अब स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की साख पर सवाल

अब स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की साख पर सवाल

मौके बेमौके दुनिया को मानवाधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता और समानता का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका की स्थिति श्औरों को नसीहत खुद मीयां फजीहतश् वाली बनी हुई है। कारण है कि वहां पर दूसरे देशों से आए नागरिकों पर नस्लीय हमले बढ़ते जा रहे हैं और इसकी बहुत बड़ी संख्या में शिकार भारतीय बन रहे हैं। अपनी मेधा-परिश्रम के बूते अमेरिका में विशिष्ट जगह बनाते भारतीय युवा उन नस्लीय अमेरिकी युवाओं की आंख की किरकिरी बने हुए हैं जिन्हें लगता है कि भारतीय उनकी जगह ले रहे हैं। दरअसल, इस सोच को दक्षिणपन्थी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने हवा दी। इसी साल फरवरी के पहले सप्ताह शिकागो में एक भारतीय युवा को अज्ञात हमलावरों ने निशाना बनाया। इससे पहले एमबीए की डिग्री लेने करने वाले विवेक सैनी की लिथोनिया में पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इण्डियाना में समीर कामत कुछ दिन पहले मृत पाए गए। एक अन्य छात्र नील आचार्य लापता हुए, बाद में उनकी मृत्यु हो गई। वहीं एक युवा अकुल धवन, जो इलिनोइस विश्वविद्यालय का छात्र था, जनवरी में मृत पाया गया। इसी तरह श्रेयस रेड्डी की मौत की खबर भी कुछ सप्ताह पूर्व आई। निश्चय ही ये घटनाएं अमेरिका जैसे उस देश के लिए शर्मनाक हैं जो अपने आप को दुनिया का आदर्श लोकतांत्रिक देश होने का दावा करता है। ये घटनाएं स्टैच्यू आफ लिबर्टी की साख पर भी सवाल उठाने का काम कर रही हैं।

भोगवादी संस्कृति में पले अमेरिकी युवाओं को परिश्रमी व मेधावी भारतीयों की सफलता हजम नहीं हो रही। आज एक प्रतिशत भारतीय अमेरिकी अर्थव्यवस्था में प्रतिशत आयकर दे रहे हैं। दरअसल, अमेरिका में बेरोजगारी काफी है और स्थानीय छात्र भारतीयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे और वे स्पर्धा की बजाय हिंसाचार से खुन्नस निकालने का प्रयास करते हैं। वे स्वयं को यहां का मूलनिवासी बता कर अपनी दुर्दशा के लिए मेधावी भारतीयों को जिम्मेवार मानते हैं। रोजगार के अवसरों की कमी के चलते उत्पन्न असन्तोष के कारण बड़ी संख्या में अमेरिकी नशे और अपराध की दुनिया में उतर रहे हैं। यह दुखद ही है कि पिछले एक साल में अमेरिका में रह रहे पांच सौ बीस भारतीय मूल के लोगों के साथ नस्लीय हिंसा की घटनाएं हुई हैं जो विगत साल के मुकाबले में चालीस प्रतिशत अधिक हैं। हिंसा की चपेट में केवल छात्र ही नहीं बल्कि वहां नौकरी कर रहे और वहां बस चुके लोग भी शामिल हैं।

अतीत में जाएं तो पता चलेगा कि भारतीयों का अमेरिकी प्रवास काफी पुराना है। साल 1900 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में दो हजार से अधिक भारतीय थे, मुख्यतरू कैलिफोर्निया में। आज, भारतीय अमेरिकी संयुक्त राज्य अमेरिका में दूसरा सबसे बड़ा अप्रवासी समूह हैं। जनगणना ब्यूरो द्वारा संचालित 2018 अमेरिकी सामुदायिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार संयुक्त राज्य में रहने वाले भारतीय मूल के 4.2 मिलियन लोग हैं। जैसे-जैसे भारतीय अमेरिकी समुदाय की प्रोफाइल बढ़ी है, वैसे ही इसका आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव भी बढ़ा है।

वहां की हर पार्टी की सरकारों में भारतीयों की संख्या काफी सराहनीय रही है। ट्वीटर (एक्स) के सीईओ पराग अग्रवाल हैं तो गूगल के सीईओ सुन्दर पिचाई हैं जिनकी वार्षिक आय 242 मिलियन डॉलर है। पिचाई 2015 में गूगल के सीईओ बने थे। आज गूगल क्रोम सबसे पॉपुलर इंटरनेट ब्राउजर है और इसका श्रेय पिचाई को ही जाता है। इसके साथ ही गूगल हर सर्च से करीब हर मिनट 2 करोड़ रुपये की कमाई करता है। सत्या नडेला वर्ष 2014 में माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ बने थे। वर्तमान में कम्पनी का बाजार पूंजीकरण करीब 2.53 खरब डॉलर है। नडेला की आय 23 लाख डॉलर पहुँच गई। नडेला को ग्लोबल इंडियन बिजनेस आइकॉन का सम्मान भी मिल चुका है। भारतीय मूल के अरविन्द कृष्णा 2020 से अमेरिका की बड़ी कम्पनी इण्टरनेशनल बिजनेस मशींस के सीईओ हैं। इस कम्पनी की बाजार पूंजी 8 लाख करोड़ रुपए से ऊपर है।

भारतीय मूल के शान्तनु नारायण 2007 से एडॉब इंक के सीईओ हैं। इसके अलावा अमेरिका की प्रमुख फूड और बेवरेज कम्पनी पेप्सीको में इन्दिरा नूई लगभग 12 साल तक सीईओ बनी रहीं। नूई के 12 साल के कार्यकाल में पेप्सिको की आय में 80 प्रतिशत से अधिक वृद्धि हुई। वर्तमान में भारतीय मूल के जो लोग अमेरिकी टेक कम्पनियों को सम्भाल रहे हैं उनकी कुल बाजार सम्पदा लगभग 5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है। माइक्रोसॉफ्ट के 34 प्रतिशत कर्मी भारतीय मूल के लोग हैं। अमेरिका के वैज्ञानिकों में भी 12 प्रतिशत भारतीय हैं और नासा के तो 36 प्रतिशत वैज्ञानिक भारतीय मूल के हैं। भारतीयों की भूमिका अमेरिका के विकास में गिनाने बैठें तो शायद ये चर्चा कभी खत्म न हो। ये भारतीय हैं जो अमेरिका को विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और अमेरिका भी इस बात को स्वीकार करता है।

भारतीय किसी की कृपा या दया पर नहीं बल्कि अपनी योग्यता, परिश्रम व मेधा के बल पर मौजूदा मुकाम पर पहुंचे हैं। असल में पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प की संकीर्ण दक्षिणपन्थी सोच जो वहां के युवाओं में तेजी से फैल रही है और यह मानती है कि अमेरिका पर केवल वहां के निवासियों का ही अधिकार है। ऐसी सोच रखने वालों को एक बार अमेरिका के असली मूलनिवासियों के बारे भी सोचना चाहिए जो आज लुप्तप्रायरू प्रजाति में शामिल हो चुके हैं। अमेरिका में आज जो भी हैं वो सभी बाहर से आए लोग हैं और अपने परिश्रम से आगे बढ़े हैं। वहां के युवाओं को भारतीयों से ईर्ष्या करने की बजाय इनसे सीख व प्रेरणा लेनी चाहिए।

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