गौतम चौधरी
वर्ण और जाति, पारंपरिक भारतीय समाज की नींव है। इसे यदि सांस्कृतिक नींव भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लंबे इतिहास और वर्षों में कई बदलावों के बावजूद, जाति अभी भी हमारी राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों में एक व्यापक रूप से स्वीकृत संस्था है। हमारे यहां यह कहावत प्रचलित है कि आप चाहे धर्म और पंथ कितना भी बदल लें लेकिन आपकी जाति नहीं बदलती है। यही नहीं जाति का स्टेटश भी लंबे समय तक व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। जब भारत में इस्लाम का आगमन हुआ तो ऐसा लगा कि भारतीय समाज में एक नयी क्रांति आ गयी है। इससे पहले भी जाति को समाप्त करने के कई प्रयास किए गए। बौद्ध धर्म में भी जाति की अवधारणा नहीं है। न ही जैन चिंतन में इस प्रकार की कोई सामाजिक व्यवस्था है लेकिन इन दो बड़े आन्दोलनों ने दुनिया को प्रभावित किया पर भारतीय समाज पर जाति और वर्ण लगातार हावी रहा। यही नहीं इस व्यवस्था ने भारतीय समाज को टूटने और बिखड़ने से कई बार बचाया भी है।
जब अरब में इस्लामिक क्रांति हुई तो इससे पूरी दुनिया प्रभावित हुई। दरअसल, इस्लामिक क्रांति कुछ और नहीं समानता व स्वावलंबन को आगे बढ़ाया। इसके कारण यह दुनियाभर में बड़ी तेजी से फैला। भारतीय उपमहाद्वीप भी इससे अछूता नहीं रहा। उत्तर भारत में इस्लमिक आक्रमण हुए और दक्षिण भारत में तिजारती मुसलमानों ने इस्लाम को अपने साथ लाया। नए चिंतन से भारतीय जनमन प्रभावित हुआ और यह धार्मिक चिंतन उपमहाद्वीप में बड़ी तेजी से फैला लेकिन यह चिंतन भारतीय समाज की विशेषता से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। इस्लाम में एकरूपता का चिंतन है लेकिन मुस्लिम समुदाय एकरूपता से कोसों दूर रहा और आज भी है। इसके भीतर पसमांदा के नाम से जाना जाने वाला एक महत्वपूर्ण वर्ग मौजूद है, जो सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना करता रहा है। पसमांदा मुद्दे और आज के भारत में इसकी प्रासंगिकता को समझना वास्तविक सामाजिक-धार्मिक समानता प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।
भारत में मुसलमान एक हजार वर्षों से अधिक समय से उपमहाद्वीप के इतिहास का हिस्सा हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि भारत में अधिकांश मुसलमान पहले से मौजूद समुदायों से धर्मांतरित हुए हैं। शेष मुस्लिम समूह, जिनकी उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई है, सदियों पहले यहां पहुंचे और अब उपमहाद्वीप के समाज में समाहित हो चुके हैं। उनकी अब अपनी कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं बची है। यद्यपि इस्लाम में परिवर्तित होने से व्यक्ति को एक नए धार्मिक समुदाय और विश्वास प्रणाली तक पहुंच मिलती है, लेकिन यह किसी की जाति को बदलने में असमर्थ है। रूपांतरण किसी व्यक्ति के व्यवसाय, उनकी संपत्ति या उसकी कमी, उनके पड़ोसियों की उनके बारे में धारणा या उनके सामाजिक पदानुक्रम को नहीं बदल सकता है। जो लोग इस्लाम में परिवर्तित हो जाते हैं उन्हें एक नया धार्मिक ग्रंथ प्राप्त होता है और वे उस ईश्वर में बदलाव देखते हैं जिसकी वे पहले पूजा करते थे। लोगों को इसमें नैतिक आराम मिल सकता है। हालाँकि, जिस तरह आपका धर्म या ग्रंथ बदलने से आपकी त्वचा का रंग नहीं बदलेगा, उसी तरह यह किसी व्यक्ति के जाति-आधारित व्यवसाय, कौशल, विरासत, अंतरसंबंध या स्वास्थ्य को भी नहीं बदल सकता है।
पसमांदा के खिलाफ सबसे घातक रणनीति में से एक पसमांदा संघर्ष का सांप्रदायिकरण है। सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर, पसमांदा मुसलमानों द्वारा सामना किए जाने वाले जाति-आधारित भेदभाव और सामाजिक-आर्थिक अभाव के वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटा दिया जाता है। यह न केवल हाशिये पर पड़े समुदाय की वास्तविक शिकायतों को कमज़ोर करता है, बल्कि मुस्लिम समुदाय के भीतर भी विभाजन को बढ़ावा देता है। सच्चर समिति रिपोर्ट (2006) और रंगनाथ मिश्रा आयोग रिपोर्ट (2007) सहित अध्ययनों और रिपोर्टों ने पसमांदा मुसलमानों द्वारा सामना की जाने वाली सामाजिक-आर्थिक असमानताओं पर प्रकाश डाला है। इन रिपोर्टों से पता चलता है कि पसमांदा समुदाय उच्च जाति के मुसलमानों (अशराफ) और हिंदुओं के बीच दलित और ओबीसी जैसे अन्य हाशिये पर रहने वाले समुदायों की तुलना में शिक्षा, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच में पीछे है। इन निष्कर्षों के बावजूद, उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को संबोधित करने वाली लक्षित नीतियों का अभाव रहा है।
मुसलमानों में बहुसंख्यक होने के बावजूद, पसमांदाओं को ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रतिनिधित्व का अभाव रहा है। एक मजबूत आवाज की अनुपस्थिति ने उनकी विशिष्ट जरूरतों को पूरा करने और संसाधनों में उनका उचित हिस्सा सुरक्षित करने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न की है। इसके अतिरिक्त, पसमांदा कथा अक्सर व्यापक मुस्लिम पहचान में समाहित हो जाती है, जिससे उनके विशिष्ट अनुभव और आकांक्षाएं अस्पष्ट रह जाती हैं। पसमांदाओं को हाशिए पर धकेलने का भारत के सामाजिक ताने-बाने और लोकतांत्रिक आदर्शों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। भारत में वास्तविक सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए उनका उत्थान आवश्यक है। मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा वर्ग गरीबी और बहिष्कार में फंसा हुआ है, जिससे देश की समग्र प्रगति में बाधा आ रही है। अध्ययनों ने सामाजिक-आर्थिक अभाव और कट्टरपंथ के बीच संबंध दिखाया है।
यहां एक बात और बता दें कि पसमांदाओं को सशक्त बनाने से शिकायतों का फायदा उठाने वाले चरमपंथी आख्यानों का मुकाबला करने में मदद मिल सकती है। अधिक समावेशी मुस्लिम समुदाय भारत की धर्मनिरपेक्ष पहचान को मजबूत करता है। जब एक महत्वपूर्ण वर्ग अपने धर्म के भीतर अपनी जाति पृष्ठभूमि के आधार पर हाशिए पर महसूस करता है, तो यह सभी के लिए समान व्यवहार के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत को कमजोर करता है।
पसमांदा मुद्दा सिर्फ एक विशिष्ट समुदाय के उत्थान के बारे में नहीं है; यह भारत के विविध समाज की वास्तविक क्षमता को साकार करने का एक सशक्त माध्यम है। इस हाशिए पर मौजूद वर्ग को सशक्त बनाकर, भारत एक अधिक समावेशी और न्यायसंगत राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। आगे बढ़ने के लिए सरकार, नागरिक समाज संगठनों और स्वयं मुस्लिम समुदाय के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। पसमांदा मुद्दे को पहचानना और इसके समाधान की दिशा में काम करना न केवल एक नैतिक अनिवार्यता है, बल्कि एक मजबूत और समृद्ध भारत के निर्माण की दिशा में किया जाने वाला राष्ट्रधर्म है।
बहुत ही सार्थक लेख