हसन जमालपुरी
वैश्विक उम्माह की अवधारणा, मुसलमानों का विश्वव्यापी समुदाय जो अपने विश्वास के कारण एकजुट है, निःसंदेह मानवता के एक आदर्श तो जरूर है। हालांकि, आधुनिक युग में, राष्ट्र-राज्यों और अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के प्रभुत्व ने, इस दृष्टिकोण के सामने चुनौती प्रस्तुत की है, बावजूद इसके यह आज भी दुनिया की मानवता के लिए उदाहरण है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य प्रणाली, जो 17वीं शताब्दी में वेस्टफेलिया की संधि के साथ उभरी, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय पहचान के सिद्धांतों पर जोर देती है। ये सिद्धांत अक्सर एक अंतरराष्ट्रीय धार्मिक समुदाय के विचार के साथ संघर्ष करता दिखता है। प्रत्येक राष्ट्र-राज्य के अपने कानून, रीति-रिवाज और हित होते हैं, जो धार्मिक एकजुटता को पीछे ढ़केलता दिखता है। राष्ट्रवाद और देशभक्ति वैश्विक धार्मिक समुदाय के बजाय राज्य के प्रति अपनेपन और वफादारी की भावना को बढ़ावा देती है। कई लोगों के लिए, उनके राष्ट्र और उसकी संस्कृति से जुड़ी पहचान व्यापक धार्मिक पहचान से अधिक महत्वपूर्ण होती है। हालांकि, इस्लाम इस मामले को लेकर अंतरविरोध में रहा है।
यदि हम के मुस्लिम देशों की ही बात करें तो वे भी आपस में एक रूप नहीं है। वे राजनीतिक प्रणालियों, सांस्कृतिक परंपराओं और इस्लाम की व्याख्याओं की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करते हैं। सुन्नी और शिया शाखाओं के साथ-साथ अन्य संप्रदायों के बीच भारी गतिरोध देखने को मिलता है। इसके कई उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त, इन देशों में राजनीतिक व्यवस्था लोकतंत्र से लेकर राजतंत्र और धर्मतंत्र तक भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। ये अंतर अक्सर हितों और नीतियों के टकराव को भी जन्म देते हैं, जो एक सुसंगत वैश्विक उम्माह की धारणा को कमजोर करता है। उदाहरण के लिए, सऊदी अरब और ईरान जैसे देशों के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता साफ झलकती है। इन दोनों देशों के बीच कैसे सांप्रदायिक और राजनीतिक विभाजन धार्मिक एकता को प्रभावित कर सकते हैं, उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
राष्ट्र-राज्य रणनीतिक हितों, आर्थिक विचारों और राजनीतिक गठबंधनों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में संलग्न होते हैं, जो जरूरी नहीं कि धार्मिक संबद्धता के साथ संरेखित हों। मुस्लिम बहुल देश आपस में गठबंधन बना सकते हैं लेकिन उस गठबंधन से ज्यादा मजबूत आर्थिक या सुरक्षा कारणों से बनाया गया गैर-मुस्लिम देशों के साथ वाला गठबंधन हितकर साबित होता है। यह दर्शाता है कि राष्ट्रीय हित अक्सर धार्मिक एकजुटता से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका और कई खाड़ी देशों के बीच घनिष्ठ आर्थिक और सैन्य संबंध हैं।
राष्ट्र-राज्यों के भीतर कानूनी और सामाजिक व्यवस्थाएं उनकी विशिष्ट आबादी को ध्यान में रखकर बनाई गई हैं, जिसमें मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों शामिल हैं। ये व्यवस्थाएं, हमेशा इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हो सकती हैं, जिससे ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं जहां राष्ट्रीय कानून धार्मिक अपेक्षाओं से टकराते हैं। धर्मनिरपेक्ष या बहु-धार्मिक राज्यों में, कानूनी ढांचे अक्सर तटस्थ या विभिन्न धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं को शामिल करने के लिए डिज़ाइन किए जाते हैं, जो किसी भी एक धार्मिक पहचान के प्रभाव को कम कर सकते हैं।
यह राष्ट्रीय सीमाओं से परे एक वैश्विक उम्माह के विचार को और जटिल बनाता है। वैश्वीकरण की ताकत और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का प्रसार सार्वजनिक जीवन में धर्म के प्रभाव को चुनौती देता है। जैसे-जैसे राष्ट्र-राज्य विविध आबादी को समायोजित करने के लिए अधिक धर्मनिरपेक्ष नीतियों को अपनाते हैं, समुदायों को एकजुट करने में धर्म की भूमिका कम होती जाती है। यह धर्मनिरपेक्ष प्रवृत्ति एक वैश्विक धार्मिक समुदाय की धारणा को बनाए रखने में कठिन बनाती है, जो राष्ट्रीय निष्ठाओं को दरकिनार कर सकती है।
दुनिया के बढ़ते अंतर्संबंध ने संस्कृतियों और विचारों के सम्मिश्रण को भी जन्म दिया है, जो किसी एक धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान की विशिष्टता को कम करता है। इसके अलावा, मुस्लिम बहुल देशों के बीच आर्थिक असमानताएं आपस में एक अलग प्रकार की प्रतिस्पर्धा पैदा करती हैं। कभी-कभी गरीब मुस्लिम देशों की कीमत पर धनी देश अपनी आर्थिक स्थिरता और विकास को प्राथमिकता दे सकते हैं लेकिन यह लगातार नहीं हो सकता है। क्योंकि धनी देशों की अपनी प्राथमिता होती है। यह आर्थिक स्वार्थ एक एकीकृत उम्माह की अवधारणा को कमजोर करता है। उदाहरण के लिए, तेल समृद्ध खाड़ी राज्यों की आर्थिक नीतियां और प्राथमिकताएं अक्सर अफ्रीका या एशिया के गरीब मुस्लिम देशों से काफी भिन्न होती हैं। मुस्लिम बहुल देशों में राजनीतिक प्रणालियों, सांस्कृतिक प्रथाओं, आर्थिक हितों और कानूनी ढांचे की विविधता अक्सर धार्मिक पहचानों की तुलना में राष्ट्रीय को प्राथमिकता देती है जबकि वैश्विक उम्माह की आकांक्षा मुस्लिम पहचान का एक महत्वपूर्ण पहलू बनी हुई है।
इसलिए उम्माह तो ठीक है लेकिन यह एक आदर्श है लेकिन इसे धरती पर उतारना उतना आसान नहीं है। भारत के मुसलमानों की प्राथमिकताएं अलग है और संयुक्त अरब अमीरात के लिए यह भिन्न है। उसी प्रकार पाकिस्तान के मुसलमानों के लिए यह प्राथमिकताएं अलग होगी जबकि बांग्लादेश के लिए अलग। भारतीय उपमहाद्वीप मे ंतो इसका बड़ा उदाहरण है। इस्लाम के आधार पर बना पाकिस्तान 24 वर्ष में ही टूट गया और बांग्लादेश एक स्वतंत्र इस्लामिक राष्ट्र के रूप में दुनिया के सामने आया। जिस अफगानिस्तान को पाकिस्तान ने इतना सहयोग किया आज वही अपने भू-राजनीतिक स्वार्थ को लेकर संघर्ष के लिए उतारू है। इसलिए उम्माह की अवधारणा एक आदर्श है इसे धार्मिक स्तर पर ही रहने देना चाहिए, राजनीतिक स्तर पर इसकी अवधारणा फिलहाल तो संभव नहीं दिखता है।
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