वामपंथ/ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दलित प्रेम की हक़ीक़त

वामपंथ/ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दलित प्रेम की हक़ीक़त

इस साल दशहरे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने जातिगत भेदों, विभाजनों को दूर करके देश (देश का अर्थ केवल इजारेदार पूँजीपतियों द्वारा शासित देश) की रक्षा के लिए एकजुट होने का आह्वान किया। बांग्लादेश में पिछले दिनों हुई घटनाओं का सिर्फ़ नकारात्मक पहलू पेश करते हुए उसने कहा कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार हो रहे हैं। उसने कहा कि यही कुछ हिंदुओं के साथ भारत में भी हो सकता है। विदेशी ताक़तें (इशारा मुसलमानों की ओर) भारत को विकसित नहीं होने देना चाहतीं और इनका सामना हिंदू समाज को मिलकर करना पड़ेगा। उसने कहा कि आर.एस.एस. दलितों तक अपनी पहुँच बढ़ाकर उन्हें इस ‘पवित्र’ काम के लिए जागरूक करेगी।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि मोहन भागवत ने अपने भाषण में हिंदुओं के ख़तरे में होने का पुराना सांप्रदायिक पत्ता खेलकर दलितों को गुमराह करने की कोशिश की है। दलितों के प्रति जताई गई हमदर्दी कई सत्ता पक्षधर बुद्धिजीवियों को अच्छी लग रही है, लेकिन इस बयान का अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि आर.एस.एस. ने दलितों के प्रति अपनी विचारधारा बदल दी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास से परिचित हर समझदार व्यक्ति जानता है कि आर.एस.एस. शुरू से ही दलित विरोधी होने के साथ-साथ, घोर औरत विरोधी, धार्मिक अल्पसंख्यक विरोधी, कम्युनिस्ट और जनवादी शक्तियों का विरोधी है।

दलितों के बारे में यह धार्मिक कट्टरपंथी संगठन क्या सोच रखता है, इसकी चर्चा आगे चलकर करेंगे, फ़िलहाल भागवत के बयान की बात करते हैं। मोहन भागवत के बयान के तात्कालिक कारणों में से एक महाराष्ट्र में आगामी चुनाव में भाजपा के वोट बैंक को बढ़ाना और मज़बूत करना तो था ही, साथ ही इसके आर.एस.एस. दलितों के बीच अपने पैर पसारना और अपना दायरा बढ़ाना चाहती है। भारत की कुल आबादी में दलितों की संख्या लगभग एक-चौथाई होने के कारण आर.एस.एस. के लिए दलितों को गुमराह करना ज़रूरी हो जाता है। इतनी बड़ी संख्या को आर.एस.एस. धार्मिक पहचान के तहत इकट्ठा करके धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के ख़ि‍लाफ़ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है। दलित आबादी को उनके चंगुल से बाहर रखकर आर.एस.एस. के लिए पूरे समाज पर अपना क़ब्ज़ा जमाना बहुत मुश्किल है। इसलिए आर.एस.एस. का दलित प्रेम एक ढोंग है। राजनीतिक हिसाब-किताब के चलते भागवत ऐसे बयान देता रहता है।

सदियों से भारतीय समाज का दलित वर्ग अमानवीय उत्पीड़न का शिकार होता रहा है। भारत में जातिवादी हिंसा, दमन-अत्याचार की घटनाएँ आज भी होती हैं और दलित विरोधी मानसिकता/जातिगत भेदभाव समाज की सच्चाई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक पार्टी भाजपा के सत्ता में आने के बाद दलितों के ख़ि‍लाफ़ अपराध बढ़े हैं। उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार है। यहाँ श्रावस्ती ज़िले में 23 जुलाई 2024 को 15 वर्षीय दलित लड़के को ज़बरदस्ती पेशाब पिलाया गया। 2020 में हाथरस में चार तथाकथित उच्च जाति के पुरुषों द्वारा दलित लड़की के बलात्कार और हत्या को कोई नहीं भूला है, जब पुलिस प्रशासन ने बिना पोस्टमार्टम किए लड़की का अंतिम संस्कार कर दिया था और दोषियों के ख़ि‍लाफ़ कार्रवाई करने के बजाय घटना की कवरेज़ करने गए मुस्लिम पत्रकार सिद्दीक कप्पन को ही झूठे आरोपों के तहत गिरफ़्तार कर लिया था। कर्नाटका के दक्षिण कन्नड़ ज़िले में 67 वर्षीय दलित के साथ मारपीट की गई, क्योंकि भारी बारिश के कारण बुजुर्ग व्यक्ति ने किसी तथाकथित उच्च जाति के दुकानदार से रुकने के लिए जगह माँगने की ‘ग़लती’ की थी। 30 अगस्त 2024 को बिहार के गया में 15 साल की दलित लड़की के साथ दो पुरुषों ने बलात्कार किया, लेकिन पुलिस ने मामला दर्ज करवाने गए परिवार को डराया-धमकाया। ‘2021 में अपराध’ शीर्षक वाली रिपोर्ट के अनुसार दलितों के साथ होने वाले अपराधों में 1.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और सबसे अधिक दलित विरोधी अपराध भाजपा शासित राज्यों दृ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में दर्ज किए गए। 2021 के अंत तक दलित विरोधी अपराधों के 96 प्रतिशत मामले अदालत की सुनवाई के बग़ैर लंबित पड़े थे। ये आँकड़े आर.एस.एस. और इसकी राजनीतिक शाखा भाजपा के शासन में दलितों के सामाजिक जीवन की सच्चाई को उजागर करते हैं।

ऐतिहासिक रूप से भी, जिस समय स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी दलितों को सच्चा जनसेवक बताते हैं और उन्हें अपने अधिकारों के लिए खड़े होने और लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं, वहीं आर.एस.एस. प्रमुख गोलवलकर अपनी पुस्तक ‘विचार नवनीत’ में (पृ. 37-38) लिख रहा थे, “हिंदू समाज ही वह विराट मर्द है, सर्वशक्तिमान की स्वयं की अभिव्यक्ति है। यद्यपि वे हिंदू शब्द का उपयोग नहीं करते लेकिन ‘पुरुषसूक्त’ में सर्वशक्तिमान की निम्नलिखित टिप्पणी से यह स्पष्ट है। उसमें कहा गया है कि सूर्य और चंद्रमा उसकी आँखें हैं। नक्षत्र और आकाश उसकी नाभी से बने हैं। ब्राह्मण उसका मुख, क्षत्रिए भुजाएँ, वैश्य उसकी जंघाएँ और शूद्र पैर हैं। इसका अर्थ है कि समाज जिसमें यह चतुर्विध व्यवस्था है, यानी हिंदू-समाज हमारा भगवान है।”

आर.एस.एस. की साप्ताहिक पत्रिका ऑर्गनाइज़र के अनुसार, एम.एस. गोलवलकर ने 2 जनवरी 1961 को अपने एक भाषण में कहा था, “आज हम अपनी अज्ञानता के कारण जाति व्यवस्था को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे समाज में कुछ लोग बुद्धिजीवी होते हैं, कुछ लोग उत्पादन में माहिर होते हैं, कुछ लोग दौलत कमाने और कुछ लोग मेहनत करने की क्षमता रखते है। हमारे पूर्वजों ने मोटे तौर पर ये चार विभाजन किए। जाति व्यवस्था और कुछ नहीं बल्कि इन चारों के बीच संतुलन स्थापित करना है। इसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति समाज की सेवा अपनी बेहतरीन क्षमता के अनुसार कर सकता है, जो उसने वंशागत (जातिगत) रूप में विकसित की है। अगर यह व्यवस्था जारी रहती है, तो हर व्यक्ति गुज़ारे के लिए अपने जन्म से ही काम करने के लिए सुरक्षित रहेगा।”

यह गोलवलकर और आर.एस.एस. की जाति व्यवस्था की घटिया समझ है, जिसकी अपने भाषणों में वह पूरी बेशर्मी से महिमा गाता है, और क्रूर और घटिया जाति व्यवस्था को अच्छा साबित करने की कोशिश कर रहा है। गोलवलकर एक ऐसे समाज का समर्थन करता है़ जिसमें शूद्रों (आज के दलित और अन्य पिछड़ी जातियों) को हिंदू समाज के पैर बनने यानी निचले पायदान पर रहने के लिए अभिशप्त किया जाता है। उनके लिए समानता के कोई मायने नहीं। समाज में समानता की बजाय वर्णों की उसी पुरानी व्यवस्था (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के पक्ष में गोलवलकर खड़ा है।

गोलवलकर की तरह ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक अन्य गुरु वीर सावरकर भी ‘मनुस्मृति’ के प्रति बहुत सम्मान रखता है। वह कहता है, ‘मनुस्मृति’ वह पवित्र ग्रंथ है, जो वेदों के बाद हमारे हिंदू राष्ट्र में सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से ही हमारी संस्कृति, रीति-रिवाजों, हमारे विचारों और कर्मों का आधार बन गई है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र के आध्यात्मिक और दिव्य मार्ग के लिए पथ प्रशस्त किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और रस्मों में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे ‘मनुस्मृति’ पर ही आधारित हैं। आज ‘मनुस्मृति’ ही हिंदू क़ानून है। यह मूल बात है। (‘सावरकर समग्र’, खंड 4, पृष्ठ 461, प्रभात, नई दिल्ली)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मनुस्मृति को आदर्श क़ानून व्यवस्था मानता है। यह वही मनुस्मृति है जिसमें दलितों के बारे में ऐसी बातें दर्ज हैं, “भगवान ने शूद्रों का एकमात्र कार्य बताया है, ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की भक्तिपूर्ण सेवा करना” (1/91);
“कोई शूद्र ऊँचे को कठोर शब्दों से अपमानित करे, तो उसकी जीभ काट दी जाए, क्योंकि शूद्र पैर से पैदा हुआ है” (8/270);
“यदि नाम और जाति को लेकर बदतमीजी से शूद्र जातियों को गाली दे, तो उस शूद्र के मुँह में आग में भुनी हुई दस उँगली लंबी कील डाल दो” (8/271);
“शूद्र गर्व से उच्च जातियों को धर्म का उपदेश दे, तो राजा उसके मुँह और कान में खौलता तेल डाल दे।” (8/272);
“शूद्र उच्च जाति को अपने जिस अंग से मारे उस अंग को (राजा) कटवा दे, यह मनु की आज्ञा है।” (8/279);
“निचली जाति वाला उच्च जाति वाले के साथ गर्व के साथ बैठना चाहे, तो उसकी पीठ पर एक दाग देकर उसे देश में से बाहर निकाल दो” (8/281)।

आर.एस.एस. की पूरी संरचना ऐसी है कि आर.एस.एस. के उच्च पदों तक केवल स्वर्ण या ब्राह्मण ही पहुँच सकते हैं। कोई दलित व्यक्ति आर.एस.एस. का सदस्य तो बन सकता है, लेकिन कभी भी उसके उच्च पद तक नहीं पहुँच सकता। दलित विरोधी मानसिकता इस गिरोह के पोर-पोर में समाई हुई है। अपने दोनों गुरुओं की इस घटिया सोच को आर.एस.एस. ने कभी भी नहीं नकारा है, बल्कि मौक़े मुताबिक़ समाज के विभिन्न तबक़ों से लाभ उठाने के लिए भ्रामक बयान देते रहते हैं। क्या भारत में दलितों के ख़ि‍लाफ़ होने वाले अपराधों, आर.एस.एस. की संरचना और आर.एस.एस. के प्रमुखों की सोच जानकर साफ़ नहीं हो जाता कि वास्तव में यह पूरा संघ परिवार अंदर से दलितों के लिए कैसी सोच रखता है, वैसे कहने को भलें कुछ भी कहते रहें! इन घटिया बातों को जायज मानने वाले लोग दलितों के हमदर्द कैसे हो सकते हैं! जातिगत विभाजन को जहाँ शहीद भगतसिंह समाज के लिए शर्म की बात कहते हैं, संघी गोलवलकर और सावरकर उसी बात पर गर्व करते हैं।

भारत की दलित आबादी का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी करता है और बहुत ख़राब जीवन स्थितियों में जी रहा है। सीवरेज़ों में बिना किसी सुरक्षा के उतरकर साफ़-सफ़ाई का काम करना हो या धरती की छाती फाड़कर प्राकृतिक संसाधनों को निकालना हो, सब काम मज़दूर अपनी जान दाँव पर लगाकर करते हैं, लेकिन बाक़ी मेहनतकश आबादी की तरह दलित मज़दूर भी कड़ी मेहनत के बावजूद ग़रीबी, बेघरी, महँगाई आदि से त्रस्त है। मोदी के सत्ता में आने के बाद मज़दूरों का जीवन बद से बदतर हो गया है और मज़दूर आबादी बदहाली भरी ज़िंदगी जीने को मजबूर है। आर.एस.एस. इन समस्याओं पर पर्दा डालने का काम करती है और कभी नहीं बताती कि इस मज़दूर आबादी के हिस्से की शिक्षा, स्थायी रोज़गार आदि को उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा ही निजीकरण की नीतियों के ज़रिए ख़त्म कर रही है और देश की सारी संपत्ति अदाणी-अंबानी जैसे पूँजीपतियों को लुटा रही है। दलित मेहनतकशों समेत भारत के सारे मज़दूर वर्ग की लड़ाई इन पूँजीपतियों के ख़ि‍लाफ़ है, लेकिन आर.एस.एस. सभी समस्याओं का कारण विदेशियों (मुसलमानों) को ठहराकर एक ऐसा तथाकथित हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है, जहाँ मेहनतकश आबादी के लिए बदहाली के अलावा कुछ नहीं है। धार्मिक पहचान के तहत एकजुट करने के प्रयासों के ज़रिए दलित आबादी को इस घृणित कृत्य में भागीदार बनाना चाहती है।

इसलिए आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत की भ्रामक बातों में आने के बजाय जाति-धर्म की लामबंदी को नकारते हुए वर्ग एकता बनाने की ज़रूरत है। सभी धर्मों के मज़दूरों, मेहनतकशों को समझना चाहिए कि उनके दुश्मन पूँजीपति हैं (भलें वे किसी भी धर्म-जाति के हों) और उनके दलाल पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियाँ हैं, जिनके ख़ि‍लाफ़ लड़ाई लड़ी जानी चाहिए।

(आलेख के लेखक साम्यवादी विचारधारा से संबद्ध हैं। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)

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