गौतम चौधरी
मुझे लगता है, दुनिया का ऐसा कोई धार्मिक चिंतन ऐसा नहीं है जिसमें बेवजह हिंसा को प्रोत्साहित किया गया हो। धर्म मानवता को बचाने के लिए खड़ी की गयी एक व्यवस्था का नाम है। भारतीय चिंतन में तो साफ कहा गया है, धर्म एक हद है यानी सामाजिक व आध्यात्मिक मर्यादा या अनुशासन है। आज के प्रचलित हर धर्म के आधिकारिक ग्रंथों में मानवता को बचाने और कमजोरों की सहायता करने की बात कही गयी है। लेकिन कुछ लोग उसी धर्म को अपना हथियार बनाकर मानवीय मूल्यों की हत्या करते रहे हैं। यहां मैं इस्लाम के उस तारीखी जंग की बात करेंगे, जिसमें नबी-ए-पाक सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मोहम्मद पैगंबर के नवासे को 72 साथियों के साथ कत्ल किया गया। उस समय भी धर्म का ही सहारा लिया गया था। हालांकि वह किसी कीमत पर जायज नहीं था लेकिन उसे उस युग में जायज ठहराने की पूरी कोशिश की गयी। आज भी धर्म की अनर्गल व्याख्या कर नाजायज कत्ल और फितना को सही ठहराने की कोशिश की जा रही। भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में धर्म के नाम पर सरेआम सिर काटने की घटनाएं हो रही है। धर्म खासकर इस्लाम के नाम पर हिंसा को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
अभी हाल ही में मानवता के खिलाफ एक दिल दहला देने वाली घटना देखने को मिली। दरअसल, इस्लाम के नाम पर आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के रियासी में एक पर्यटक बस पर हमला किया। इस बस में जो तीर्थयात्री बैठे थे, वे निहायत शरीफ थे। किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था। अपने अराध्य भगवान शिव को समर्पित मंदिर शिवखोरी से कटरा जा रहे थे। इसमें कम से कम 10 लोगों की मौत हो गई। हमले में घायल हुए 41 लोगों में से 10 को गोली लगी थी। राजस्थान, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के मासूम लोग कटरा में माता वैष्णो देवी मंदिर में पूजा करने के लिए यात्रा कर रहे थे। खुद को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध करने के लिए भक्त अक्सर अपने घरों की सुख-सुविधाएं छोड़कर ऐसी कठिन यात्रा करते हैं। ऐसी पवित्र आत्माओं की हत्या करना मानवता के विरुद्ध कार्य नहीं तो और क्या है? इसे इस्लाम के नाम पर जायज ठहराया जा सकता है क्या? मौजूदा हज सीज़न में, 15 लाख से अधिक मुस्लिम तीर्थयात्रियों ने हज करने के लिए सऊदी अरब की यात्रा करने का कठिन कार्य किया है। कोई भी धर्मनिष्ठ मुसलमान रियासी में मारे गए लोगों के परिवारों के दर्द को समझ सकता है। चाहे उनका धार्मिक संप्रदाय कुछ भी हो, एक तीर्थयात्री के साथ यथासंभव सर्वाेच्च सम्मान के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए क्योंकि वे एक पवित्र यात्रा पर हैं। इस तरह के जघन्य कृत्यों की विशेष रूप से मुसलमानों द्वारा कड़ी निंदा की जानी चाहिए थी, हालांकि कुछ लोगों ने इसी निंदा की भी। निंदा इसलिए भी की जानी चाहिए क्योंकि किसी भी प्रकार की हिंसा इस्लामी शिक्षाओं के खिलाफ है, चाहे दुनिया के किसी भी हिस्से में ऐसे कृत्यों में कोई भी शामिल हो।
‘इस्लाम’ शब्द का अर्थ शांति है। जब भी कोई ऐसा कार्य करता है, जो शांति स्थापित करता है, या बनाए रखता है, जहां लोग सुरक्षित महसूस करते हैं, तो वह वास्तव में इस्लामी शिक्षाओं का पालन कर रहा होता है। अल्लाह ने मुसलमानों को इस सांसारिक जीवन में मार्गदर्शन करने के लिए ईश्वरीय किताब पवित्र कुरान भेजा। कोई स्वयं को मुसलमान तभी कह सकता है, जब कुरान की आज्ञाओं का वह पालन करे। इस्लामिक चिंतकों का कहना है कि अल्लाह को समाज में कानून और व्यवस्था बनाए रखना पसंद है। इस्लाम के धार्मिक ग्रंथों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है ‘और पृथ्वी पर उपद्रव न करो, उसके व्यवस्थित होने के बाद…’ इससे स्पष्ट रूप से पता चलता है कि उपद्रव फैलाने वाले निश्चित रूप से मुसलमानों में से नहीं हो सकते। अल्लाह को विनम्रता, शांति और नम्रता पसंद है, जो हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है। इस्लाम कभी भी निर्दाेष लोगों को चोट पहुंचाने, घायल करने या मारने का समर्थन नहीं करता। पवित्र ग्रंथों में अल्लाह कहते हैं, ‘जो कोई किसी निर्दाेष व्यक्ति को मारता है, उसने मानो सारी मानव जाति को मार डाला है। और जो कोई किसी की जान बचाता है, मानो उसने सारी मानव जाति को बचा लिया है।’
पूरी मानवता की हत्या का बोझ कोई कैसे उठा सकता है? मानवता के खिलाफ ऐसे कृत्य करने के लिए वह कयामत के दिन अल्लाह को क्या जवाब देगा? कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि ऐसे अपराधियों को उनके जीवन में प्रताड़ित किया गया है, इसलिए वे बदले की भावना से यह सब कर रहे हैं। शायद इस्लाम के पवित्र ग्रंथों में साफ शब्दों में उल्लेख किया गया है कि वापस लड़ने की अनुमति उन लोगों को दी जाती है जो लड़ रहे हैं, क्योंकि उनके साथ अन्याय हुआ है। इस प्रकार की व्याख्या निःसंदेह आत्मिक उन्नयन के लिए कही गयी है, साथ ही अपनी रक्षा और कमजोरी की सुरक्षा के लिए कही गयी है न कि निर्दाेषों की हत्या के बारे में उल्लखित है।
इस्लामिक चिंतन और कायदे के अनुसार यदि किसी के साथ अन्याय होता है तो वह केवल ‘गलत करने वालों’ से ही लड़ सकता है। यहां तक कि जब इस्लाम पवित्र युद्ध (आत्मरक्षा के रूप में) की अनुमति देता है, तब भी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मोहम्मद पैगम्बर ने ऐसे युद्धों को अंजाम देने के लिए विशेष रूप से कुछ आचार संहिता का निर्देश दिया है। ‘‘रुको! हे लोगों, मैं तुम्हें युद्ध के मैदान में मार्गदर्शन के लिए दस नियम बताऊंगा। विश्वासघात मत करो या सही रास्ते से मत हटो। तुम्हें शवों को क्षत-विक्षत नहीं करना चाहिए। न तो किसी बच्चे को मारो, न किसी महिला को, न ही बूढ़े आदमी को मारो। पेड़ों को नुकसान न पहुंचाएं, न ही उन्हें आग से जलाएं, खासकर जो फलदार हों। अपने भोजन के अलावा किसी भी दुश्मन के झुंड को न मारें, आप उन लोगों के पास से गुजरेंगे जिन्होंने अपना जीवन मठवासी सेवाओं के लिए समर्पित कर दिया है।’’
जम्मू और कश्मीर में हाल के हमले पैगंबर मुहम्मद द्वारा उद्धृत लगभग सभी नियमों का उल्लंघन है। क्या ऐसे अपराधी मुस्लिम होने का दावा कर सकते हैं? इस्लामी आचार संहिता के अनुसार, किसी भी मामले में तीर्थयात्रियों पर हमला नहीं किया जाना चाहिए। यात्रा में ऐसे तीर्थयात्रियों की मदद करना ही सच्चा इस्लाम है। इस्लाम में मानव जीवन का मूल्य सर्वाेपरि है। यह तथ्य स्वयं पैगंबर मुहम्मद ने प्रमाणित किया है। इंसानों को मारना तो दूर, इस्लाम बेवजह पौधों और जानवरों को मारने वालों से भी नफरत करता है।
विदेशी प्रायोजित आतंकवाद अक्सर धार्मिक शिक्षाओं को गलत तरीके से उद्धृत करते हैं और तोड़-मरोड़कर उसका प्रचार करते हैं। युवाओं को गलत तरीके से धर्म के नाम पर अपने हितों के लिए हथियार की तरह उपयोग करते हैं। हालाँकि, निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले, युवाओं, विशेषकर भारत के मुस्लिम युवाओं को, इस्लाम की सच्ची शिक्षाओं के बारे में इस्लामिक विद्वानों से परामर्श लेना चाहिए। इस्लाम या कोई भी धर्म कभी भी धर्म के नाम पर हिंसा को बढ़ावा नहीं देता। मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि यदि दूसरे धर्म का सम्मान वे नहीं कर सकते, तो वे अपने धर्म का भी सम्मान नहीं कर सकते। जो भी मानवता की सेवा करेगा वह समृद्ध होगा। अल्लाह ने मुसलमानों को केवल एक ही जीवन दिया है। खुद को शांति और सद्भाव के दूत के रूप में प्रस्तुत करते हुए इसे खूबसूरती और शांति से जीना चाहिए। मुसलमान चाहे तो कुछ भी कर सकता है। उदाहरण के लिए दुवई जैसा शबर, सउदी अरब जैसा देश, इंडोनेशिया जैसा लोकतंत्र मुसलमानों ने ही तो बनाया है। भारत को भी अमन की धरती बनाया जा सकता है। हिन्दुस्तान की ठंढ़ी हवा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मोहम्मद पैगम्बर को भी प्रभावित करता था। इसलिए इसे पवित्र और शांति की धरती बनाने की जिम्मेदारी केवल हिन्दू या अन्य जाति पर ही नहीं है, बराबर की हिस्सेदारी मुसलमानों की भी है।