गौतम चौधरी
सरकार में नहीं रहने के बाद भी इन दिनों झारखंड भाजपा अपने आप को बुलंदियों पर होने का दावा कर रही है। कुछ कृत्रिम चुनाव विश्लेषक भी ऐसा मानकर चल रहे हैं कि अगर अभी प्रदेश में चुनाव करा दिया जाए तो भाजपा बहुमत के साथ वापस लौटेगी। हालांकि रामलला मंदिर में भगवान के प्रण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम के बाद राजनीतिक माहौल में भगवापन का इजाफा देखने को तो मिल रहा है लेकिन यह वोट में कितना बदलेगा यह कह पाना फिलहाल कठिन जान पड़ता है।
हर पर्यवेक्षक और विश्लेषक अपने-अपने मिजाज और तरीके से चुनावी गणित की व्याख्या करते हैं। आजकल तो चुनाव पूर्व परिणाम का पूर्वानुमान लगाने वाली एजेंसी भी राजनीति से ज्यादा आर्थिक पहलुओं पर ध्यान दे रही है। खैर, इस गहराई में जाने से विषय थोड़ा विषयांतर हो जाएगा। बहरहाल,्र हम झारखंड की राजनीति पर ही केन्द्रित रहते हैं। प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार नहीं है। पीछे 2019 जब भाजपा वाले हारे थे तो उसके एक तत्कालिन महामंत्री ने दावा किया था कि हमारे वोटबैंक तो बढ़े हैं लेकिन हम सत्ता से दूर हैं। इसके बाद पार्टी अपनी केन्द्र सरकार की उपलब्धियों का प्रचार करने लगी, जो लगातार जारी है। इधर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार ने प्रदेश सरकार के मुखिया हेमंत सोरेन पर दबाव बनाना प्रारंभ कर दिया। केन्द्र की विभिन्न जांच एजेंसियों ने झारखंड पर दबिस बनायी और लगातार प्रदेश सरकार को घेरने की कोशिश होती रही लेकिन जब-जब प्रदेश सरकार के मुखिया घिरते नजर आए, तब-तब भाजपा के दो प्रभावशाली नेता के कारण हमेंत सोरेन के खिलाफ मोर्चेबंदी ढीली पड़ गयी। एक के बारे में तो लंबे समय तक प्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता रहे पूर्व मंत्री और वर्तमान विधायक सरयू राय ने तो यहां तक कह दिया था कि प्रदेश में जहां भी भ्रष्टाचार का मामला सामने आता है, उसके जांच का रास्ता उक्त नेता के दरवाजे पर जाकर खत्म होता है। उन दिनों राजनीतिक गलियारे में इस टिप्पणी की बहुत चर्चा भी हुई थी। दूसरे नेता के बारे में यह कहा जाता रहा कि वे हेमंत सोरेन को अपने बयानों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करते हैं।
हेमंत सोरेन की लोकप्रियता कितनी बढ़ी या घटी उसका पैमाना तो चुनाव ही हो सकता है। अभी तक प्रदेश में हुए तमाम उपचुनावों में से भाजपा और उसके गठबंधन को मात्र एक सीट ही मिल पाई है। यदि चुनाव परिणाम लोकप्रियता का मापदंड होगा तो हेमंत और उनकी सरकार अभी मजबूत स्थिति में है। किसी राजनीतिक दल के लिए सांगठनिक मजबूती भी मायने रखता है। उस परिप्रेक्ष्य में भी हेमंत और उनका गठबंधन मजबूत दिख रहा है। लाख कोशिश के बाद भी न तो कांग्रेस के विधायकों ने अपनी आस्था बदली और लाख आंतरिक गतिरोधों के बाद भी झारखंड मुक्ति मोर्चा एकजुट रहा। विगत दिनों विश्वासमत के दौरान 47 विधायकों ने चंपई सोरेन सरकार के पक्ष में अपना मत प्रस्तुत किया। यह भाजपा और उसके राजनीतिक साथियों के लिए राज्य गठन के बाद की सबसे बड़ी चुनौती है।
प्रेक्षकों की माने तो भाजपा के रणनीतिकारों ने हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी की रणनीति बना कर उसे और मजबूत कर दिया है। इस गिरफ्तारी के कारण हेमंत को दोतरफा मजबूती मिली है। पहली मजबूती तो यह है कि उसे अपने वोटरों को यह समझाने में आसानी हो रही है कि वह काम तो अच्छा ही करना चाह रहे थे लेकिन केन्द्र की मोदी सरकार नहीं करने दे रही थी और अंततोगत्वा एक आदिवासी मुख्यमंत्री को सत्ता से हटाने की पूरी कोशिश की गयी। इस प्रकार हेमंत के खिलाफ जो थेड़ा सत्ताविरोधी रुख था वह भी अब कमजोर पड़ गया है। इसे भाजपा के कार्यकर्ता किस रूप में ले रहे हैं यह तो पड़ताल का विषय है लेकिन प्रदेश के कुछ खास नेता इस मामले को लेकर संजीदा हैं। वे अब डैमेज कंट्रोल की रणनीति पर काम कर रहे हैं और हेमंत के खिलाफ अपनी आक्रामता को कांग्रेस की ओर मोड़ दिए हैं। इधर कांग्रेस भी झारखंड में बिहार वाली स्थिति में नहीं है। यहां कांग्रेस का अपना जनाधार है और उसने अपना वोटबैंक मजबूत भी किया है।
लिहाजा, भाजपा की रणनीति के सार्वजनिक होने से फायदा हेमंत सोरेन को ही होता दिख रहा है। इधर प्रदेश के साम्यवादी दल भी एकजुट होकर हेमंत के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं। हाल आसन्न लोकसभा चुनाव में भी इसका असर दिख सकता है। यदि हेमंत के पक्ष का प्रचार तंत्र प्रभावी रह और सांगठनिक मजबूत बरकरार रही तो झारखंड में भाजपा और उसके साथी दोनों को घाटा होगा।