डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
नए बने कानूनों को लेकर आमजन जिनमे कानूनविद व वाहन चालक समेत अनेक प्रभावित लोग शामिल है। गुस्सा सातंवे आसमान पर है। सड़क दुर्घटना को लेकर बनाये गए कानून की सख्ती के विरोध में देशभर के ट्रांसपोर्टरों ने चक्का जाम कर रखा है। इससे आवश्यक सेवाएं प्रभावित हो रही है। इन वाहन चालकों का कहना है कि नए कानून में सड़क दुर्घटना में मृत्यु पर चालक को दस साल की सजा व सात लाख रुपये जुर्माना बेहद कड़ी सजा है। सजा में नरमी पर घायल को अस्पताल पहुंचाने की जो शर्त रखी गई है, उसमें दुर्घटना से उत्तेजित भीड़ वाहन चालक को पीट पीटकर मार सकती है। जैसा कि सामान्यतः होता आया है। वाहन चालकों की सुरक्षा की बात नए कानून में नहीं दी गई है।
इसी प्रकार आपराधिक मामलों में पुलिस रिमांड 15 दिन के बजाए 60 से 90 दिन करना पुलिस की शक्ति को असीमित करना व मानवाधिकार हनन के रास्ते खोलने जैसा है। इन्ही सब मुद्दों को लेकर नए कानूनों को निरस्त करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक जनहित याचिका भी दायर हुई है। आपको बता दे, भारत सरकार ने भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लोकसभा में पेश करके जो कानून पारित कराये है, उनमें कोई खास बदलाव नही है। अलबत्ता, दंड की जगह न्याय नाम दिया गया है। हालांकि न्याय एक विधिक प्रक्रिया का निष्कर्ष है, जिसमे दोष सिद्ध होने पर दंड ही दिए जाने की व्यवस्था इस नए कानून में भी है। ये विधेयक भारत में मौजूदा भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह लेंगे।
ये बिल अगस्त 2023 में पेश किए गया। जिसके बाद इन्हें संसद की स्थायी समिति को भेजा गया था। स्थायी समिति द्वारा संदर्भित परिवर्तनों को शामिल करने के लिए इन विधेयकों को वापस ले लिया गया था। बिल के पुराने संस्करण में मॉब लिंचिंग और नफरती अपराध के लिए न्यूनतम सात साल की सजा का प्रावधान था। जब पांच या अधिक लोगों के एक समूह द्वारा सामूहिक रूप से जाति या समुदाय आदि के आधार पर हत्या करने के मामले में, हमलावर समूह के हर सदस्य को कम से कम सात साल की कैद की सजा दी जाती थी। अब इस अवधि को सात साल से बढ़ाकर आजीवन कारावास कर दिया गया है। आतंकवादी गतिविधियों को पहली बार भारतीय न्याय संहिता के तहत पेश किया गया है, पहले, इनके लिए विशिष्ट कानून बने थे। आर्थिक सुरक्षा को खतरा भी आतंकवादी गतिविधि के अंतर्गत आएगा।
तस्करी या नकली नोटों का उत्पादन करके वित्तीय स्थिरता को नुकसान पहुंचाना भी आतंकवादी अधिनियम के अंतर्गत आएगा। विदेश में संपत्ति को नष्ट करना, जो भारत में रक्षा या किसी सरकारी उद्देश्य के लिए थी, यह भी एक आतंकवादी गतिविधि मानी जायेगी, जबकि देश मे शून्य अपराध संख्या पर कही भी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने की सुविधा पहले से ही है। वही 90 दिन में जांच पूरी करने अर्थात आरोप पत्र न्यायालय में दाखिल करने का नियम भी पहले से ही लागू है। लेकिन नए कानून में अब भारत में सरकारों को कुछ भी करने पर मजबूर करने के लिए किसी व्यक्ति को हिरासत में लेना या अपहरण करना भी एक आतंकवादी गतिविधि माना जाएगा।
मौजूदा आईपीसी मानसिक रूप से बीमार लोगों को अपराध के लिए सजा से छूट देती है। भारतीय न्याय संहिता के पुराने संस्करण में इसे मानसिक बीमारी शब्द से बदलकर अब विक्षिप्त दिमाग शब्द को वापस लाया गया है। जो कोई भी बलात्कार के मामलों में अदालती कार्यवाही के संबंध में अदालत की अनुमति के बिना कुछ भी प्रकाशित करेगा। उसे 2 साल तक की जेल हो सकती है और जुर्माना लगाया जा सकता है। इस व्यवस्था के बाद मीडिया कर्मियों को सावधान रहने की आवश्यकता है। संगठित आपराधिक समूहों द्वारा किए गए वाहनों की चोरी, जेबतराशी जैसे छोटे संगठित अपराध के लिए दंड का प्रावधान किया गया था, अगर इससे नागरिकों में सामान्य तौर पर असुरक्षा की भावना पैदा होती हो,अब असुरक्षा की भावना की यह अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है। नई श्भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिताश् सामुदायिक सेवा को परिभाषित करती है।
सामुदायिक सेवा एक ऐसी सजा होगी जो समुदाय के लिए फायदेमंद होगी और इसके लिए अपराधी को कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाएगा। इन विधेयकों में छोटी-मोटी चोरी, नशे में धुत होकर परेशान करना और कई अन्य अपराधों के लिए सजा के रूप में सामुदायिक सेवा की शुरुआत की गई थी। विदित हो, भारतीय दंड संहिता भारत की आधिकारिक आपराधिक संहिता है। जिसे चार्टर अधिनियम, 1833 के तहत वर्ष 1834 में स्थापित प्रथम विधि आयोग के मद्देनजर वर्ष 1860 में तैयार किया गया था। दंड प्रक्रिया संहिता भारत में आपराधिक कानून के प्रशासन के लिये प्रक्रियाएँ प्रदान करती है। यह वर्ष 1973 में अधिनियमित हुआ और 1 अप्रैल 1974 को प्रभावी हुआ था।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, जो मूल रूप से ब्रिटिश राज के दौरान वर्ष 1872 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल द्वारा भारत में पारित किया गया था, में भारतीय न्यायालयों में साक्ष्य की स्वीकार्यता को नियंत्रित करने वाले नियमों और संबद्ध मुद्दों परिभाषित किए गए हैं। आपराधिक न्याय प्रणाली कानूनों, प्रक्रियाओं और संस्थानों का समूह है जिसका उद्देश्य सभी व्यक्तियों के अधिकारों तथा सुरक्षा को सुनिश्चित करते हुए अपराधों को रोकना, पता लगाना, दोषियों पर मुकदमा चलाना व दंडित करना है। इसमें पुलिस बल, न्यायिक संस्थान, विधायी निकाय और फोरेंसिक एवं जाँच एजेंसियों जैसे अन्य सहायक संगठन शामिल हैं। भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023 में आतंकवाद एवं अलगाववाद, सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह, देश की संप्रभुता को चुनौती देने जैसे अपराधों को परिभाषित करता है, जिनका पूर्व में कानून के विभिन्न प्रावधानों के तहत उल्लेख किया गया था।यह राजद्रोह के अपराध को रोकने पर केंद्रित है, जिसकी औपनिवेशिक विरासत के रूप में व्यापक रूप से आलोचना की गई थी जो स्वतंत्र भाषण और असहमति पर अंकुश लगाता है।
यह मॉब लिंचिंग के लिये अधिकतम सजा के रूप में मृत्युदंड का प्रावधान करता है, जो हाल के वर्षों में एक खतरा रहा है। इसमें विवाह के झूठे वादे पर महिलाओं के साथ यौन संबंध बनाने के लिये 10 वर्ष की कैद का प्रस्ताव है, जो धोखे और शोषण का एक सामान्य रूप है। यह विधेयक विशिष्ट अपराधों के लिये सजा के रूप में सामुदायिक सेवा का परिचय देता है, जो अपराधियों को सुधारने और जेलों में भीड़भाड़ को कम करने में मदद कर सकता है।
इस विधेयक में चार्जशीट दाखिल करने के लिये अधिकतम 180 दिनों की सीमा तय की गई है, जिससे मुकदमे की प्रक्रिया में तेजी आ सकती है और अनिश्चितकालीन देरी को रोका जा सकता है।हालांकि यह व्यवस्था पहले से भी लागू है।
पुलिस को शिकायत की स्थिति के विषय में 90 दिनों में सूचित करना होगा, जिससे जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ सकती है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2023 में परीक्षणों, अपीलों और गवाही की रिकॉर्डिंग के लिये प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देता है, जिससे कार्यवाही के लिये वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग की अनुमति मिलती है।यह विधेयक यौन हिंसा के व्यक्तियों के बयान की वीडियो-रिकॉर्डिंग को अनिवार्य बनाता है, जो सबूतों को संरक्षित करने और बलपूर्वक या हेरफेर को रोकने में मदद कर सकता है।
इस विधेयक में पुलिस सात वर्ष या उससे अधिक की सजा वाले मामले को वापस लेने से पहले पीड़ित से परामर्श करे, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि न्याय से समझौता या उसे अस्वीकार नहीं किया सकता। सीआरपीसी की धारा 41। को धारा 35 के रूप में पुनः क्रमांकित किया गया है। इस परिवर्तन में एक अतिरिक्त सुरक्षा शामिल की गई है, जिसमें कहा गया है कि कम से कम पुलिस उपाधीक्षक रैंक के किसी अधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है, खासकर 3 वर्ष से कम सजा वाले दंडनीय अपराधों के लिये या 60 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों के लिये। यह फरार अपराधियों के संबंध में न्यायलय को उनकी अनुपस्थिति में मुकदमा चलाने और सजा सुनाने की अनुमति देता है, जो भगोड़ों को न्याय से बचने से रोक सकता है।यह मजिस्ट्रेटों को ईमेल, एसएमएस, व्हाट्सएप संदेशों आदि जैसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के आधार पर अपराध का संज्ञान लेने का अधिकार देता है, जिससे साक्ष्य संग्रह और सत्यापन की सुविधा मिल सकती है।
मृत्युदण्ड के मामलों में दया याचिका राज्यपाल के पास 30 दिन के अंतर्गत और राष्ट्रपति के पास 60 दिन के अंतर्गत दाखिल की जानी चाहिये। भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 में इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को किसी भी उपकरण या सिस्टम द्वारा उत्पन्न या प्रसारित किसी भी जानकारी के रूप में परिभाषित करता है जो किसी भी माध्यम से संग्रहित या पुनर्प्राप्त करने में सक्षम है।यह इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता जैसे प्रमाणिकता, अखंडता, विश्वसनीयता आदि के लिये विशिष्ट मानदंड निर्धारित करता है, जो डिजिटल डेटा के दुरुपयोग या छेड़छाड़ को रोक सकता है।यह डीएनए साक्ष्य जैसे सहमति, हिरासत की श्रृंखला आदि की स्वीकार्यता के लिये विशेष प्रावधान प्रदान करता है, जो जैविक साक्ष्य की सटीकता और विश्वसनीयता को बढ़ा सकता है।यह विशेषज्ञ मेडिकल राय, लिखावट विश्लेषण आदि जैसे साक्ष्य के रूप में मान्यता देता है, जो किसी मामले से संबंधित तथ्यों या परिस्थितियों को स्थापित करने में सहायता कर सकता है।यह आपराधिक न्याय प्रणाली के मूल सिद्धांत के रूप में निर्दोष होने की धारणा का परिचय देता है, जिसका अर्थ है कि अपराध के आरोपी प्रत्येक व्यक्ति को उचित संदेह से परे दोषी साबित होने तक निर्दोष माना जाता है।वर्तमान में भारतीय न्यायालयों में विभिन्न स्तरों पर 4.7 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। जिस कारण समयबद्ध न्याय देने में देरी हो रही है, इससे त्वरित सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन हो रहा है और इस व्यवस्था में लोगों का न्याय व्यवस्था से विश्वास कम हो रहा है। आपराधिक न्याय प्रणाली अपर्याप्त धन, जनशक्ति और सुविधाओं से ग्रस्त है।न्यायाधीशों, अभियोजकों, पुलिस कर्मियों, फोरेंसिक विशेषज्ञों और कानूनी सहायता वकीलों की कमी है।
135 मिलियन लोगों के देश में, प्रति दस लाख जनसंख्या पर केवल 21 न्यायाधीश हैं।देश के उच्च न्यायालयों में लगभग 400 रिक्तियाँ जजों की हैं। वहीं निचली न्यायपालिका में करीब 35 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं।
जाँच और अभियोजन अक्सर संपूर्ण, निष्पक्ष और पेशेवर जाँच करने में विफल रहता हैं। उन्हें राजनीतिक और अन्य प्रभावों के हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और जवाबदेही की कमी का सामना करना पड़ता है। आपराधिक न्याय प्रणाली पर अधिकतर आरोपियों, पीड़ितों, गवाहों और अन्य हितधारकों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया जाता है। हिरासत में यातना, न्यायेत्तर हत्याएँ, झूठी गिरफ्तारियाँ अवैध हिरासत, जबरन बयान, अनुचित परीक्षण और कठोर दंड इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। आपराधिक न्याय प्रणाली उन कानूनों और प्रक्रियाओं पर आधारित है जो 1860 में अंग्रेजों द्वारा बनाए गए थे। ये कानून पुराने हैं और समकालीन समय के अनुरूप नहीं हैं। इसीलिए इनमें बदलाव की आवश्यकता थी। भारत में पुलिस-जनता के संबंध असंतोषजनक हैं क्योंकि लोग पुलिस को भ्रष्ट, अक्षम और अनुत्तरदायी मानते हैं और अक्सर उनसे संपर्क करने में संकोच करते हैं।जिससे दोनो के बीच अविश्वास उतपन्न होता है,पुलिस को अपने व्यवहार में व आमजन को पुलिस के प्रति सदभाव का परिवर्तन करना होगा।साथ ही जहाँ कानून की जटिलता है, उन्हें व्यवहारिक रूप में सरल व सबके लिए स्वीकार्य बनाना होगा।
(लेखक उत्तराखंड राज्य उपभोक्ता आयोग के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे जनलेख प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)