गौतम चौधरी
अभी हल ही में आठ मार्च बीता है। यह तारीख इसलिए खास है कि इसे दुनिया महिला दिवस के रूप में मनाती है। समाजवादी या साम्यवादी विचारधारा में आस्था रखने वाले इस तारीख पर अमूमन रोजा लक्जेमबर्ग की चर्चा जरूर करते हैं। आज हम उसी रोजा, जिसे उनके समर्थक ‘रेड रोजा’ के नाम से पुकारते हैं, चर्चा करने वाले हैं। हम इस आलेख में रोजा और महान समाजवादी क्रांतिकारी व्लदिमिर इल्यिच लेनिन के बीच उस महत्वपूर्ण मतभेदों की भी पड़ताल करेंगे जिसके कारण आजतक रोजा एक खास प्रकार के अधिनायकवादी साम्यवादियों के बीच खलनायक बनी हुई हैं।
वह दौर यूरोप में जातीय राष्ट्रवाद का था। पहचान को लेकर यूरोप के देश अपनी-अपनी राष्ट्रीय सीमा तय करने में लगे थे। दरअसल, यह ऐसे ही नहीं हुआ था। वास्तविकता तो यह थी कि यूरोप में एक नयी विचारधारा आकार ग्रहण करने लगा था। उस विचारधारा के कारण यूरोप के नवसामंत भयभीत थे। उन्हें शाषण से संचित पूंजी को बचाने की चिंता सताने लगी। इस चिंता ने ही यूरोप में जातीय राष्ट्रवाद को जन्म दिया। उन दिनों यूरोप के ज्यादातर हिस्से राष्ट्रवाद और देशभक्ति के नाम पर हिंसा की चपेट में आ गया था। इसी मौके रोजा लक्जेमबर्ग का राजनीति में पदार्पण होता है। रोजा इन सबके बीच शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते लगातार दंडित की जाती है लेकिन उन्होंने अपना काम नहीं छोड़ा। वैसे तो रोजा के इस क्रोतिकारी जीवन भौतिक अंत 15 जनवरी 1919 को होता है लेकिन वह आज भी जीवित हैं।
रोजा लक्जमबर्ग का जन्म 5 मार्च 1871 में पोलैंड के एक छोटे से गांव के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। पोलैंड का यह हिस्सा तब रूसी साम्राज्य के अंतर्गत था। रोजा यहूदी परिवार में जन्मी थी। उनके पिता एक व्यापारी थे। वह अपने स्कूल के समय से ही राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हो गई थी। वह हाई स्कूल में अंडरग्राउंड एक्टिविटी में शामिल हो चुकी थीं।
उन्होंने जीवन में कई बाधाओं का सामना किया। उनके दोनों पैर की लंबाई समान न होने के कारण उनकी शारीरिक क्षमता को हमेशा कम आंका जाता था। यही नहीं रूस के कब्जे वाले पौलेंड में यहूदी के रूप में उन्हें एक सेकंड क्लास सिटीजन के तौर पर देखा जाता था। बावजूद इन सब बाधाओं के रोजा उस समय की उन महिलाओं में शामिल थीं जिन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की।
सामाजिक लोकतंत्रवादी, समाजवादी, कम्युनिस्ट, नेता, पत्रकार और क्रांतिकारी रोजा लक्जमबर्ग वह नाम है जो अपने विचारों के कारण पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। सत्ता में बैठे लोगों से सवाल करना उनका पसंदीदा काम था। राजनीतिक हठधर्मिता, सामाजिक असमानता, लैंगिक भेदभाव और विकलांगता के भेदभाव के खिलाफ उनका जुझारू काम आज की पीढ़ी के लिए भी विरासत है, जो अन्याय के खिलाफ बोलने के लिए लोगों को प्रेरणा देता है।
रोजा लक्जेमबर्ग ने पोलैंड और जर्मनी के मजदूर आंदोलन में अत्यंत विशिष्ट भूमिका निभाई थी। वे दूसरे इंटरनेशनल के वाम पक्ष की नेता थीं। वे जर्मनी में इंटरनेशनल ग्रुप के प्रायोजकों में से एक थीं। बाद में उनके इस ग्रुप का नामकरण हुआ स्पार्टाकस ग्रुप और अंत में स्पार्टाकस लीग। वे नवंबर 1918 की क्रांति के दौरान क्रांतिकारी जर्मन मजदूरों के नेताओं में से एक थीं। वे जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की उदघाटन कांग्रेस में शामिल हुई थीं। जनवरी 1919 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी हत्या कर दी गई।
रोजा और लेनिन के संबंध अत्यंत जटिल थे। रूसी क्रांति के ठोस सवालों पर उन्होंने आपस में तीखे राजनीतिक वाद-विवाद चालए, मगर अतंरराष्ट्रीय क्रांतिकारी सामाजिक जनवाद के मंच पर दोनों एक साथ मौजूद रहे। दोनों ही ने साम्राज्यवादी युद्ध के दौरान दूसरे अंतरराष्ट्रीय के गद्दारों के विरुद्ध दृढ़ता के साथ संघर्ष चलाया लेनिन ने रोजा को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनका वर्णन तीसरे इंटरनेशनल के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि’ के तौर पर किया है।
हाल में पश्चिमी मार्क्सवादी पंडितों के बीच रोजा लक्जेमबर्ग के विचारों पर फिर बहसें शुरू हो गई हैं। हमारे देश में भी विभिन्न प्रकार के विचारक अपनी धारणाओं के समर्थन में रोजा की रचनाओं का धड़ल्ले के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं। फार्मरों के आंदोलन के नेता शरद जोशी रोजा की कृति पूंजी का संचय का उल्लेख करते हैं। वे इसकी मदद से यह सिद्ध करना चाहते हैं कि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य केवल कृषि-क्षेत्र के आंतरिक औपनिवेशीकरण के जरिए ही संभव है।
कुछ समाजवादी लेखकों का कहना है कि सोवियत संघ में नौकरशाही विकृतियों का, जो कि गोर्बाचेव के सुधारों द्वारा सबसे ज्यादा स्पष्ट रूप में प्रकट हुईं, स्रोत रोजा द्वारा 1918 में जेल-प्रवास के दौरान लिखी गई पांडुलिपियों में प्रकट की गई शंकाओं के अनुसार बोल्शेविकों द्वारा नवंबर 1917 में अलोकतांत्रिक तरीके से सत्तादखल और केंद्रीयता पर जरूरत से ज्यादा जोर देने की लेनिनवादी पद्धति है। फिर रोजा की बड़ाई पार्टी-निर्माण के बारे में लेनिन के ‘अतिकेंद्रीयतावादी’ रुख का विरोध के लिए भी की जाती है।
संक्षेप में, रोजा लक्जेमबर्ग के इस पुनर्जीवन के पीछे लेनिन के विरुद्ध रोजा को खड़ा करने की सचेत कोशिश नजर आती है। लिहाजा, हमें रोजा और लेनिन के बहुमुखी संबंधों पर, उनके तीखे मतभेदों और उनकी अतंरराष्ट्रवादी सर्वहारा एकता पर, एक नजर डाल लेनी चाहिए। हमें यह भी देखता होता कि अंतरराष्ट्रीय मजदूर आंदोलन की विभिन्न मंजिलों में ये मतभेद और एकता किस प्रकार प्रकट हुए।
कई स्थानों पर वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता माने जाने वाले कार्ल माक्र्स के विचारों से भी रोजा के मतभेद दिखते हैं। रोजा लक्जेमबर्ग ने 1913 में प्रकाशित अपनी सुप्रसिद्ध पूंजी का संचय में माक्र्स की मान्यता का विरोध किया है और इस सिद्धांत को सामने रखा है कि पूंजीवादी क्षेत्र में उत्पन्न अतिरिक्त मूल्य पिछड़े क्षेत्रों और देशों के औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के जरिए प्राक-पूंजीवादी क्षेत्र में हासिल किया जाता है।
रोजा 1889 में ज्यूरिक, स्विट्जरलैंड चली गई थी। वहां उन्होंने कानून और राजनीति की पढ़ाई की। साल 1898 में उन्होंने मानक उपाधि हासिल की। ज्यूरिक में वह अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन में हिस्सा लेने लगीं। वहां उनकी मुलाकात जॉर्जी वैलेन्टिनोविच प्लेखानोव, पावेल एक्सेलरोड और रूसी सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन के अन्य प्रमुख प्रतिनिधियों से हुई। हालांकि जल्द ही वह उनके विचारों से असहमत भी होने लगीं।
उन्होंने रूसी और पोलिस सोशलिस्ट पार्टी दोनों को चुनौती दी। यही वजह है कि उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर ‘पोलिस सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी’ की स्थापना की जो आगे जाकर ‘पोलिस कम्युनिस्ट पार्टी‘ बनी। राष्ट्रीय मुद्दे लक्जमबर्ग के मुख्य विषय बन गए थे। उनके लिए राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय स्वतंत्रता पूंजीपति वर्ग के लिए रियारत थीं। वह लगातार राष्ट्रवादी आकांक्षाओं को कम करने और समाजवादी अंतर्राष्ट्रीयवाद पर जोर दिया करती थीं।। यह एक बड़ा कारण था जिस वजह से वह व्लादमिर लेनिन से असहमति रखती थी। वह लेनिन का विरोध खुलकर करती थीं लेकिन उनके सम्मान में भी कोई कमी नहीं दिखाती थीं।
वह मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित थी लेकिन वह अपने सहयोगियों की आलोचना करने से भी नहीं हिचकती थीं। रोजा, लेनिन के समाजवाद की विचारधारा का खुलकर विरोध करती थी। वह लेनिन के ‘केंद्रीय नेतृत्व’ के विचार का विरोध करती थीं। रोजा का मानना था कि यह विचार कम्युनिस्ट तानाशाही को जन्म देगा। रोजा लोकतांत्रिक समाजवाद की पैरोकार थीं।
रोजा जर्मनी वापस लौटना चाहती थी लेकिन नागरिकता के नियमों के चलते वह इसमें बाधा का सामना कर रही थीं। 1898 में उन्होंने जर्मन नागरिक गुस्ताव लुबेक के साथ शादी की और जर्मन नागरिकता हासिल की। वह बर्लिन में बस गई। वह पत्रकार के रूप में काम कर रही थीं। वहां उन्होंने जर्मनी की ‘सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी’ के साथ काम किया। जल्द ही पार्टी में विवाद हुआ और पार्टी दो हिस्सों में बंट गई।
साल 1898 में जर्मन संशोधनवादी एडुआर्ड बर्नस्टीन ने तर्क दिया कि मार्क्सवादी थ्योरी पुरानी हो गई है। रोजा उनके विचारों से असहमत थी। वह मार्क्सवादी और क्रांति की आवश्यकता के पक्ष में बहस करते हुए विपक्ष के तर्क को संसद का एक पूंजीवादी दिखावा बताती थीं। वह एक कुशल वक्ता के तौर पर भी सभाओं को संबोधित किया करती थीं। 1905 की रूसी क्रांति लक्जमबर्ग के जीवन का मुख्य केंद्र बनीं। क्रांति का विस्तार रूस में हो गया था। वह वारसा गई और संघर्ष में शामिल हो गईं जहां उन्हें कैद कर लिया गया। इन अनुभवों से उनकी ‘रेवूल्शनरी मास एक्शन थ्योरी’ उभरी जिसे उन्होंने 1906 में ‘द मास स्ट्राइक, द पॉलिटिकल पार्टी एंड द ट्रेड यूनियन’ में जगह दी।
रोजा लक्जमबर्ग हड़ताल की पैरोकार थी। वह इसे मजदूर वर्ग का सबसे बड़ा हथियार बताती थीं। वह सामूहिक हड़ताल को क्रांति आगे बढ़ाने का मार्ग बताया करती थीं। वह लेनिन के विपरीत सख्त केंद्रीय पार्टी संरचना में विश्वास नहीं रखती थीं। वह मानती थी कि संगठन वास्तव में संघर्ष से स्वाभाविक रूप से उभरता है। इस वजह से रूढ़िवादी कम्युनिस्ट पार्टियां उन्हें बार-बार सजा देती रहती थीं।
वारसा जेल से रिहा होने के बाद 1907 से 1914 तक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी स्कूल, बर्लिन में पढ़ाया। वहां उन्होंने 1913 में ‘द एक्युमूलेशन ऑफ कैपिटल’ लिखा। इसी समय उन्होंने आंदोलन करना भी शुरू कर दिया था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने जर्मन सरकार का साथ दिया। वह तुरंत ही इसके विरोध में चली गई थी। वह युद्ध के पूरी तरह खिलाफ थी।
उन्होंने कार्ल लीब्नेख्त और अन्य समान विचारधारा वाले लोगों के साथ स्पार्टाकस लीग का गठन किया जो क्रांति के माध्यम से युद्ध को खत्म करने और सर्वहारा सरकार स्थापित करने के समर्थन में था। इस संगठन का आधार सैद्धांतिक रूप से रोजा के द्वारा लिखे 1916 का ‘द क्राइसिस इन जर्मन सोशल डेमोक्रेसी’ पत्र पर था। राजनीतिक गतिविधियों के कारण उन्हें बार-बार जेल में डाला जा रहा था। 1918 में जर्मन क्रांति के दौरान लक्जमबर्ग और लीब्नेख्त ने लेफ्ट के द्वारा लगाए नए आदेशों के विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया। उनके प्रयासों ने जनता पर काफी प्रभाव डाला और बर्लिन में कई सशस्त्र विरोध शुरू हो गए। इसके परिणाम यह निकला कि लक्जमबर्ग को ‘खूनी रोजा’ कहकर अपमानित किया गया। लक्जमबर्ग और लीब्रेख्त ने मजदूरों और सैनिकों के लिए राजनीतिक सत्ता की मांग की।
दिसंबर 1918 में उन्होंने जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। लक्जमबर्ग इस नये संगठन में बोल्शेविक का प्रभाव कम रखना चाहती थीं। लेनिन के लोकतांत्रिक केंद्रीयवाद के विपरीत लक्जमबर्ग हमेशा लोकतंत्र में विश्वास रखती थीं।
रोजा लक्जमबर्ग अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन का एक प्रमुख चेहरा थीं। उन्होंने अपना पूरा जीवन क्रांति और न्याय में लगा दिया। सामाजिक न्याय की लड़ाई में रोजा लक्जमबर्ग के कदम को कभी भी नकारा नहीं जा सकता है। अपने राजनीतिक विचारों के कारण रोजा लक्जमबर्ग ने हमेशा विरोध का सामना किया लेकिन वह लोकतंत्र और समानता के लिए अंतिम समय तक संघर्ष करती रहीं।
रोजा लक्जमबर्ग एक ऐसे जंगजू की काव्यात्मक कृति हैं जिन्होंने अपनी आस्थाओं के लिए अपनी जान दे दी। इतना ही अहम यह है कि वे एक ऐसी स्त्री का पोर्ट्रेट हैं जो अपनी समूची वयस्क जिंदगी में जितना ज्यादा प्रेम को तलाशती रही उतना ही सामाजिक न्याय को भी। एक अदद घर, एक पति, एक बच्चे की तो उन्हें चाहत हमेशा से रही लेकिन वे साथ ही एक ऐसी बेहतर दुनिया चाहती थीं जहां उनका बच्चा उन्हीं की तरह एक प्यारे और जिम्मेदार वयस्क के रूप में बड़ा हो सके।
(यह आलेख सोशल मीडिया पर प्रसारित कई आलेखों का संयुक्त संपादित अंश है। हो सकता है आप में से कई इसमें व्यक्ति विचारों से सहमत नहीं हों लेकिन यहां व्यक्त कई तथ्य, वर्तमान समय व परिवेश के अनुसार आपके लिए जरूरी है। इसलिए इसे प्रकाशित कर रहा हूं।)