वामपंथ/ मध्य पूर्व में क्षेत्रीय युद्ध की ओर बढ़ रहा इज़राइल

वामपंथ/ मध्य पूर्व में क्षेत्रीय युद्ध की ओर बढ़ रहा इज़राइल

युद्धइज़राइल इक्कीसवीं सदी के इंसान के शरीर से चिपका सबसे बड़ा जोंक बन चुका है, जिसने लाखों लोगों के ख़ून को गले से उतारा है। सितंबर के आख़िरी हफ़्ते में इज़राइल ने अपने कुकर्मों में बढ़ोतरी करते हुए लेबनान की राजधानी बेरूत पर बमबारी की, जिसमें आम शहरी निवासियों के अलावा हिज़बुल्लाह के सरपरस्त हसन नसरुल्लाह की भी मौत हुई। इसके अलावा हिज़बुल्लाह के अन्य प्रतिनिधि भी इस हमले में मारे गए।

इस नरसंहार का इज़राइल की राजधानी तेल अवीव में जश्न मनाया गया। सिर्फ़ पिछले एक हफ़्ते में लेबनान के 800 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं (जिनमें ज़्यादातर आम लोग ही शामिल हैं) और 2.5 लाख लोगों को अपनी जन्मभूमि छोड़नी पड़ी। अभी तक मरने वालों की गिनती 2000 से पार जा चुकी है, जिसमें पेजर धमाकों (पेजर दृ सिर्फ़ छोटे संदेशों को भेजने और पाने जैसे सीमित उपयोग के लिए इलेक्ट्रॉनिक यंत्र) में मारे गए लोग भी शामिल हैं। 17 और 18 सितंबर को लेबनान में इस्तेमाल किए जाने वाले पेजरों में इज़राइल द्वारा विस्फोटक सामग्री मिलाई गई, जिनके फटने से 37 लोग मारे गए, जिनमें दो बच्चे शामिल थे और लगभग 3000 लोग ज़ख्मी हुए। फ़िलिस्तीन में 40 हज़ार से अधिक लोगों का क़त्लेआम करके और लगभग सभी फ़िलिस्तीनियों को अपने घरों से उजाड़कर अब इज़राइल ने लेबनान की ओर रुख़ किया है। पर इज़राइल के इस बर्बर कारनामे के ख़िलाफ़ पश्चिमी मीडिया को कोई चिंता नहीं हुई है। ना ही किसी तरह की आर्थिक पाबंदियाँ ही इज़राइल पर लगाई गई हैं। बल्कि संयुक्त राष्ट्र अमेरिका तो इज़राइल को 8.7 अरब अमेरिकी डॉलर का एक और पैकेज तोहफ़े में देने जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के क़ानूनों को ताक पर रखकर युद्ध का अपराधी इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू, न्यूयॉर्क के अपने भाषण में युद्ध को फ़िलिस्तीन से बाहर सारे मध्य पूर्व में भी फैलाने की धमकी देता है।

अमेरिका और उसके साम्राज्यवादी प्यादे इसका विरोध करने की जगह तालियाँ बजाते नज़र आते है। संयुक्त राष्ट्र के “निष्पक्ष मानवीय उसूलों” को लकवा मार गया है। अमेरिकी अधिकारी ब्लिंकन इज़राइल के इन हमलों को “वाजिब समस्याओं” के वाजिब हल की तरह पेश कर रहा है। बाइडेन अपने भाषणों में अमेरिका के इज़राइल के पक्ष में होने के अनेकों सबूत दे चुका है। हज़ारों बच्चों के शरीरों को चिथड़ा बनाने को जायज़ ठहराते हुए ये लुटेरे शासक हमारे दौर के नीरो हैं। साम्राज्यवाद द्वारा थोपी गई इंसानी बर्बरता की यह नई मंज़िल है।

हिज़बुल्लाह लेबनान का ईरानी रुझान वाला कट्टर धार्मिक हथियारबंद समूह है, जिसका गठन 1982 में इज़राइल के लेबनान पर क़ब्ज़े की नीतियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए किया गया था। इस उद्देश्य में हिज़बुल्लाह अब तक कामयाब रहा है। मध्य पूर्व में हिज़बुल्लाह इज़राइल का सबसे बड़ा विरोधी समूह है और अपनी शुरुआत से ही वह फ़िलिस्तीनी संघर्ष का समर्थक रहा है। फ़िलिस्तीनी लड़ाके दक्षिणी लेबनान में शरण लेते रहे हैं, जिस कारण इज़राइल इस हिस्से में लगातार हमले करता आ रहा है। इसी क्षेत्र में हिज़बुल्लाह का सबसे बड़ा आधार है। इज़राइल और हिज़बुल्लाह के सैनिकों का अपना एक इतिहास है (यहाँ हम उसकी चर्चा में नहीं जाएँगे)। अगर स्पष्ट कहना हो तो, इज़राइल के वहशी हाथों के लिए हिज़बुल्लाह एक बड़ी चुनौती है। इसी लिए इज़राइल लगातार हिज़बुल्लाह के प्रतिनिधियों पर हमले कर रहा है।

यहाँ हिज़बुल्लाह की ताक़त का ज़िक्र करना ज़रूरी है। 2006 में इज़राइल के साथ आख़ि‍री युद्ध के बाद हिज़बुल्लाह ने ख़ुद को मज़बूत किया है। 45,000 लड़ाकों की फ़ौज के साथ-साथ हिज़बुल्लाह के पास हथियारों का बड़ा भंडार है, जिनमें मिसाइलों, रॉकेटों और मोर्टार की लगभग दो लाख की गिनती है, जो 40 से 700 किलोमीटर तक हमले की क्षमता रखते हैं। हिज़बुल्लाह के पास इसके अलावा ‘ईरानी फ़तह 110’ मिसाइल भी है, जो 300 किलोमीटर के दायरे में हमला कर सकती है। ग़ौरतलब है कि इज़राइल की लंबाई 400 और चौड़ाई 100 किलोमीटर है। भले ही पश्चिम के पालने में पले इज़राइल की फ़ौजी ताक़त हिज़बुल्लाह से कहीं ज़्यादा है और इसका सुरक्षा तंत्र भी पश्चिमी साम्राज्यवादियों, ख़ासकर अमेरिका, की मदद के साथ बहुत मज़बूत है लेकिन फिर भी अनेकों सैन्य विशेषज्ञों के अनुसार हिज़बुल्लाह के ख़िलाफ़ लड़ना इज़राइल के लिए कोई बच्चों का खेल नहीं।

हमास, जिसकी कुल सैन्य ताक़त इज़राइली सेना के सामने बहुत कम थी, उसके साथ लड़ना इज़राइल के लिए कोई आसान नहीं रहा, जो अभी तक अपनी आज़ादी के लिए डटे हुए हैं। हिज़बुल्लाह का सामना करना तो उसके लिए और भी मुश्किल रहेगा। यहाँ बात सिर्फ़ हथियारों पर ही निर्भर नहीं करती, बल्कि उसके मकसद पर भी करती है, जिसे मन में बसाकर सिपाही मैदान में उतरते हैं। इज़राइल की फ़ौज हमलावर फ़ौज है, जबकि हिज़बुल्लाह और हमास नाजायज़ फ़ौजी क़ब्ज़े और बेइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। यह तथ्य लाज़मी ही इस लड़ाई का सबसे अहम तथ्य है। वियतनाम युद्ध में अमेरिका की हार इस बात की मिसाल है कि किस तरह सीमित साधनों के साथ भी बड़ी से बड़ी साम्राज्यवादी ताक़तों को हराया जा सकता है और दमनकारियों की जड़ें हिलाई जा सकती है। इसके अलावा हिज़बुल्लाह ने लेबनान, ख़ासकर दक्षिणी लेबनान के इलाक़े में अपना आधार क़ायम किया है। उसने सेहत, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का बड़ा ढाँचा खड़ा किया है। ऐसे संस्थागत आधार हिज़बुल्लाह के लिए बहुत फ़ायदेमंद साबित होंगे, जैसे हमास के लिए हुए हैं। हमने देखा कि हमास के पास सुरंगों का बेहतरीन जाल है, जिसके माध्यम से उसने इज़राइल को ज़ोरदार टक्कर दी है। हिज़बुल्लाह के पास इससे भी बड़ी सुरंगों का जाल है, जिससे इज़राइल के लिए लेबनान की ज़मीन पर उतरना फ़िलिस्तीन के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मुश्किल होगा। इसी कारण इज़राइल सिर्फ़ हवाई हमलों से ही अपनी ज़ोर अज़माइश कर रहा है, जिसमें अधिकतर आम नागरिक ही मारे जा रहे हैं।

ईरान ने भी अब इज़राइल पर मिसाइलें दाग़कर करारा जवाब दिया है। इस हमले में इज़राइल का काफ़ी नुक़सान हुआ है, जिसे वह छिपाने की नाकामयाब कोशिशें कर रहा है। यमन का हूती समूह भी इज़राइल के रास्ते का एक बड़ा पत्थर है। दूसरी तरफ़ इज़राइल ने सीरिया में रूसी सैन्य अड्डों पर बमबारी करके रूस को भी इस युद्ध में घसीटने की कोशिश की है। ईरान द्वारा भी इज़राइल पर पिछले दिनों में हमले किए गए हैं। इसलिए अब इज़राइल के लिए लेबनान में किया गया हमला ख़ुद पर ही भारी पड़ रहा है।

एक और ज़रूरी तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। भले इज़राइल ने फ़िलिस्तीन में भयंकर नरसंहार किया, पर इसके बावजूद वह अपने असल मंसूबों को अंजाम नहीं दे पाया है दृ फ़िलिस्तीन के राष्ट्र मुक्ति संघर्ष को ख़त्म करना। वह जितना अधिक ज़ुल्म करता है, उतना ही फ़िलिस्तीनी जनता इस लड़ाई में आ खड़ी होती है, क्योंकि फ़िलिस्तीन की लड़ाई पूरा फ़िलिस्तीन राष्ट्र लड़ रहा है। इसी तरह लेबनान में भी इज़राइल को लोगों के इस जज़्बे का सामना करना पड़ेगा।

इज़राइली अर्थव्यवस्था धीमी रफ़्तार का शिकार हो चुकी है। पिछले साल के 7 अक्टूबर के बाद कुल घरेलू उत्पाद में 4.1ः की गिरावट आई, जो इस साल के पहली दो तिमाहियों के दौरान भी जारी रही। इस बार इज़राइल की सालाना जी.डी.पी. वृद्धि दर सिर्फ़ 1.5ः रहने की संभावना है। बैंक ऑफ़ इज़राइल के मुताबिक़ 2025 तक सैन्य ख़र्चे 67 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएँगे, जिसका हर्ज़ाना इज़राइल की सेहत और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं को झेलना पड़ेगा। 60,000 से ज़्यादा कंपनियों को साल के आख़िर तक बंद किया जा सकता है, क्योंकि उनके कामगारों की बड़ी गिनती को फ़ौजी सेवाओं के लिए बुलाया जा सकता है।

आधे से ज़्यादा बड़ी तकनीकी कंपनियों ने भी अपने 5 से 10ः मज़दूरों की छँटनी कर दी है। फल और सब्ज़ियों की फ़सलों का 22ः हिस्से का नुक़सान हो गया है। पर्यटन क्षेत्र ठप्प हो गया है। उपरोक्त हालत में इज़राइल में रोष और बेचौनी बढ़ रही है, जिसकी अभिव्यक्ति नेतन्याहू के ख़िलाफ़ हो रहे रोष प्रदर्शनों में भी देखने को मिल रही है। आम आबादी भी मानसिक परेशानियाँ बढ़ती जा रही हैं। आम इज़राइलियों के बीच नशों और नींद की गोलियों का उपयोग पिछले एक साल में काफ़ी बढ़ गया है। उपरोक्त आर्थिक हालातों से साफ़ है कि इज़राइल अपने दम पर लड़ाई जारी नहीं रख सकता। इज़राइल में बढ़ रही बेचौनी को ठंडा करने के लिए और अमेरिका के जंग में सीधी भागीदारी को पक्का करने के लिए नेतन्याहू लेबनान, ईरान, इराक़, यमन और सीरिया समेत सभी मध्य पूर्व में क्षेत्रीय जंग छेड़ना चाहता है। ईरान में हमास के प्रतिनिधियों को मारना, हिज़बुल्लाह के प्रतिनिधि नसरूल्लाह की हत्या और संयुक्त राष्ट्र के मंच से यह बयान देना कि इज़राइल की पहुँच ना सिर्फ़ ईरान के चप्पे-चप्पे तक है, बल्कि पूरे मध्य पूर्व तक है। यह इज़राइल की टेढ़ी चाल है।

लेकिन इसे किसी भी तरह नेतन्याहू की व्यक्तिगत सनक तक सीमित करना बेवक़ूफ़ी होगी। आज हम साम्राज्यवाद के दौर में जी रहे हैं और युद्ध साम्राज्यवादी देशों के लिए मुनाफ़े का बड़ा स्रोत होता है। जंग के दौरान या जंग का माहौल बनाकर हथियारों की खपत बढ़ाई जाती है, जिससे पूँजीपतियों को अथाह मुनाफ़ा होता है। दूसरा, साम्राज्यवादी देश युद्ध द्वारा अपनी वैश्विक पैठ को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। जैसे यूक्रेन में और फ़िलिस्तीन में किया गया और अब लेबनान में किया जा रहा है। आज इज़राइल के ज़ुल्मों में साम्राज्यवादी अमेरिका इसकी पीठ थपथपा रहा है और अगर मध्य पूर्व में जंग छिड़ती है तो अमेरिका इसमें बराबर का हिस्सेदार होगा।

इस जंग के नतीजे बहुत भयानक होंगे। लाखों लोग अपनी जानें गँवा चुके हैं और युद्ध के आसार बढ़ने के साथ कितने ही और लोग मौत की कगार पर खड़े हैं। पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के अलावा अरब के कुछ देश भी दबाव में आकर इज़राइल का साथ दे रहे हैं। मिसाल के तौर पर इज़राइल के पक्ष में खड़े होने के कारण इसके दो पड़ोसी देश मिस्र और जॉर्डन को राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अरबों के क़र्ज़ मिले। इसके बदले उन्हें मुद्रा कोष की शर्तों को पूरा करने के लिए मजबूर होना पड़ा और देश में निजीकरण बढ़ाकर सार्वजनिक सुविधाओं पर बड़ी कटौती की गई। यूक्रेन जंग के बाद ही यहाँ हालात बद से बदतर होने शुरू हो गए थे। मिस्र में महँगाई ने लोगों की कमर तोड़ रखी है। जॉर्डन में ग़रीबी दर 2018 में 15ः थी, जो बढ़कर 2022 में 24ः तक पहुँच गई और इस वक़्त नौजवानों में बेरोज़गारी दर 22ः तक पहुँच गई है।

इसके अलावा यहाँ की सरकारों द्वारा इज़राइल के साथ हाथ मिलाना, आग में घी डालने के समान है। देश में सरकार के ख़िलाफ़ बड़े रोष प्रदर्शन हुए हैं, जिन्हें लगातार ही बेरहमी से कुचला गया। अन्य अरब देशों में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। मध्य पूर्व आज ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है, जो किसी भी समय फट सकता है। पश्चिमी देशों के लुटेरे शासकों को भी अपने लोगों का तीखा विरोध सहना पड़ रहा है। पिछले साल-भर के अंदर हमने यू.के., जर्मनी और फ़्रांस की सड़कों पर उतरे फ़िलिस्तीन के समर्थन में लाखों की भीड़ देखे है, जहाँ लोगों ने हुकूमतों को इज़राइल को हथियारों की सप्लाई बंद करने के लिए ललकारा है। अमेरिका की यूनिवर्सिटियों में फ़िलिस्तीन के हक़ में विद्यार्थियों ने व्यापक शिविरों का आयोजन किया। अमेरिका के वियतनाम पर हमले के बाद देश में भड़का लोगों का ग़ुस्सा कोई बहुत पुरानी बात नहीं। अगर अमेरिका ऐसा फिर करता है, तो वही इतिहास इस बार फिर दोहराए जाने की काफ़ी संभावना है।

मध्य पूर्व के इस युद्ध का असर सारी दुनिया तक जाएगा। पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था और ज़्यादा नंगी होकर तबाही मचाएगी और इसके कुरूप चेहरे पर पड़ीं झुर्रियाँ पहले के मुक़ाबले और ज़्यादा गहरी होंगी। हालात और साफ़ करेंगें कि यह व्यवस्था का ख़ात्मा होना चाहिए। ऐसे समय में कुल संसार के मेहनतकशों की ज़िम्मेदारी बनती है कि इस शोषक व्यवस्था की क़ब्र खोदकर जनपक्षधर व्यवस्था के निर्माण के लिए अपने संघर्षों को तेज़ करें।

(लेखक पंजाब यूनिवर्सिटी में पढते हैं। इनके विचार निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है। वैसे यह आलेख मजदूर बिगुल नामक मासिक पत्रिक से ली गयी है।)

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