़ी डोडामार्ग वाइल्डलाइफ़ कॉरिडोर के 1,600 एकड़ का वन क्षेत्रफल 2014 के बाद से 4 सालों में ही साफ़ कर दिया गया है। इसी दौरान भारत सरकार ने बुलेट ट्रेन प्रोजेक्ट के लिए पश्चिमी घाट के घने जंगलों का 438 हेक्टेयर वन क्षेत्रफल साफ़ करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी भी दे दी है, जिसमें से बड़ा क्षेत्रफल तो ‘मैन्ग्रोव’ वन का हिस्सा है। वैज्ञानिकों के अनुसार मैन्ग्रोव जलवायु और पर्यावरण के दृष्टिकोण से पूरी मानव जाति की एक बेशक़ीमती संपदा है। मैन्ग्रोव वनों में सूर्य की तीव्र किरणों और पराबैंगनी-बी किरणों से बचाव की क्षमता होती है। मैन्ग्रोव वन, प्रकाश संश्लेषण द्वारा वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को घटाते हैं। साथ ही बहुत बड़ी मात्रा में मिट्टी में कार्बन का संचय भी करते हैं और इस प्रकार हरित गृह प्रभाव को कम करने में सहायक है।

इसके अलावा अडानी के लिए भारत के सबसे विशाल क्षेत्रफल में फैले तीव्र घनत्व वाले जंगल, छत्तीसगढ़ में स्थित हसदेव अरण्य जंगल, जिसे मध्य भारत के फेफड़े माना जाता है, में सरकार ने करीब 5 अरब टन कोयले के भंडार की ओपन कास्ट माइनिंग को मंज़ूरी दे दी है। लगभग 1,70,000 हेक्टेयर में फैले मध्य भारत के सबसे घने जंगलों में से हसदेव को बहुत तेज़ी से तबाह किया जा रहा है। इस पूरे खेल में वन क़ानूनों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ किया गया है। उदाहरण के लिए ग्रामसभाओं से सहमति कोई भी नहीं ली गई। वहीं रही-सही कसर सरकार ने 1927 के भारतीय वन क़ानून में ऐसे संशोधन, उदाहरण के तौर पर वन संरक्षण, वृक्षारोपण की ज़िम्मेदारी से सरकार का पल्ला झाड़ना, ग्रामसभा से जंगल के इन इलाक़ों के अधिग्रहण और व्यावसायिक गतिविधियों के लिए दोहन से पहले ली जाने वाली सहमति की अनिवार्यता भी ख़त्म करना इत्यादि, द्वारा पूरी कर दी, जिससे ना केवल सरकार की ख़तरनाक पूँजीवादी नीतियों के रास्ते आने वाली तमाम क़ानूनी बाधाओं को दूर कर दिया, बल्कि इन क्षेत्र पर पूरी तरह से निर्भर मेहनतकश आदिवासियों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है।

इस बात पर भी ग़ौर करना चाहिए कि पर्यावरण की इस लूट में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अडानी के पीछे खड़े हुए हैं। मुनाफ़े की सनक इतने-भर से पूरी नहीं हुई, तो अंडमान और निकोबार में ग्रेट निकोबार, जो निकोबार द्वीपसमूह का बड़ा द्वीप है, यह बंगाल की खाड़ी के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित 910 वर्ग किलोमीटर का उष्णकटिबंधीय वर्षावन है, इसके दोहन के लिए पूरी योजना बनाई जा चुकी है।

यह तो साफ़ है कि जलवायु परिवर्तन द्वारा उत्पन्न ख़तरे ने विश्वव्यापी आपातकाल का रूप ले लिया है, जिसके लिए एक ठोस और पुख्ता आपातकालीन कार्रवाई की आवश्यकता है, लेकिन पूँजीवाद जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ संघर्ष में कोई निर्णायक क़दम नहीं उठा सकता, क्योंकि यही वह व्यवस्था है, जो आर्थिक-सामाजिक अराजकता को क़ायम रखे हुए है, यही जलवायु परिवर्तन का मूल कारण है।

आज जब विज्ञान, तकनीक और उद्योग के विकास ने हमें समय के एक ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया है, जहाँ हम मनुष्य पर्यावरण के साथ पूर्ण सामंजस्य में अपना पूर्ण विकास कर सकते हैं, परंतु पूँजीवादी आर्थिक संबंध यह होने नही देंगे और अरबों लोगों को पीड़ा की ओर धकेलते हुए पूरी मानव प्रजाति को एक खाई की ओर ले जा रहे हैं। आज इस समय को हल करने के लिए मानवता को निजी संपत्ति के बंधन से बाहर निकलना होगा, जो मानव विकास को बाधित कर रहा है। इसलिए पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिए ज़रूरी है कि मुनाफ़े पर टिकी इस पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाए और मेहनतकशों का राज क़ायम किया जाए।

(यह आलेख मुक्ति संग्राम हिन्दी मासिक से प्राप्त है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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