रविंदर
भारत में ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ ग़रीबों को अनाज मुहैया करवाने की सरकारी योजना है। इस प्रणाली के तहत सरकार निःशुल्क या बहुत कम क़ीमत पर खाद्य पदार्थ मुहैया करवाती है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली भारत सरकार और राज्य सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से चलाई जाती है। इसमें मुख्य रूप से अनाज और दालें दी जाती हैं, जैसे गेहूँ, चावल, चने, दाल आदि। लेकिन कुछ राज्यों में तेल, नमक, मसाले आदि भी दिए जाते हैं। सरकार के लिए ख़रीद का यह काम भारत सरकार की एजंसी एफ़.सी.आई. और राज्यों सरकारों की एजंसियों द्वारा किया जाता है। ये एजंसियाँ खाद्य पदार्थों की ख़रीद, भंडारण और ढुलाई का काम करती हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अपने लाभार्थियों की पहचान करना, उनके राशन कार्ड जारी करना आदि राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी होती है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत भारत के लोगों को भोजन मुहैया कराना सरकार की क़ानूनी ज़िम्मेदारी है। हमारे कुछ मौलिक अधिकार हैं, जैसे शिक्षा का अधिकार, जीने का अधिकार, बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार आदि जिन्हें लोगों ने लंबे संघर्ष के बाद हासिल किया है। लेकिन क़दम-क़दम पर शासक जनता के मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार, भारत के 81 करोड़ लोगों को नियमित रूप से ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ के तहत अनाज मिलता है। लेकिन इसमें भी बड़े स्तर पर घपला किया जाता है।
‘राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की भारतीय खोज काउंसिल’ ने ताज़ा रिपोर्ट जारी करके दावा किया है कि हर साल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत 69,000 करोड़ रुपए का अनाज लोगों तक पहुँचने की बजाय गायब हो रहा है। यह अनाज कालाबाज़ारी में जा रहा है। इस अनाज की मात्रा लगभग तीन करोड़ टन बनती है, जो सरकारी गोदामों से निकलता तो है लेकिन लोगों के घरों तक नहीं पहुँचता। देश स्तर पर 28 प्रतिशत अनाज चोरी हो रहा है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार साल 2011-12 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का 46ः अनाज या तो बर्बाद हो रहा था या चोरी हो रहा था। पिछले समय में राशन कार्डों से लेकर डिपो सिस्टम तक सबमें आधुनिकीकरण किया गया, डिजिटल इंडिया की बातें हुई, अनाज ढोने के लिए ट्रकों में ट्रैकिंग यंत्र लगाए गए, लेकिन इसके बावजूद चोरी जारी है। साफ़ है कि इतनी बड़ी चोरी बिना सरकारी संरक्षण के संभव नहीं है और इसमें व्यवस्था के अधिकारी आदि सीधे तौर पर ज़िम्मेदार हैं। लेकिन चूँकि मामला ग़रीबों के अनाज का है, इसलिए इसकी सरकारों को परवाह नहीं है और दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं।
विभिन्न राज्यों के आँकड़े भी इस रिपोर्ट में दिए गए हैं, जिनके मुताबिक़ योगी के “रामराज्य” उत्तर प्रदेश में 33ः अनाज चोरी होता है। गुजरात जैसे राज्य सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अनाज की चोरी के मामले में सबसे आगे हैं। इस तरह कि भाजपा ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज की चोरी के मामले में भी गुजरात मॉडल कायम किया है।
इतने बड़े घोटाले के बावजूद भारत सरकार के खाद्य मंत्रालय ने इस रिपोर्ट को मानने से इनकार कर दिया है और इस पर ही सवाल उठा दिए हैं! इससे पहले भी मोदी सरकार बेरोज़गारी के आँकड़ों की रिपोर्ट, भुखमरी की रिपोर्ट, प्रेस की आज़ादी की रिपोर्ट आदि सबको खारिज कर चुकी है।
निस्संदेह यह मुद्दा लोगों को भुखमरी से बचाने का, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पुख्ता ढंग से लागू करने का, मेहनतकश जनता की मेहनत की कमाई से जुटाए गए टैक्स से उन्हें मिलने वाली सार्वजनिक सुविधाओं में पारदर्शिता लाने का है। लेकिन सवाल यह है कि यह सब होगा कैसे? क्या जैसे रिपोर्ट में सुझाव दिए गए हैं कि अधिक आधुनिकीकरण और निगरानी के साथ सब ठीक हो जाएगा?
सबसे पहली बात हमें यह समझनी चाहिए कि पूँजीवादी सरकारों का मूल काम जनता की सेवा करना नहीं, बल्कि लूट, शोषण, अन्याय पर टिके अपने पूँजीवादी तंत्र की सेवा करना है। पिछले वर्षों से लगातार सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे को और छोटा किया गया है। यह सरकार के जनविरोधी होने का एक और पक्का सबूत है। दूसरा, भारत की पूँजीवादी सरकारी व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार नासूर की तरह है, जिसका हल छोटे-मोटे क़ानूनी तरीक़ों से नहीं किया जा सकता। सरकार के बड़े मंत्रियों से लेकर गाँव के डिपो मालिक तक भ्रष्टाचार की कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं। यह ढाँचा रिश्वतों से लेकर डरा-धमकाकर काम लेने से चलता है। जो व्यवस्था निजी संपत्ति और इस आधार पर टिकी लूट को क़ानूनी रूप से जायज़ मानता हो, वहाँ हर ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से भी लूट होगी ही होगी। इसलिए हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के ख़ात्मे के साथ-साथ समूचे समाज के राजनीतिक-आर्थिक ढाँचे में बुनियादी बदलाव के लिए भी कोशिशें करनी होंगी।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। इससे हमारे प्रबंधन का कोई सरोकार नहीं है।)