उत्तर आधुनिक समाज, हाईटेक युग और सोशल मीडिया का खेल

उत्तर आधुनिक समाज, हाईटेक युग और सोशल मीडिया का खेल

सोशल नेटवर्किग साइट्स ने अब अपनी घुसपैठ राजनीति में भी कर ली है या यूं कहें कि राजनीति ने अब अपनी घुसपैठ सोशल साइट्स में कर ली है तो ज्यादा सही रहेगा। हाल के चुनाव ने यह सिद्ध कर दिया है।

फायदे नुकसान की बात अगर की जाए तो वे हर चीज के हैं। देखने वाली बात यह है कि बैलेंस कहीं नुकसान का भारी न पड़ जाए। इस बात में कोई दो राय नहीं कि सोशल मीडिया के कारण हम मीलों की दूरियां पल भर में तय कर मनचाहे लोगों से संपर्क कर सकते हैं।

आज की युवा पीढ़ी का वर्चुअल वल्र्ड में रहने का जुनून इस कदर बढ़ गया है कि जो असल की दुनियां के लोग हैं, वे पीछे छूटते जा रहे हैं। अब रिश्तेदारों के बारे में जानकारी रखने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है। पड़ोसियों से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता, यहां तक कि एक ही बिल्डिंग में रहने वाले लोग एक दूसरे को नहीं जानते।

दोस्तों के साथ खाते पीते हंसी मजाक करना, उनके साथ इंटरएक्ट करना अब गुजरे जमाने की बातें हो चली हैं। अब दोस्त बनते हैं तो आभासी ( वर्चुअल) दुनियां के दूसरे शहर दूसरे देश में रहने अपने फेसबुक फ्रैंडस की कंपनी उन्हें ज्यादा अच्छी लगने लगी है। उनके बारे में वे पूरी दिलचस्पी से हर जानकारी रखते हैं। उनके फेसबुक टाइमलाइन और व्हाॅटसअप स्टेटस को लगातर फाॅलो करना उनका पहला शगल बन गया है। यह जुनून आज ज्यादा से ज्यादा युवाओं व टीनएजर्स के सर चढ़कर बोल रहा है।

आज बढ़ती तलाक की समस्या का एक मुख्य कारण इंटरनेट व मोबाइल का अत्यधिक इस्तेमाल है। हसबैंड वाइफ एक दूसरे को समय नहीं दे पाते। इससे संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे में आपसी अंडरस्टेंडिग बॉन्डिंग हो भी तो कैसे? आपसी विश्वास खत्म, अंतरंगता खत्म। बस रहता है एक मेकेनिकल ढर्रे का जीवन जिससे ऊब कर रिश्ते टूटने की कगार पर आ जाते हैं।

बच्चे भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। अपनी ही दुनियां में लीन बच्चों को बगैर उचित गाइडेंस के भटकते देर नहीं लगती। सोशल साइट्स पर उनकी सक्रियता दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। एसोचैम के एक सर्वे के अनुसार मेट्रोज तथा बड़े शहरों में 8 से 14 वर्ष तक के 72 प्रतिशत बच्चे फेसबुक तथा अन्य साइट्स पर सक्रिय हैं। कई पेरेंटस स्वयं अपनी जान छुड़ाने को बच्चों को बढ़ावा देकर उनसे जुड़ने में मदद करते हैं, इस बात की अनदेखी करते हुए कि इसका क्या अंजाम हो सकता है। शराब की तरह ही यह भी एक एडिक्शन बन जाता है और एडिक्शन किसी भी चीज का बुरा होता है।

ऐसे कितने ही किस्सों से पत्रा पत्रिकाएं भरे पड़े रहते हैं जब सोशल साइट्स पर लोग फर्जी प्रोफाइल डालकर दूसरों को धोखा देते हैं। पोल खुलने पर कभी धोखा खाने वाला और कभी धोखा देने वाला भी आत्महत्या तक कर डालते हैं। हाल ही की एक घटना है जब दिशा नाम की एक लड़की के घर कुछ लोग अपनी कार से पहुंच गए। सामने ही कमरे में लड़की के माता पिता बैठे थे। उनके सामने ही जब युवकों ने लड़की से फिजिकल होने की बात करते हुए उसका रेट पूछा तो वे हक्के बक्के रह गए। जब उन्होंने युवकों को फटकारा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट पर दिशा की जो प्रोफाइल देखी थी, उसमें यह कहा गया था कि कालगर्ल दिशा के मां-बाप ही उससे धंधा कराते हैं। दरअसल हुआ यह था कि दिशा के किसी दुश्मन ने दिशा को बदनाम कर उससे बदला लेने के लिए यह सब किया था। इस तरह गलत लोगों के लिए यह एक हथियार बन चुका है।

इंटरनेट एडिक्शन से जो समस्याएं बढ़ रही हैं वे हैं- अकेलापन, भूलने की बीमारी, पारिवारिक कलह और कमजोर होते रिश्ते लेकिन एक नेसेसरी इविल की तरह ही हम टेक्नोलाजी की देन सुविधाएं प्रदान करने वाले गेजेट्स को पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। जरूरत है तो बस इनके समझदारी पूर्ण, इंटेलिजेंट और मेच्योर इस्तेमाल की। यह आपके हमारे ऊपर निर्भर है कि हम इनका इस्तेमाल किस हद तक, कितना और कैसे करते हैं।

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