वामपंथ/ पेट्रो-डॉलर की जगह पेट्रो-युआन, तेल बाज़ार का मुक़ाबला बढ़ती अंतर-साम्राज्यवादी कलह का नया स्वरूप

वामपंथ/ पेट्रो-डॉलर की जगह पेट्रो-युआन, तेल बाज़ार का मुक़ाबला बढ़ती अंतर-साम्राज्यवादी कलह का नया स्वरूप

संयुक्त राज्य अमेरिका (आगे सिर्फ़ ‘अमेरिका’) और चीन की लड़ाई अब तेल के बाज़ार में भी तेज़ होने वाली है। पिछले दिनों सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ अपने 50 साल पुराने तेल के बदले डॉलर समझौते, जिसे “पेट्रो-डॉलर समझौता” भी कहा जाता है, की समाप्ति पर इसके नवीनीकरण की जगह इसे ख़त्म कर दिया। सऊदी अरब ने अपने तेल की बिक्री के लिए सिर्फ़ डॉलर की जगह अब तीन अन्य मुद्राएँ दृ येन, युआन और यूरो में व्यापार करने के लिए सहमति दे दी है। जिसमें सबसे अहम चीन की मुद्रा, युआन है। निश्चय ही यह आने वाले सालों में तेल बाज़ार में अमेरिका और चीन के आपसी टकराव को और तीखा करने वाला फ़ैसला है, पर आगे बढ़ने से पहले यह जान लें कि पेट्रो-डॉलर समझौता क्या है। किन हालातों में यह लिया गया और अब 50 सालों के बाद सऊदी अरब द्वारा इस समझौते को ख़त्म करने के पीछे क्या कारण है और इसके क्या नतीजे निकलेंगे।

सऊदी अरब और साम्राज्यवादी अमेरिका के दोहरे रिश्ते पिछले 50 सालों से मज़बूत चले आ रहे थे, कहा जाए तो आधुनिक काल में किन्हीं दो मुल्क़ों के आपसी रिश्तों में यह बेहद लंबा काल है। इस काल के दौरान पंद्रह अमेरिकी राष्ट्रपति और सात सऊदी सुल्तान बदल गए और दो खाड़ी युद्ध, 9/11 का हमला और फिर इराक़-अफ़ग़ानिस्तान पर अमेरिका का साम्राज्यवादी हमला हो चुका। लेकिन कूटनीति के क्षेत्र में यही माना गया कि सऊदी अरब और अमेरिका के रिश्तों की ज़मीन बहुत मज़बूत है। और हो भी क्यों ना, इसकी बुनियाद ही टिकी थी मज़बूत ‘पेट्रो-डॉलर समझौते’ पर।

1971 में अमेरिका द्वारा ब्रेटन वुड्स समझौते को ख़त्म करने और स्वर्ण मानक डॉलर को ख़त्म करने के बाद पश्चिमी देशों की मुद्राओं में तेज़ उतार-चढ़ाव देखे गए। इसी दौरान 1973 में अरब और इज़राइल की ‘योम किप्पुर जंग’ छिड़ गई, जिसमें अमेरिका पूरी तरह इज़राइल के साथ खड़ा था। इससे ख़फ़ा होकर अरब मुल्क़ों ने सऊदी के नेतृत्व में अमेरिका के तेल निर्यातों पर पाबंदी लगा दी। नतीजतन अमेरिका में बिगड़ रहे आर्थिक हालात और ज़्यादा नाज़ुक हो गए। उस समय सऊदी अरब ने ओपेक (व्च्म्ब्) के मुल्क़ों को एक तरह से चेतावनी भी दी कि जो भी ओपेक मुल्क़ अमेरिका को तेल बेचेगा, उसे इसका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा और दूसरी तरफ़ सऊदी अरब ने यह भरोसा दिलाया कि अमेरिका जैसे बड़े तेल बाज़ार के बंद होने के कारण ओपेक देशों पर पड़ने वाले घाटे की भरपाई सऊदी अरब करेगा। लेकिन इस बड़े फ़ैसले के एक साल बाद ही सऊदी अरब ने पूरी तरह यू-टर्न मारते हुए अगले साल जून 1974 में इस साम्राज्यवादी अमेरिका के साथ पेट्रो-डॉलर समझौता कर लिया, जिस पर पाबंदियों की अगुवाई वह कर रहा था। आख़िर ऐसा यू टर्न कैसे संभव हुआ?

जैसा कि कहा जाता है कि राजनीति आर्थिकता का ही गहरा इज़हार होती है यानी पूँजीवादी सियासत में सब राजनीतिक फ़ैसले, और समझौतों के पीछे पूँजीपतियों के और उनके सरकारों के हित छुपे हुए होते हैं। इसीलिए सऊदी अरब के यू-टर्न के पीछे ऐसे ही छुपे हुए मंसूबे शामिल थे। अरब-इज़राइल युद्ध में अरब देशों की हार के पीछे सऊदी अरब की क्षेत्रीय बादशाहत की ख्वाहिशों को झटका लगा था। सऊदी अरब ख़ुद को मध्य पूर्व के क्षेत्र में सबसे बड़े खिलाड़ी के रूप में देखना चाहता था और इसके लिए उसे आधुनिक हथियारों और आर्थिक मदद की ज़रूरत थी, जो उसे अमेरिका द्वारा मिल सकती थी। दूसरी तरफ़ आर्थिक मंदी से उभरने के लिए अपने डॉलर के दबदबे को मज़बूत करने के लिए अमेरिका को भी सऊदी अरब की ज़रूरत थी, क्योंकि उस समय अमेरिका तेल का आयातक था और इसकी तेल की ज़रूरतें बहुत ज़्यादा थी और सऊदी अरब दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों और निर्यातकों में आता था। इसलिए एक तरफ़ तो सीधे तौर पर अमेरिका की सऊदी तेल पर निर्भरता थी और दूसरी तरफ़ दुनिया-भर में जहाँ-जहाँ भी सऊदी तेल बेचा जाता था, अगर इन सभी मुल्क़ों में सऊदी अरब को तेल का भुगतान डॉलर में किया जाता, तो उनके लिए अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर की ज़रूरत बढ़ जाती। इसके साथ ही अमेरिकी डॉलर की माँग लगातार बढ़नी थी और डॉलर ने और मज़बूत होना था। डॉलर के मज़बूत होने के साथ अमेरिका को अपने ऋणों के लिए सुरक्षा मिलनी थी और अमेरिकी ग्राहकों के लिए निर्यातों को सस्ता होना था और अमेरिकी सरकार के बॉन्डों की भी माँग बढ़नी थी। इसीलिए दोनों धड़े दृ साम्राज्यवादी अमेरिका और सऊदी अरब दृ ने पिछले साल की जंग के दौरान के अपने आपसी मन-मुटाव को छोड़कर अपने-अपने व्यापारिक हितों के लिए जून 1974 में पेट्रो-डॉलर समझौते को प्रस्तावित किया।

अगर 1974 में डॉलर के तेल के साथ जुड़ने ने डॉलर के वर्चस्व को पक्का करने में इतनी बड़ी भूमिका अदा की, तो क्या यह स्वाभाविक नहीं था कि अब सऊदी अरब के फ़ैसले दृ पेट्रो-डॉलर समझौते को ख़त्म करना दृ के पीछे डॉलर की क़ीमत में गिरावट आनी चाहिए थी, डॉलर बाज़ार में बड़ी हलचल छिड़नी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, आख़िर क्यों? जब हम इसके कारणों को तलाशते हैं, तो तेल बाज़ार में आगे-पीछे होने वाले टकरावों की ज़मीन ख़ुद समझ आ जाती है। पेट्रो-डॉलर समझौते के ख़त्म होने के पीछे भी अमेरिकी डॉलर की सेहत पर तात्कालिक असर ना पड़ने का सीधा कारण है, पिछले 50 साल में (ख़ासकर अंत के 20 सालों में) तेल बाज़ार के बदलते समीकरण।

1991 में अमेरिका में तेल के उत्पादन की शैल विधि का ईज़ाद होना बड़ी तकनीकी तरक़्क़ी थी, जिसने तेल उद्योग को अगले 20 सालों में बिल्कुल बदलकर रख दिया। शुरू-शुरू में इस विधि के साथ तेल निकालने की तकनीक कम विकसित होने के कारण इस प्रक्रिया द्वारा तेल निकालना महँगा पड़ता था, इसलिए यह सऊदी या रूस के कच्चे तेल का मुक़ाबला नहीं कर सकता था। लेकिन समय के साथ तकनीक में आई तेज़ी ने शैल विधि को और ज़्यादा सस्ता बना दिया और 2005 से इसके द्वारा अमेरिका की तेल पैदावार तेज़ी से बढ़ने लगी। 2014 आते-आते अमेरिका कच्चे तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो गया और 2016 में इसने पहली बार विश्व बाज़ार में अपना तेल बेचना शुरू कर दिया और आज 2023-24 में अमेरिका दुनिया में तेल का सबसे बड़ा उत्पादक और पाँचवाँ सबसे बड़ा निर्यातक बन गया है। तेल बाज़ार में इस दाख़ि‍ले के साथ अमेरिका सीधा-सीधा ओपेक मुल्क़ों का मज़बूत प्रतियोगी बन बैठा है। यूक्रेन-युद्ध शुरू होने के बाद अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी यूरोप के कई मुल्क़ों ने रूस पर जब भी पाबंदियाँ लगाईं, तो परंपरागत तौर पर रूस के तेल की मंडी रहे पश्चिमी यूरोप को तेल की पूर्ति बंद हो गई। अमेरिका को पता था कि ऐसी स्थिति का सबसे ज़्यादा लाभ उसी को होगा, इसीलिए आज पश्चिमी यूरोप के बाज़ार अमेरिकी तेल से ओतप्रोत हैं, जो पहले रूस या सऊदी अरब के तेल के साथ चलते थे। इसलिए सऊदी अरब द्वारा पेट्रो-डॉलर समझौते को बंद करने के बावजूद भी डॉलर पर सीधा असर इसलिए नहीं पड़ा, क्योंकि तेल के मामले में आज अमेरिका की वह स्थिति नहीं है, जो 1970 के समय थी। आज अमेरिका ख़ुद तेल उद्योग का बड़ा खिलाड़ी है और पश्चिमी यूरोप के मुल्क़ों की अमेरिकी तेल पर निर्भरता ने तेल आधारित डॉलर की माँग बनाई हुई है।

मध्य-पूर्व के तेल बाज़ार से अमेरिका का बाहर होना, चीन को इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने का मौक़ा देता है। 1970 में सऊदी अरब के साथ जिस स्थिति में पहले अमेरिका था, उस स्थिति में, बल्कि उससे बेहतर हालत में आज चीन है। कारण यह है कि 1970 के अमेरिका की अपेक्षा आज चीन के पास सऊदी अरब को देने के लिए उससे भी बड़ी पेशकश है, इसलिए पिछले दो सालों में हम देखते हैं कि चीन ने भारत के विरोध को किनारे करते हुए सऊदी अरब को ब्रिक्स गठजोड़ में शामिल करने के लिए अहम भूमिका अदा की है, साथ ही सऊदी अरब के परंपरागत विरोधी रहे ईरान के साथ पिछले साल अपनी अगुवाई में सुलह करवाई और अब सऊदी अरब की सबसे बड़ी तेल कंपनी ‘सऊदी अरामको’ चीन में अपना निवेश बढ़ा रही है। बदले में चीन ने सऊदी अरब का सबसे बड़ा व्यापार पार्टनर होने के नाते तेल के बदले युआन देने की पेशकश स्वीकार कर ली है और सऊदी अरब को अपनी डिजिटल मुद्रा के अहम प्रोजेक्ट ‘एंब्रीज’ में शामिल कर लिया है।

कहने का अर्थ यह है कि तेल की मंडी में कम से कम एशिया के बाज़ार में से डॉलर की विदाई होना तय है। लेकिन इस हड़पे गए बाज़ार को अमेरिका ने पश्चिमी यूरोप के अपने पुराने संगियों से पूरा करके फ़िलहाल भरपाई कर ली है। दूसरी तरफ़ एशिया के क्षेत्र में डॉलर की जगह अब पेट्रो-युआन का चलन होना भी तय है, भले इसकी कई तकनीकी जटिलताओं को दूर करने में अभी समय लगेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अगर आज के तेल समझौते डॉलर से युआन द्वारा बदल जाते हैं, तो यह 1.2 खरब डॉलर के होने वाले सालाना तेल समझौतों में से 600 से 800 अरब डॉलर का हिस्सा चूस जाएँगे, जो लाजिमी ही अमेरिकी डॉलर के लिए बड़ा झटका होगा। इस तरह तेल मंडी के दो बाज़ार दृ ओपेक और ग़ैर-ओपेक दृ के बीच मुक़ाबला आने वाले सालों में तीखा होने वाला है और ओपेक के तीन बड़े सदस्य दृ सऊदी अरब, ईरान और संयुक्त अरब अमीरात के चीन-रूस अगुवाई वाले ब्रिक्स गठजोड़ में भी शामिल हो जाने का मतलब है कि तेल का मुक़ाबला भी अब अमेरिकी और पश्चिमी यूरोपीय देशों और जापान की सदस्यता वाले जी-7 गठजोड़ के और चीन-रूस अगुआई वाले ब्रिक्स गठजोड़ के ही अधीन आ गया है।

पेट्रो-डॉलर की जगह पेट्रो-युआन का कायम होना कम से कम एशिया के तेल बाज़ारों में अडॉलरीकरण की प्रक्रिया का ही आगे विस्तार है, जिसे चीन-रूस धड़े द्वारा मज़बूती से आगे बढ़ाया जा रहा है। अमेरिका के साम्राज्यवादी दबदबे में डॉलर की केंद्रीय भूमिका रही है, इसलिए डॉलर की स्थिति को लगने वाली हर चोट लाजिमी तौर से अमेरिका की साख को गिराती है। भले ही इस दौरान अमेरिकी डॉलर कुल अंतरराष्ट्रीय भुगतानों का 40ः और कुल आरक्षित मुद्रा भंडारों का 59 प्रतिशत हिस्सा है। लेकिन पिछले दो दशकों से इस हिस्से में धीरे-धीरे कमी आती रही है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दस्तावेज़ों के मुताबिक़ 1999 में संसार के केंद्रीय बैंकों के आरक्षित भंडारों में डॉलर का हिस्सा 71 प्रतिशत था, जो कि 2021 तक घटके 59 प्रतिशत रह गया। इस गिरावट की भरपाई लगभग 25 प्रतिशत चीनी युआन और बाक़ी 75ः दूसरी छोटी अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं जैसे कि ऑस्ट्रेलियाई और कनाडाई डॉलर और कोरियाई वोन से हुई है। लेकिन अभी भी अन्य मुद्राएँ यूरो, पाउंड और चीनी युआन का कुल विश्व व्यापार में हिस्सा कम होने के कारण डॉलर की साख में तात्कालिक गिरावट की संभावना नहीं है। लेकिन अडॉलरीकरण की जो प्रक्रिया पिछले 20 सालों से धीरे-धीरे चल रही है, उसके रूस-यूक्रेन घटनाक्रम और अब सऊदी अरब का चीन की तरफ़ वापस आना और ब्रिक्स के विस्तार के साथ तेज़ रफ़्तार पकड़ने की संभावना है।

बेशक तेल बाज़ार में डॉलर को लगने वाली चोट विश्व राजनीति में बड़ी घटना है और यह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था को और अधिक अस्थिरता की तरफ़ लेकर जाएगी, लेकिन इसके साथ ना तो साम्राज्यवाद और ना ही साम्राज्यवादी लूट ख़त्म होने वाले हैं। अब तक चलती आई डॉलर व्यवस्था में जिस तरह संसार-भर के मेहनतकशों की लूट होती थी, वहीं डॉलर के बग़ैर व्यवस्था में भी जारी रहेगी, भले ही डॉलर की जगह चीनी मुद्रा ले ले या कई अन्य मुद्राओं का गठजोड़।

दूसरा मापदंड यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद डॉलर की इस गिरावट को चुपचाप बैठकर नहीं देखता रहेगा। अपनी साख को हो रहे नुक़सान से बचाने के लिए जहाँ एक तरफ़ अमेरिका लगातार नए बाज़ारों की तलाश कर रहा है, वहीं अपने फ़ौजी दबदबे का सहारा लेकर अधिक हिंसक भी होगा, जिसका नतीजा अमेरिका और चीन-रूस के साम्राज्यवादी धड़ों के बीच बेहद तीखे होते टकराव के रूप में हमें देखने को मिलेगा। यह टकराव जनता को तबाही और उजाड़े की तरफ़ धकेलने वाली यूक्रेन-जंग जैसी नई घटनाओं को जन्म देगा। आज पूँजीवादी व्यवस्था के पास ब्रेटन वुड्स जैसे समझौतों की तरफ़ मुड़ने के विकल्प भी मौजूद नहीं है और यह दिन-ब-दिन अधिक अस्थिर, अधिक परजीवी होता जा रहा है। मज़दूरों, मेहनतकशों को शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति इस या उस मुद्रा व्यवस्था में या इस या उस साम्राज्यवादी धड़े में रहकर नहीं, बल्कि इन साम्राज्यवादी झगड़ों की बुनियाद, इस पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के ख़ात्मे से ही मिल सकती है।

(यह आलेख मजदूर बिगुल के अद्यतन अंक से प्राप्त किया गया है। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निज हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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