अभी पिछले महीने, पहले लुधियाणा के ग्यासपुरा में और इसके बाद नंगल के पास जहरीली गैस फैलने से दिल दहला देने वाले हादसे हुए। लुधियाणा में कम-से-कम 11 लोगों की मौत हो गई, जबकि नंगल में भी दो लोगों के जान जाने की खबर आयी है। इस हादसे में दो बच्चे भी शामिल हैं। बड़ी संख्या में लोग बीमार हुए हैं।
सरकारी अधिकारियों के मुताबिक सीवरेज गटर में से निकली हाइड्रोजन सल्फाइड फैलने के कारण यह घटना हुई है। किसी मनुष्य के लिए यह इतनी खतरनाक गैस है कि इसके एक सांस से ही मौत भी हो सकती है। यदि सरकारी अधिकारियों की बात मान लें तो सीवरेज गटर में मीथेन गैस होती है। अब सवाल यह उठता है कि आखिर इसमें हाइड्रोजन सल्फाइड कहां से आई, कैसे बनी, इसके बारे में जानकारी सामने नहीं आई है। इससे संबंधित सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर जांच-पड़ताल की जा रही है। हो सकता है भविष्य में इसकी जानकारी सामने आ जाए, पर इतना जरूर माना जा रहा है कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इलाके में कारखानों में से किसी कारखाने से कोई खतरनाक रासायनिक कचरा गैरकानूनी तरीके से सीवरेज में बहा दिया होगा, जिसके कारण सीवरेज में हाइड्रोजन सल्फाइड बन गई और गटर से निकलकर आस-पास के घरों और दुकानों में फैल गई। जो भी गैस के संपर्क में आया, वो या तो मारा गया या बेहोश हो गया। इलाके से बड़ी संख्या में बेहोश लोगों को अस्पताल पहुंचाया गया।
अखबारों में छपी रिपोर्टों के मुताबिक सरकारी अधिकारियों ने अलग-अलग कारखानों में जाकर जांच की है, पर कारखानों का संबंध जुड़ जाने की वजह से सरकारी जांच महज खाना-पूर्ति है। सच्चाई सामने आने की संभावना बेहद क्षीण नजर आती है। घटना के सिर्फ 5 दिन बाद ही अखबारों में खबरें छपी हैं कि डिप्टी कमिश्नर सुरभी मलिक ने सरकार को जांच रिपोर्ट सौंप दी है, जिसमें उद्योगों को क्लीन चिट दे दी गई है। कहा जा रहा है कि जहरीली गैस कुदरती तौर पर बनी थी और घरों में हवा-निकासी का प्रबंध ना होने के कारण मौतें हुई हैं। इस तरह मौतों का दोषी पीड़ितों को ही बना दिया गया। इस बात को गोल ही कर दिया गया कि लोग सड़क किनारे बेहोश होकर गिर रहे थे। जब इस प्रकार के सवाल सोशल मीडिया पर वाॅयरल हुआ तो, सुरभी मलिक के क्लीन चिट दी जाने वाली बात से मुकर गई और कहा कि जांच अभी जारी है। डिप्टी कमिशनर दफ्तर के इस रवैये से किसी शक की गुंजाइश नहीं रह जाती कि पूंजीपतियों को बचाने की कोशिश जारी है।
पूंजीपतियों द्वारा ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए प्रदूषण काबू करने पर ध्यान ना देने के कारण मजदूरों और अन्य आबादी को सांस, चमड़ी रोग से लेकर कैंसर जैसे भयानक से भयानक रोगों का सामना करना पड़ रहा है। लोगों का जितना नुकसान इस प्रदूषण की वजह से हो रहा है, उसका बहुत छोटा हिस्सा ही सार्वजनिक हो पाता है, जैसा कि ग्यासपुरा में हुआ है। लेकिन कुल नुकसान, जिसमें लोगों का तरह-तरह की बीमारियों से पीड़ित होना, बीमारी और इलाज के कारण छुट्टी और भारी खर्च होने के कारण आर्थिक हालत खराब होना, बेवक्त मौत मरना और लाश की तरह जीना, का कोई हिसाब नहीं है।
नियमों के मुताबिक तो गंदे पानी को साफ करने और अन्य औद्योगिक कचरे के निपटारे के लिए कारखाना मालिकों ने प्रबंध करना होता है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। रासायनिक कचरे समेत गंदे पानी को सीवरेज में बहा दिया जाता है। सीवरेज साफ करने वाले मजदूरों को भी लगने वाली बीमारियों और मौतों का बड़ा कारण यह भी है। लुधियाणा के मशहूर बुड्ढा नाला में कारखानों की गंदगी बहा दी जाती है। हालत यह हो चुकी है कि बुड्ढा नाला का नाम अब गंदा नाला पड़ चुका है। बहुत सारे कारखानों में गंदा पानी बोर द्वारा सीधा धरती में भी डाल दिया जाता है, जिससे जमीनी पानी भी प्रदूषित कर दिया गया है। सरकार की नाक के नीचे यह सारा गोरखधंधा चल रहा है, लेकिन दोषी मालिकों पर कार्यवाही नहीं की जाती। बहुत सारी फैक्टरियों का तो प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के पास रिकॉर्ड ही नहीं है, जो गैर-कानूनी ढंग से चल रही हैं। एक खबर के मुताबिक लुधियाणा में धागा और कपड़ा रंगाई के 50 हजार के करीब कारख़ाने हैं, जिनमें से सिर्फ 2 हजार ही रजिस्टर्ड हैं।
कारखानों में से निकलते धुएं और जहरीली गैसों के कारण शहर के वातावरण की तबाही हो रही है। इसे रोकने के लिए पूंजीपतियों और सरकारों द्वारा जरूरी कदम नहीं उठाए जा रहे। प्रदूषण से मौतों और बीमारियों के अलावा ये कारखाने अन्य अनेक प्रकार के हादसों का कारण बनते हैं। 5 अप्रैल 2021 को ग्यासपुरा में स्थित ‘जसमेल सिंह एंड संज’ नामक एक कारखाने की तीन मंजिला इमारत गिरने की वजह से कम-से-कम पांच मजदूरों की मौत हो गई थी। यह इमारत चालीस साल पुरानी थी और मालिकों द्वारा इसकी छत ऊपर उठवाई जा रही थी, जिसके दौरान यह भयानक हादसा हुआ। यह कारखाना गरीब आबादी के रिहाइशी क्षेत्र में होने की वजह से आस-पास के घरों में रहने वाली गरीब आबादी का काफी नुकसान हुआ था।
कारखानों में अक्सर आग लगती रहती है, जिसके कारण अनेकों मौतें होती हैं। 20 नवंबर 2017 को शहर के सोफिया चैक पर स्थित एमर्सन पॉलीमर नामक कारखाने की इमारत आग लगने के बाद ताश के पत्तों की तरह ढह गई थी। इस हादसे में 13 से अधिक लोग मारे गए थे। मारे गए लोगों में फायर ब्रिगेड दस्ते के मुलाजिम, फैक्टरी के मजदूर और राहत कार्यों में लगे अन्य लोग शामिल थे। इस फैक्टरी में 100 से अधिक मजदूर काम करते थे। रविवार की छुट्टी होने के कारण इनकी जिंदगी बच गई, वरना पता नहीं और कितना नुकसान होना था।
रात के समय चलने वाले कई ऐसे कारखानें हैं, जिसके मालिक ताले लगाकर चले जाते हैं। ऐसे अनेकों हादसे हुए हैं, जब आग लगने के बाद मजदूर जिंदा जल गए, क्योंकि गेट पर ताला लगा हुआ था। ऐसी एक घटना 6 मई 2016 की रात 2 बजे हुई थी जब लुधियाणा के मेहरबान इलाके में स्थित ज्ञानचंद डायिंड में आग लगने की वजह से तीन मजदूर जिंदा जलकर मारे गए। जालंधर में भी एक कंबल बनाने वाली कंपनी के कारखाने में इस प्रकार का हादसा हुआ। कारखाने में मजदूरों का पंजीकरण तक नहीं था। इससे कारखाने के मालिक ने जितने मजदूरों के मरने की बात कही वही मान लिया गया जबकि वहां सैंकड़ों की संख्या में मजदूरों की मौत हुई थी।
बिजली की तारों और अन्य साजो-सामान की गुणवत्ता ठीक ना होने या मरम्मत ना करवाए जाने के कारण कारखानों में आग तो लगती ही है, बल्कि करंट लगने से भयानक रूप से जख्मी होने और मौतों की घटनाएँ भी होती हैं। कारखानों में पावर प्रेसों से सेंसर हटा दिए जाते हैं क्योंकि इनसे पैदावार की रफ्तार कम हो जाती है। खराब मशीनों की रिपेयर नहीं करवाई जाती। चश्मा, मास्क, दस्ताने और जरूरी सामान नहीं दिया जाता। वेतन कम होने के कारण मजदूरों को आठ घंटों के बाद थके होने के बावजूद अनेकों घंटे काम करना पड़ता है। ओवरटाइम ना लगाने वाले मजदूरों को काम से निकाल दिया जाता है। बीमारी के बावजूद भी काम करना पड़ता है। इस सबके चलते मजदूरों के साथ भयानक हादसे होते हैं। बेहोश होना, हाथ, बाजू, उँगलियाँ कट जाना, आँखें खराब होना और मौतें तक हो जाने की घटनाएँ होती हैं।
इस तरह ये कारखाने शहर के मजदूरों और अन्य आबादी के बड़े स्तर पर जान-माल के नुकसान का कारण बने हुए हैं। औद्योगिक हादसों और प्रदूषण को अगर ‘मुनाफे के लिए कत्ल’ कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारखानों के मालिकों को सिर्फ और सिर्फ मुनाफा प्यारा है। वे मुनाफे के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं। यही कारण है कि फैक्टरियों में हादसों और बीमारियों से बचाव, प्रदूषण काबू करने, रासायनिक और अन्य कचरे के सही निपटारे आदि के प्रबंधों को पहल नहीं दी जाती। इमारतों, मशीनों, बिजली की तारों और अन्य साजो-सामान की गुणवत्ता, क्षमता, मरम्मत पर ध्यान नहीं दिया जाता। इन प्रबंधों के लिए पैसा खर्च करने से पूंजीपति ज्यादा-से-ज्यादा बचने की कोशिश करते हैं। उन्हें ना इन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी की कोई परवाह है, ना ही बाकी आबादी की। इनकी गलतियों के कारण होने वाले हादसों के पीड़ितों को ये मुआवजा देने से हमेशा भागते रहते हैं।
पूँजीपतियों ने सरकारी व्यवस्था अपनी मुट्ठी में की हुई है। आखरि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर सारी सरकारें, पुलिस-प्रशासन, श्रम-विभाग, डायरेक्टर ऑफ फैक्टरीज विभाग, प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड, स्वास्थ्य विभाग, श्रम अदालतें आदि सब दिन-रात पूंजीपति वर्ग की ही सेवा में व्यस्त रहते हैं। उनकी हमेशा यही चिंता होती है कि कैसे पूंजीपति वर्ग का मुनाफा बढ़ाया जाए, मुनाफे के सामने से हर रुकावट को हटाया जाए, कैसे पूँजीपति वर्ग के अपराधों को छुपाया जाए, पूंजीपतियों को बचाया जाए, कैसे मजदूरों और अन्य मेहनतकश लोगों की माँगों-मसलों को दबाया जाए, विरोध को कुचला जाए। जब सत्ता पूँजीपति वर्ग के हाथ में है, तो मजदूरों और अन्य मेहनतकश लोगों की जिंदगियों से खेला ही जाएगा। ग्यासपुर में हुई 11 मौतें पूंजीपति वर्ग के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। उसकी चिंता सिर्फ पूंजीपतियों के अपराधों को ढँकने की है। उनकी कोशिश इस मुद्दे पर ज्यादा-से-ज्यादा भ्रम फैलाने की है। इसलिए सरकारी जाँच से न्याय मिलने की संभावना फिलहाल नजर नहीं आ रही। हां, जन आंदोलन के दबाव से सरकारी व्यवस्था को एक हद तक कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। औद्योगिक हादसों और प्रदूषण की इस पूरी परिघटना पर पूरी तरह से रोक लगाने के लिए मुनाफा आधारित अर्थव्यवस्था और इस अर्थव्यवस्था की रक्षा के लिए कायम मौजूदा पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था के खात्मे के आंदोलन को भी मजबूती से आगे बढ़ाने की जरूरत है।
इस प्रकार के हादसे केवल पंजाब में ही नहीं हो रहे हैं। ऐसे हादसे देश के उन तमाम स्थानों पर हो रहे हैं, जहां कारखाने लगे हैं। सरकार तो पूंजीवादियों के हाथ में है लेकिन पूंजीवाद के खिलाफ लड़ने वाले वामधर्मी संगठनों की भूमिका भी इस मामले रहस्यपूर्ण है। खासकर वाममार्गी संसदीय दल इस प्रकार के मुद्दों को तो अब उठाना ही बंद कर दिए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इस प्रकार के मामलों को देखने और उसके खिलाफ रिपोर्ट आदि तैयार करने के लिए मजदूरों के हितों की रक्षा करने का दंभ भरने वाले पार्टी और संगठनों को अपने स्तर पर एक गैर राजनीतिक और गैर सरकारी आॅथरिटी बनानी चाहिए। मजदूरों का उसमें पंजीकरण कराया जाना चाहिए। यदि कोई परेशानी होती है तो उसके लिए रचनात्मक संघर्ष किया जाना चाहिए। बात नहीं बने तो उग्र प्रतिरोध की भूमिका तैयार करनी चाहिए। अभी तो हालात यह हैं कि पूंजीपत्तियों के द्वारा खड़े किए गए संगठनों ने मजदूरों के शोषण की गति को और तेज कर दिया है।
(यह आलेख वामपंथी हिन्दी मासिक पत्रिका मुक्ति संग्राम के मई 2023 अंक से प्राप्त किया गया है। दरअसल, यह पत्रिकार का संपादकी अंश है। उस अंश को संपादित कर यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। आलेख में व्यक्ति विचार मुक्ति संग्राम पत्रिका के आधिकारिक विचार हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई लेनादेना नहीं है। यह आलेख वाक एवं अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता के सिद्धांत पर सार्वजनिक किया जा रहा है। इसके लिए हमारे प्रबंधन की सहमति जरूरी नहीं है।)