अंबुज कुमार
शायद मैं लिख रहा हूं तो हमारे शिक्षक समाज के लोग विरोध भी करेंगे लेकिन हकीकत है कि ऑनलाइन अटेंडेंस के मामले में सरकार गलत नहीं कर रही है और न ही सरकार कोई तुगलकी फैसला ले रही है। वह तो बस विद्यालय में रहने का जो समय है और पढ़ाने का समय है, उसी को निश्चित कर रही है। जब शिक्षक लोग कर्तव्यनिष्ठ और समय के पाबंद है तो इस फैसले से विचलित नहीं होना चाहिए।
अक्सर आम जनता की शिकायत रहती है कि शिक्षक समय से नहीं आते हैं और पूर्व ही चले जाते हैं। अगर अपने दिल पर हाथ रखकर सोचें तो जो सड़क के किनारे और मुख्य धारा के विद्यालय हैं, वहां के शिक्षक पहले भी समय से आते थे और समय से जाते थे। उसमें 10- 20 मिनट की देरी को हम मान सकते हैं लेकिन अक्सर जो विद्यालय मुख्य सड़क से कोसों दूर हैं,सुदूर गांव में अवस्थित है, जहां शिक्षा की स्थिति बदहाल है, जहां के अभिभावक फटेहाली की जिंदगी जी रहे हैं,जहां लोगों में चेतना नहीं जगी है,वहां के शिक्षक दस बजे आकर 2रू00 बजे विद्यालय बंद कर चले जाते थे और बच्चों को उसके पूर्व ही छुट्टी दे देते थे। इस बात की चर्चा खुद शिक्षक ही गाड़ियों में करते देखे जा सकते हैं। इसे वहां के अभिभावक भी समझ रहे थे लेकिन शिकायत करें तो किस से करें?? इसका सबसे ज्यादा नुकसान गरीब बच्चों की शिक्षा को हो रहा था। पढ़ाई लिखाई ढंग से नहीं होने के कारण गलत संगति में पड़कर बर्बाद हो रहे थे। इसलिए आंख बंद कर सरकार के हर फैसले को गलत नहीं कहा जा सकता है।
अमीरों के बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं जिसके कारण ये लोग सरकारी विद्यालय की व्यवस्था पर कुछ नहीं बोल पाते हैं। वह भी चाहते हैं कि यहां पढ़ाई लिखाई ना हो और गरीब के बच्चे अनपढ़ ही रह जाए, ताकि हमारे खेत खलिहानों में कामगारों की कमी न रह सके । अगर दूसरी तरफ देखेंगे तो इन गरीब अभिभावको में भी चेतना का अभाव है। ये लोग भी जो अमीर कहते है,वही सुनते है। कभी भी अपने बच्चों की पढ़ाई देखने विद्यालय नहीं जाते हैं। शिक्षक अभिभावक मीटिंग में बुलाने के बाद भी ये लोग नहीं जा पाते हैं,लेकिन खाना,पोशाक के लिए हंगामा कर देते हैं। बिहार में कोई भी अभिभावक संगठन ने शिक्षा के लिए आंदोलन किया हो,मुझे ध्यान नहीं है। इसीलिए कहा गया है कि इन्हें जो दो चार रुपए देता है वह सही लगता है और जो शिक्षा की बात करता है, उसे ये लोग गलत कहते हैं।
ध्यान देने योग्य बात है कि गरीबों के जीवन में उत्थान केवल शिक्षा से ही संभव है। अन्य रास्ते तत्काल में भले ही अच्छे लगें लेकिन स्थायी परिणाम नहीं दे सकते। सरकारी शिक्षा बदहाल होने के कारण ही बड़े पैमाने पर युवा और किशोर नशे की गिरफ्त में आते जा रहे हैं।
अभी यूपी में अखिलेश यादव ने शिक्षकों की गलत मांगों को साथ देकर जनता का विश्वास खो दिया है। अब तो स्पष्ट हो गया है कि शिक्षक पूरा समय विद्यालय में देना नहीं चाहते हैं। दूसरी बात कि यह शिक्षक समाज राजनीतिक आधार पर किसी का नहीं है। जातीय समीकरण के अनुसार ही वे अपना वोट देते हैं। शिक्षकों की नाराजगी से किसी राजनीतिक दल को कोई नुकसान नहीं होता है क्योंकि शिक्षकों में राजनीतिक एकता का अभाव रहता है।
इसलिए बिहार के विपक्षी दलों को सरकार के सुधारात्मक कदम का आंख मूंद कर विरोध करने से बचना चाहिए। जिस काम से आम जनता का भला हो रहा है और वह खुश है, उस काम का विरोध राजनीतिक दल को नहीं करना चाहिए। यहां वर्तमान समय में विद्यालय अवधि को लेकर हर स्तर पर जरूर सवाल उठ रहे हैं। कमजोर बच्चों के पढ़ने के नाम पर और विविध कार्य के नाम पर जो शिक्षकों को अनावश्यक रूप से छुट्टी के बाद रोका जा रहा है,इस पर निश्चित तौर पर आपत्ति हो सकती है।
समझ सकते हैं कि इन्हीं कार्यों के कारण पूरे देश में सत्ता परिवर्तन की लहर के बावजूद बिहार की जनता और खुद शिक्षकों ने भी एनडीए सरकार पर अपना विश्वास कायम रखा। इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति से बचने की जरूरत है,तभी हमारा समाज समावेशी विकास के रास्ते बुलंदी को छू सकेगा।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)